Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला ********** 20 ]********* संस्थापक स्व० श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंधी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंधी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी प्रधान संपादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि ( सम्मान्य नियामक - भारतीय विद्याभवन, बंबई ) सुमतिसूरिकृत तथा अज्ञातविद्वत्कर्तृक प्राकृत भाषा ग्रथित जिन दत्ताख्यान द्वय 1 श्री डाल. मघाश वि. सं. २००९] पं० अमृतलाल मोहनलाल, भोजक *** [ प्रकाशक ]* सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन बंबई * संपादक 品 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAHBAIRLITIMIREPAIRRRRRRRIAGERMINorm Hina tant PALIHETRAPALIRAINImmun स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी Itahatmistmanitl.times : . Cummanimamamaliniml Emmami.immamrum बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता जन्म-वि. सं. १९२१, मार्ग. वदि६) स्वर्गवास-वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ BERARAuguLDRANI For Private & Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIMIRMIRRITIHAAILLITI mitmenit immitment Sinnounupunam दानशील-साहित्यरसिक-संस्कृतिप्रिय ख. श्रीबाबू बहादुरसिंहजी सिंघी अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५] [मृत्यु ता. ७-७-१९४४ CIALIRAHARITHS TIRaiimsammtamilar AMERRIAHINIMIREHRITHERAINLALI EmaiIAAL MAITHHinimurtindilhunainail E Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ***********************[ ग्रन्थांक २७ ]*********************** प्राकृतभाषाप्रथित जिनदत्ताख्यान द्वय R............ . ........... SHTAKCam SRI DALCHAND JI SINGH श्री डानचटजी सिंघी SINGHI JAIN SERIES *********************[NUMBER 27]********************* RE TWO JINADATTĀKHYANA IN PRAKRITA Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंधी पुण्यस्मृतिर्निमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक - इत्यादि विविधविषयगुम्फित; प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर - राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध; सार्वजनीन पुरातन चाय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि . ] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी - सिंघीसत्पुत्र स्व ० दानशील - साहित्यरसिक - संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी SRI BAHADUR SINGHAJI SINGHI प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिनविजय मुनि ऑनररी मेंबर, जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी ( सम्मान्य नियामक - भारतीय विद्या भवन ) सर्वप्रकार संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंहजी सिंघी तथा श्री नरेंद्र सिंहजी सिंघी * प्रकाशक सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बंबई प्रकाशक - जयन्तकृष्ण, ह. दवे, ऑनररी रजिष्ट्रार, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बंबई. नं. ७ मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, बंबई Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमतिसूरिकृत तथा अज्ञातविद्वत् कर्तृक प्राकृतभाषा ग्रथित जिनदत्ताख्यान द्वय संपादक पं. अमृतलाल मोहनलाल, भोजक भवन ISM प्रकाशक मुंबईनगरस्थ भारतीय विद्या भवन प्रतिष्ठित सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ विक्रमाब्द २००९] प्रथमावृत्ति, पंचशत प्रति [खिस्ताब्द १९५३ ग्रन्थांक २७] सर्वाधिकार संरक्षक भा. वि. भ. [मूल्य रू. २-८-० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला * अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि 33 १ मेरुतुङ्गाचार्य रचित प्रबन्धचिन्तामणि मूल संस्कृत ग्रन्थ. २ पुरातनप्रबन्ध संग्रह बहुविध ऐतिह्यतथ्यपरिपूर्ण अनेक निबन्ध संचय. ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्द महाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. ९ प्रबन्धचिन्तामणि - हिन्दी भाषान्तर. १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्याय रचित भानुचन्द्रगणिचरित. १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. १ खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि. २ कुमारपालचरित्रसंग्रह. ३ विविधगच्छीयपट्टावलि संग्रह. * संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावलि ४ जैन पुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, भाग २. ५ विज्ञप्तिसंग्रह - विज्ञप्ति महालेख - विज्ञप्ति त्रिवेणी आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. ६ उद्योतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा. ७ कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्ति संग्रह. १४ जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. ( प्राकृत ) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह . २० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति. २१ कवि धाहिलरचित पउम सिरीचरिउ ( अप० ) २२ महेश्वरसूरिकृत नागपंचमीकहा. ( प्राकृ० ) २३ भद्रबाहु संहिता. २४ जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. ( प्रा० ) २५ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदय महाकाव्य. २६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. २७ को ऊहलविरचित लीलावती कथा. २८ जिनदत्ताख्यानद्वय. ८ दामोदरकृत उक्तिव्यक्ति प्रकरण. ९ महामुनिगुणपालविरचित जंबूचरित्र ( प्राकृत ) १० जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्र. ( प्राकृत ) ११ गुणचन्द्रविरचित मंत्री कर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. १२ नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य. १३ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदा सुन्दरीकथा. ( प्रा० ) १४ स्वयंभूविरचित पउमचरिउ ( अपभ्रंश ) १५ सिद्धिचन्द्रकृत काव्य प्रकाशखण्डन. १६ कौटल्यकृत अर्थशास्त्र - सटीक, 83 * मुद्रणार्थ निर्धारित एवं सज्जीकृतग्रन्थनामावलि १ भानुचन्द्रगणिकृत विवेकविलासटीका २ पुरातन राम-भासादिसंग्रह ३ प्रकीर्ण वाङ्मय प्रकाश. ४ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायविरचित वासवदत्ताटीका ५ देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति ६ रत्नप्रभाचार्यकृत उपदेशमाला टीका ७ यशोविजयोपाध्यायकृत अनेकान्तव्यवस्था ८ जिनेश्वराचार्यकृत प्रमालक्षण. ९ महानिशीथसूत्र. १० तरुणप्रभाचार्यकृत आवश्यकबालाव बोध. ११ राठोडवंशावलि. १२ उपकेशगच्छ प्रबन्ध १३ वर्द्धमानाचार्यकृत गणरत्नमहोदधि. १४ प्रतिष्ठा सोमकृत सोमसौभाग्यकाव्य १५ नेमिचन्द्रकृत षष्ठीशतक ( पृथक् पृथक् ३ बालावबोधयुक्त ). १६ शीलांकाचार्य विरचित महापुरुषचरित्र ( प्राकृत महाप्रन्थ). १७ चंदप्पहचरियं ( प्राकृत ). १८ नेमिनाहचरित्र ( अपभ्रंशमहाग्रन्थ ) १९ उपदेशपदटीका ( वर्द्धमानाचार्यकृत). २० निर्वाणलीलावती कथा ( सं . कथा ग्रन्थ ) २१ सनत्कुमारचरित्र ( संस्कृत काव्यग्रन्थ ). २२ राजवल्लभ पाठककृत भोजचरित्र. २३ प्रमोदमाणिक्यकृत वाग्भटालंकारवृत्ति २४ सोमदेवादिकृत विदग्धमुखमण्डनवृत्ति. २५ समयसुन्दरादिकृत वृत्तरत्नाकर कृति. २६ पाण्डित्यदर्पण. २७ पुरातनप्रबन्धसंग्रह - हिन्दी भाषान्तर. २८ भुवनभानुचरित्र बालावबोध २९ भुवनसुन्दरी चरित्र ( प्राकृतकथा ) इत्यादि, इत्यादि. * ** Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला जिनदत्ताख्यान सचे ज्ञानोनिताकमूविनानाचायति कामकातिकमनियाससारकातासिशनमानका बंम्रागतिक एमरेटालंगसरलो। यांतयारपारणतिवाणनितिणयानाधिशलाजिनदता .. रयानसमानम्॥