Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 68
________________ [२५०-३६२] जिनदत्ताख्यानम् । सइरोग-सोगपउरे, संपत्ति-विवत्तिहुंतपरियत्ते । माणुसभवम्मि तायय!, को जाणंतो रई कुणइ ॥ ३५०॥ साहीणो अपवग्गो, सग्गो वा जिणवरिंददिक्खाए । गिहवासपासबद्धो, तरामि न हु अच्छिउं तम्हा ॥ ३५१ ॥ जे जे पेच्छसि जीवे, ते पुत्ता तुज्झ गंतसो जाया। न य तेहि तुज्झ तायय !, साहारो संपयं को वि ॥ ३५२ ।। सको सबस्स पिया, सबो सबस्स बंधवो आसि । सबो वि मित्त-सत्तू, संसारेऽणोरपारम्मि ॥ ३५३ ॥ पुणो अम्ब-ताएहि भणियं अइदुकरं खु पुत्तय !, सामन्नं होइ सुणसु खणमेकं । केसुप्पाडो भिक्खा, अन्हाणऽणुवाहणत्तं च ॥३५४॥ भूमीसेजा मलिणं, वरत्तणं तह परीसहा विविहा । अइसुकुमालो सुंदर, खणं पि सोढुं न पारिहिसि ॥ ३५५ ॥ जिणयत्तेण पवुत्तं, अम्मो! अचंतदुक्करं तस्स । जो नरयवेयणाओ, तिरिक्खदुक्खं व नो मुणइ ॥ ३५६ ॥ जह गुरुवाहिविणडिओ, किरियं अइदुकरं सुहावेइ । संसारदुक्खतविओ, तह पवजं सुहावेइ ॥ ३५७ ॥ ~ जिनदत्तस्य दीक्षाग्रहणपूर्वकं वर्गमनम् ।इय लद्धनिच्छएहि, मायामित्तेहिँ सो अणुनाओ। दाऊण महादाणं, काउं महिमं जिणगिहेसु ॥ ३५८ ॥ सुपसत्थम्मि मुहुत्ते, तणए जणयस्स ओगणित्ता णं । भामित्तेहिं समं, पवइओ गुरुसमीवम्मि ॥ ३५९ ॥ तओ-पढियं विचित्तसुत्तं, चिन्नं छट्टऽट्ठमाइ तवमुग्गं । विविहाहि भावणाहिं, अहोनिसं भाविओ अप्पा ॥३६०॥ अणवजं पवजं, सुइरं परिवालिऊण जिणभणियं । संलेहणाकमेणं, कालं काउं समाहीए ॥ ३६१ ॥ उववनो कयपुनो, अच्छरगविसंकुले विसालम्मि । सुरलोयतिलयभूए, महाविमाणम्मि सुहकलिए ॥ ३६२ ॥ केशोत्पाटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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