Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 93
________________ ६४ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्याः पाणिग्रहणम् । [१६३-१७३ ] किं वा वि कमलसंडे विओइयं हंसजुवलयं पुधि । अइमिमि(निधि)णाएँ संपइ तस्स दलं च मोत्तवं (१) ॥ १६३ अहवा किमिहारन्ने निरत्थयं विलविलेण एएण। किं पुण अणुहवितवं जं पुवकयं मए कम्मं ॥ . १६४ जइ पइससि पायालं महासमुदं च लंघिमो जइ वि। मेरुम्मि आरुहामो तहवि कयंतो पलोएइ ॥ पुणो पढियं अंगारमईए सुर-मणुयरिद्धिसंपय-बंधव-धण-रयण-कणयपरिभोगा। लायण्ण-रूय-जोयण-बलं च जीयं चणिचाई ॥ १६६ विसयाणं सिवियाणं सुड्ड वि प[3]राण हियय [प० २०.१ ]हारीणं । अयच्छ(पत्थ)भोयणाणं परिणामो दारुणो होइ ॥ १६७ अइवल्लहम्मि रोसो माणो ईसा य तामसो होइ । पियमूलियं च दुक्खं अलाहि अम्हं पियजणेण ॥ १६८ सुओ अभितरत्थाहिं विमलमइ-सिरिमईहिं सहो । निग्गयाओ ताओ 'हा किमेयं ? ति । तीय वि उग्धाडिए समाणे दिडं वीयरागाण देहरयणं । 'हा मिच्छा दुकडं' ति कुणमाणीए उवसंहरियं विमाणं । पविट्ठा निसीहियं कुणमाणी । वंदिया देवा । पुच्छिया य वुत्तंतो ताहि । कहिओ जहाविहो अवगओ सिरिम[ई]ए मम भत्तार ति जाव कहियं ईईसो त्ति, मम उवरि पडिबंधो आसि जेण कुलक्कमागयं पि बुद्धधम्म परिचइय पडिवन्नो जिणधम्मो त्ति । संपयं पुण एवंविहं कयं ति जेण परिचइय गओ त्ति । पुणो वि पढियं अंगारमईए अचंतमणहरस्स वि सहि दोसा उवरि दड्डपेम्मस्स । जं तणतणुएण वि विपि(प्पि)एण गिरिस[प० २०२.] निहं दुक्खं ॥ १६९ असरिसजणम्मि नेहो जइ कीरइ कहवि विहिनिओएण । नवनलिणीदलठियपाणिय व किं सो थिरो होइ । १७० जो घडइ दुजणो सजणो य कहकह वि जइ सुलग्गेणं । तो तक्खणं विरजइ तावेण हलिद्दरागो छ । १७१ सब्भावनेहमइए रत्ते रचिजइ त्ति रमणीयं । अणहियए पुणु हिययं जं दिजइ तं जणो हसह ॥ १७२ जो पुण सिणेहस( सं ? )ताणमलणपायडियविप्पिओ निसय(१)। यम्मिकरेतो (2) पणयं भूयाणं वायए वंसो॥ १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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