Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 60
________________ [२७१-२८४ ] जिनदत्ताख्यानम् । ३१ मज्झरत्तसमए पडिनियत्तेण भणिया अंगारवई - 'पिए ! भगवओ वासुपुजस्स जम्मभूमीए निद्यामो यणिसेसं ।' तीए पडिवने तम्मि चेव विमलमईउज्जाणे ओइमाई । तओ जिणय तेण चिंतियं 'सुंदरं जायं मिलियाओ एगत्थ दइयातो, ता एवं पि अंगारवई एएसिं समीचे मोत्तूण पच्छण्णरूवधारी इहेव चिट्ठामि । अवि य - समदुक्ख दुक्खियाणं, मेत्ती तिन्हं पि उत्तमा होउ । पच्छा वि जेण कलहं, एयाओ नेय कुवंति ॥ २७१ ॥ लहूण अवसरं तो, दाहं एयाण दंसणं पच्छा । एवं विचितिऊणं, अंगारवई समुल्लव || २७२ ॥ दइए ! सुबसु विसत्था, अहयं चिट्ठामि जग्गिरो चैव । को जाणs परदेसे, सीलसहावं मणुस्साणं ।। २७३ ॥ सुविसत्थमणा सुत्ता, अंगारवई अनायपरमत्था । इयरो वामणरूवं, काऊणं झति ऊसरिओ ॥ २७४ ॥ अह पच्छिमराईए, अंगारवई विबोहमावन्ना । दयं अपेच्छमाणी, चिंतत्र किं सुविणओ एस १ ॥ २७५ ॥ नहि नहि नूण निलुको, बीहड़ दइया न वचि कलिऊणं । पण तत्तो दयय !, धीरतं कत्थ नारीणं ॥ २७६ ॥ बीमि एहि तुरियं, दिट्ठो दिट्ठो सि नाह! मा लुक्क । पेच्छ पहाया रयणी, अञ्ज वि दूरम्मि गंतवं ॥ २७७ ॥ अनिट्ठरोसि जाओ, परिहासो एतिओ सुहावेइ । थरथरइ मज्झ हिययं, अच्छसि कयलीवणे तंसि ॥ २७८ ॥ जाहे न एइ दहओ, ताहे चितेह हा किमेयं । ति । चत्ता पण किमहं निद्दोसं कीस वा चइही ॥ २७९ ॥ पण जइ अवरुद्ध, दयय ! अण्णाणओ मए किं. पि । . पसिय कहिअउ मज्झं, बीयं चिय तं न काहामि ॥ २८० ॥ आऊण घराओ, मुका एगागिणी इह परसे किं भववित्तो, दइयय ! तं वेरिओ मज्झ ॥ २८१ ॥ किं नाह मज्झ कुविओ, किं वा हरिओ सि अण्णखयरीएं । हा दयय ! कत्थ गओ, रुयमाणी किं न पेच्छेसि १ । २८२ ॥ खणरत्तविरताओ, नारीओ हुंति जीवलोगम्मि । सप्पुरिसाण महायसं ! न हु छजइ एरिसं कम्मं ॥ २८३ ॥ सा पीई सो पणओ, दक्खिणं तारिसं पुरा आसि । eave for किं तं दयय ! काहि अवहरियं ॥ २८४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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