सेम्बत् १६ पाचक श्रीधिवक्ताटलिखिनेयमाणितण्यतिनायदि नवासावाववरनागायावस्थत प्रयकारणम्॥ध्यमिगलमनुवारकजनानामू. Sohai सबसमयावदियालmg सावधवारहमास्वामयी मदिहिसानिए बाप मसभाममदादिमा विस्यमा भवषयाकालमारणमहनामि वयापा तासाशमयसका आनधामा पहासावरावयमाव क्यामभावना उम्दाश्वभूमिafaamमपक्षमतहमायनिएरापमाहानामानावर दावल्यवयजनाकासविणक्षा प्रवक्तासमभामाचमममा नानामिवयमभूयसामाधारी TAGEक्षमागमाद्यपालप्ताहानाहानमयदम रमापातामतानामवाणयानममननामays मामय वयलयाच्यात समावदासदकता यह कामादराव मनाउRRENAधामका जिससंकचियामाददापापवमासयानादसामुनयादात चमित्रा जावित्रनमगामा वसनता पाकवियनयागामाच्यासमधातामानाथधाश्यावविश्कापतामह जिनदत्ताख्याननी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिनी प्रतिकृतियो. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ बहवो निवसन्त्यत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः ॥ भीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सञ्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ पाल्य एवागतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्या धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रीयस्वबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपायं विपुलां लक्ष्मी कोव्यधिपोऽजनिष्ट सः॥ तस्य मन्नुकुमारीति सबारीकुलमण्डना । अभूत् पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहाख्यो गुणवाँस्तनयस्तयोः । अभवत् सुकृती दानी धर्मप्रियश्च धीनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवता तेन पत्नी तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं तत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्र सिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् दक्षिणबाहुवत् पितुः ॥ नरेन्द्र सिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति अयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ भन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वस्त्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत ॥ अन्यच्च २० २६ सरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्यासीत् सदाचारी तच्चित्रं विदुषां खलु ॥ नाहकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः । दृष्टः कदापि तद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भको गुरुजनानां स विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽसौ विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचाराय च शिक्षाया दत्तं तेन धनं घनम् ॥ गस्था सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दवा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहिताश्च कर्मठाः ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया। अकरोत् स यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किजिद् विशिष्टं स कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः स्वयम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्धयर्थ यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ २१ विधायैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्खमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के तने । सिंधीपदाङ्कितं जैन ज्ञान पीठ मतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाम्ना च विश्रुतः । स्वीकतुं प्रार्थितस्तेन तस्याधिष्ठायकं पदम् ॥ तस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूय मुदा येनस्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्वीयपावनपाणिना । रस-नागाई-चन्द्राब्दे तत्प्रतिष्ठा व्यधीयत ॥ प्रारब्धं मुनिना चापि कार्य तदुपयोगिकम् । पाठनं ज्ञानलिप्सूनां ग्रन्थानां प्रथनं तथा ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नैकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् ॥ जलवाय्वादिकानां तु प्रातिकूल्यादसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्र चास्थितः ॥ तत्रापि सततं सर्व साहाय्यं तेन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्द-निध्ये-चन्द्राब्दे जाता पुनः सुयोजना । ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना ॥ ततः सुहृत्परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भाविद्याभव ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता॥ भासीत्तस्य मनोवाञ्छाऽपूर्वा ग्रन्थप्रकाशने । तदर्थ व्ययितं तेन लक्षावधि हि रूप्यकम् ॥ दुर्विलासाद् विधेर्हन्त ! दौर्भाग्याचात्मबन्धूनाम् । स्वल्पेनैवाथ कालेन स्वर्ग स सुकृती ययौ ॥ इन्दु-ख-शून्य-नेवेन्दे मासे आषाढसझके । कलिकाताख्यपुर्या स प्राप्तवान् परमां गतिम् ॥ पितृभक्तश्च तत्पुत्रैः प्रेयसे पितुरात्मनः । तथैव प्रपितुः स्मृत्यै प्रकाश्यतेऽधुना पुनः ॥ इर्य ग्रन्थावलिः श्रेष्ठा प्रेष्ठा प्रज्ञावतां प्रथा । भूयाद् भूत्यै सतां सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका ॥ विद्वज्जनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसँघी ग्रन्थपद्धतिः ॥ - A ४० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकमशस्तिः ॥ स्वस्ति श्रीमदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वय भूमिपः ॥ त श्रीवृद्धि सिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिभाक् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाप्रणीः ॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य रूप लावण्य-सुवाक् सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणीं प्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवी हंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योति भैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ आगतो महदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान् बहून् । जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति - श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसनिधौ । रक्षितः शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः ॥ तथा च भ्रान्वा नैकेषु देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूय जातो जैनमुनिस्ततः ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातच्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्र - नूतन कालिकाः ॥ प्रकाशिता नैके प्रन्या विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ॥ बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च स सत्कृतः । जिनविजयनाम्नाऽयं विख्यातः सर्वत्राभवद् ॥ तस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः । विद्यापीठ इति ख्यात्या प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ भाचार्यत्वेन तत्रोच्चैर्नियुक्तः स महात्मना । रस-मुनि- निधीन्द्वेदे पुरा तत्वा ख्य मन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूय तत् पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे स तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ ar at सो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वातन्त्र्यसङ्गरे ॥ क्रमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति नि के त ने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथ भूषिते ॥ सिंधी पदयुतं जैन ज्ञानपीठं तदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्री डालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च तस्यासौ पदेऽधिष्ठातृसज्ञके। अध्यापयन् बरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंधीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे होषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ अथैवं विगतं तस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । ग्रन्थमाला विकासार्थिप्रवृत्तिषु प्रयस्यतः ॥ बाणे-रत्वे-नेयेन्द्वेदे मुंबाईनगरीस्थितः । मुंशीति बिरुदख्यातः कन्हैयालालधीसखः ॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मितौ । कर्मनिष्टस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां श्रीमतां योगात् पीठो जातः प्रतिष्ठितः । भारतीय पदोपेत विद्या भवन सन्ज्ञया ॥ आहूतः सहकार्यार्थ स मुनिस्तेन सुहृदा । ततःप्रभृति तत्रापि तस्कार्ये सुप्रवृत्तवान् ॥ तद्भवनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका ह्यपेक्षिता । स्वीकृता च सद्भावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता ॥ नन्दे-निध्य-चन्द्रान्दे वैक्रमे विहिता पुनः । एतद्ग्रन्थावली स्थैर्यकृत् तेन नव्ययोजना ॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्री सिंघीकुलभास्वता । भा विद्याभ व ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ प्रदत्ता दशसाहस्त्री पुनस्तस्योपदेशतः । स्वपितृस्मृतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिना ॥ दैवादरूपे गते काले सिंघीवयों दिवंगतः । यस्तस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् ॥ पितृकार्यप्रगत्यर्थं यत्नशीलैस्तदात्मजैः । राजेन्द्र सिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः ॥ पुण्यश्लोक पितुर्नाम्ना प्रन्थागारकृते पुनः । बन्धुज्येष्ठो गुणश्रेष्ठो ह्यर्द्धलक्षं धनं ददौ ॥ प्रन्थमालाप्रसिद्ध्यर्थं पितृवत् तस्य कांक्षितम् । श्री सिंघीसत्पुत्रैः सर्वं तद् गिराऽनुविधीयते ॥ चिद्वज्जनकृताह्लादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दवियं लोके जिन विजय भारती ॥ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ 6 3 1 x ~ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्रास्ताविक सिंघी जैन ग्रन्थमालामां गुम्फित करवा माटे पाटणना जैन भण्डारोमाथी जे केटलांक प्रन्थरूप पुष्पो में सन् १९३२-३३ मां चूंटी काढ्यां हतां तेमांनी ज प्रस्तुत प्रन्यांकमां प्रकट थती 'जिनदत्ताख्यान' नामनी बे पुष्पकलिकाओ पण छे. मात्र पाटण अने जेसलमेरना भण्डारोमां प्राचीन ताडपत्र उपर ज लिखितरूपे उपलब्ध थती आ बन्ने कृतिओनी प्रतिलिपि करवाने काम भाई अमृतलाल पण्डितने सोंप्यु. ताडपत्रीय लिपिना वाचनमां निष्णात बनेला अने साथे साथे प्राकृत भाषाना अभ्यासमां पण सुप्रविष्ट थएला पं. अमृतलालनी सुवाच्य अने सुपाठ्य प्रतिलिपिओ जोई, प्रस्तुत कृतिओनुं संपादनकार्य पण एमना ज द्वारा कराववानो में विचार को अने प्रेसकॉपी प्रेसमां छापवा आपी. परंतु ग्रन्थमालाना बीजा अनेकानेक प्रन्थोनू संशोधन - संपादन - मुद्रण कार्य आदि एक साथे चालतुं रहेतुं होवाथी तेम ज विश्वव्यापी द्वितीय महायुद्ध अने भारतव्यापी खराज्य प्राप्तिविषयक आन्तरिक अहिंसक-विग्रह आदिना व्याघातोने लीधे, ग्रन्थमालाना प्रस्तुत ग्रन्थांकनुं मुद्रणकार्य बहु ज अनियमित अने अव्यवस्थितरूपे चालतुं रह्यं. युद्धजन्य परिस्थितिने लईने प्रेसनी कार्यशिथिलता तेम ज कागळोनी दुर्लभताने लीधे ६-८ महिनामा एकाध फार्म छपाईने तैयार थतो. आ रीते सन् १९४० मां प्रारंभेला आ नानकडा प्रन्यांकनु मुद्रणकार्य १९५० मां लगभग पूर्ण थयुं अने आजे हवे १९५३ ना जून मासमां आ ग्रन्थ आ रीते पूर्ण थई-मुद्रित थईने, विज्ञ वाचकोना करकमलमां उपस्थित थाय छे. सिंघी जैन ग्रन्थमालामा प्रकाशित करवा माटे ग्रन्थोनुं चयन अने निर्धारण एक खास आदर्शने लक्ष्यमां राखीने करवामां आवे छे. जे प्रकारना ग्रन्थोना प्रकाशनथी जैन संप्रदाय अने जैन संस्कारनी विद्वत्समाजमां विशेष प्रतिष्ठा थाय अने जैन विद्वानोए भारतीय संस्कृतिना सात्त्विक खरूपने सुसंस्कृत, सर्वोपयोगी अने सुसमृद्ध बनाववा माटे केवी जातनी साहित्यिक सुन्दर रचनाओ करी छे अने ए रीते भारतीय वाङ्मयनी केवी आदर्शभूत उपासना करी छे तेनु उत्तम चित्र, संस्कारप्रिय शिक्षित समाजने दृष्टिगोचर थाय एवा विशिष्ट हेतुने लक्ष्यमां राखीने ग्रन्थोनुं गुम्फन करवामां आवे छे. प्रस्तुत जिनदत्ताख्यान नामक कृति बे दृष्टिए विशेषत्ववाली छे. एक तो जैनकथानकनी दृष्टिए अने बीजुं प्राकृत भाषा साहित्यनी दृष्टिए. कथानकगत वस्तुनो संक्षिप्त सार, पं. अमृतलाले पोतानी प्रस्तावनामां आप्यो छे, ते परथी कथा घटना, खरूप वाचकोना लक्ष्यमां सरलताथी आवी शकशे. प्राकृत भाषाना अभ्यासिओनी दृष्टिए आ बंने कृतिओ बहु ज सरल अने सुबोध रीते रचाएली छे तेथी ए भाषानो सामान्य परिचय धरावनार व्यक्ति पण, ए कथाओ सारी पेठे समजी शके तेम छे. तुलनात्मक भाषा विज्ञानना अभ्यासिओने पण एमांथी अनेक नवा शब्दो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक अने शब्दप्रयोगो मळी शके तेम छे. समयाभावने लीधे ए विषे विशेष विवेचन करवातुं मारा माटे शक्य नथी बन्यु. ____ आ बंने कृतिओनी प्रतिओ मात्र ताडपत्र उपर ज लखेली जोवामां आवी छे जेनो परिचय संपादक पंडिते आपेलो छे. प्राचीन प्रतिओना आकार-प्रकारादिनी कल्पना अने स्मृति बनी रहे ते दृष्टिथी एना अन्तिम पत्रोनां हाफटोन ब्लॉक बनावी तेनां चित्रो पण आ साथे आपवामां आव्यां छे. भारतीय विद्या भवन, बंबई. । ज्येष्ठ शुक्रा १ सं. २००९. १२, ६, १९५३ ॥ - मुनि जिनविजय Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत प्रकाशनमा प्राकृत भाषामां रचायेली जिनदत्ताख्यान नामक कथानकनी बे कृतिओनो समावेश थाय छे. आ बन्ने कथाओनी पहेलां पण जिनदत्तविषयक अन्य कृतिओ रचायेली हती. आ हकीकत प्रथम कथानी गाथा ५, ३६४ अने ३६५ तेम ज बीजी कथानी बीजी गाथा उपरथी जाणी शकाय तेम छे. तेम ज आ बन्ने कथाओ पछी पण पूर्णिमापक्षीय श्रीगुणसागरजीना शिष्य श्रीमान् गुणसमुद्र सूरिजीए संयमसिंह गणिना आग्रहथी सं. १४७४ मां जिनदत्तकथा संस्कृता रची छे. उपरांत डेक्कन कॉलेजना संग्रहमांनी भद्राचार्यकृत 'जिनदत्तकथासमुच्चय' नामनी १०३ पानामा लखायेली प्रति 'जैन ग्रंथावली 'ना पत्र २५२ मां नोंधाई छे. तेना नाम उपरथी तेमां विविध जिनदत्तकथाओ होय तेम लागे छे. ते प्रति में जोई नथी तेथी विशेष माहिती आपी शकतो नथी. प्राचीन जैन कथाग्रंथोना रचनार विद्वानोए आंतरजीवननो विकास साधनार आदर्शजीवी स्त्री के पुरुषनी प्रधानता जणाववा माटे,ते ते कथाग्रंथने, ते तेधर्मपुरुष के स्त्रीना नामथी प्रसिद्धि आपी छे. दा. त. समराइञ्चकहा, अरिट्ठनेमिचरिउ, शांतिनाथचरित्र, नम्मयाकहा, सुरसुंदरिचरित्र, पउमसिरिचरिउ वि०. तेम ज उपर जणाव्या प्रमाणेनी धर्मकथाओनो संग्रह जे ग्रंथोमां गूंथ्यो होय तेवा ग्रंथोनो नाममात्रयी ज ख्याल आवे ते सारु ग्रंथकारोए तेने अनुरूप संग्रहसूचक नामथी अंकित फर्या छे. दा. त. चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, कहावली, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, कहारयणकोसो विगेरे. नाणपंचमीकहा, होलीरजःपर्वकथा, मौनैकादशीकथा, मेरुत्रयोदशीकथा विगेरे कथाओमां तेना प्रणेताओए तेना नामाभिधानद्वारा साधक अने साधनो निरूपण करेलु छे. प्रस्तुत कथामां मुख्य पुरुष जिनदत्त होई तेना कर्ताए तेने 'जिणदत्तक्खाणं' (जिनदत्वाख्यानम् ) 'जिणयत्तकहा' (जिनदत्तकथा) विगेरे नामोथी प्रसिद्धि आपी छे. कथावस्तु भारतीय कथासाहित्यनुं आलेखन धर्म अने नीतिना शिक्षण उपरांत पोतपोताना संप्रदायनी पुष्टि माटे थयुं छे. आ कथाओ पैकी केटलीक कथाओ वास्तविक बनेली घटनारूप होय छे, ज्यारे तेमांनो मोटो भाग आजनी नवलकथाओ जेवो लागे छे. आ बन्ने य जातनी १ एतां श्रीजिनदत्तभूपतिकथां श्रीपूर्णिमापक्षसन्मुख्यश्रीगुणसागराख्यसुगुरोः शिष्येण सङ्केपतः । वेदोर्वीधरविश्व( १४७४ )वर्षविहितां पुण्यप्रभावाद्भुतां शृण्वन्तु श्रमणामृतं(तां) शिवकृते भव्या भवन्तश्चिरम् ॥ संयमसिंहगणेराग्रहतः श्रीगुणसमुद्रसूरिवरैः । मुग्धानुग्रहबुद्ध्या कृता कथेयं चिरं जीयात् ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यान कथाओना आलेखनमा तेना लेखकोनी प्रतिभा वास्तवदर्शी के संप्रदायबद्ध अमुक प्रकारना रूढ विचारवशवर्ती अथवा जे जातना विचारोने अनुसरती होय ते प्रकारनुं ए कथाग्रंथमा वस्तुरचनानुं सौष्ठव के शैथिल्य दृष्टिगोचर थाय छे. आ दृष्टिए विचार करीए तो प्रस्तुत कथा ए बनेली हकीकत नहि पण ते जमानाना जैनसमाजने अनुलक्षीने रचायेली एक नवलिका जेवी कल्पितकथा लागे छे. आ कथा कल्पित होवानुं अनुमान निम्नलिखित हकीकतथी थई शके छ - कथामां मुख्यतः स्त्रीप्राप्तिने लगता चार प्रसंगो आ प्रमाणे छे-जिनदत्त नामनो वणिक्पुत्र (१) देवमंदिरमा पूतळीने जोईने मुग्ध थतां विमलमतिने, (२) पेटमा रहेला सर्पने मारवाथी श्रीमतिने, (३) रूपलावण्य अने साहसथी आकर्षी अंगारवतीने, अने (४) मदोन्मत्त हस्तीने वश करवाथी रतिसुंदरीने परणी, अत्यंत वैभव भोगवी, अंते त्यागी बनी आयुःक्षये मरण पामी देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. (१) कन्यालाभना आ चार प्रसंगो पैकी एक के तेथी वधु प्रसंग पण अन्यत्र बीजी जैन कथाओमां अल्पाधिक वर्णनयुक्त मळी आवे छे, (२) धूतनो प्रसंग पण तेवी ज रीते समजी शकाय, (३) पूर्वभवमां दरिद्रावस्थामां मुनिदानादिनो प्रसंग शालिभद्रकथानी साथे तद्दन साम्य धरावे छे. (४) उपरांत आ आखी कथा श्रीभद्रेश्वरसूरिकृत कहावलीमांथी लेवामां आवी होय तेम पण लागे छे. टुंकमा -आ आखी कथा कहावलीमांथी लई पात्रोना नामोमां फेरफार करी तेने रसमय बनाववा तेमां एकाद प्रसंग वधारी रचायेली होई आ कथा काल्पनिक छे, एम कही शकाय. रचनानो हेतु सुपात्रने दान आपवाथी ऐहिक अने आमुष्मिक लाभ थाय छे ए बताववा माटे आ कथा रचवामां आवेली छे. 'जुओ प्रथम कथानी गाथा १४ मी अने बीजी कथानी बीजी गाथा. कथानी उपयोगिता __ भारतीय प्राचीन संस्कृतिना अभ्यास माटे साहित्य, स्थापत्य, लिपिकळा, चित्रकळा विगेरेना जे प्रौढ नमूनाओ अने अवशेषो मळे छे तेमां जैन संस्कृतिनो हिस्सो धारवा करतां य घणो मोटो छे. अने ए निर्माणना मूळमां निष्किचन अनगारी श्रमणोनो श्रम, रसवृत्ति अने उपदेश ए प्रधानवस्तु छे. त्याग -तप-संयमप्रधान जैन श्रमणोना प्रेरणादायी उपदेशने झीली ते ते युगनो जैन गृहस्थवर्ग, जे वस्तुओ पोते करवा जेवी होय ते पोते ज करतो अने जे वस्तुओ जैन श्रमणो द्वारा साध्य होय तेमां ते ते कार्यने लगती दरेक आवश्यकताओंने पूरी पाडतो, जेना परिणामे १ कहावलीमां श्रीशांतिनाथभगवाननी कथामां वीरभद्रनी कथा आवे छे. पूर्वभवमां वीरभद्रनुं नाम जिनदत्त जणावेलु छे. प्रस्तुत कथा अने आ वीरभद्रनी कथाना प्रसंगोमां घणु साम्य छे. आ कथामां जे कई बधारे जणाय छे ते तेनी पश्चाद्भाविता पुरवार करवा उपयुक्त थई शके. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन संस्कृतिए साहित्य, स्थापत्य आदि कळानां विविध क्षेत्रोमां अनेक सिद्धि प्राप्त करी छे अने पोतानी ए अपूर्व सिद्धिओनो लाभ जगतने पण छूटे हाथे आप्यो छे. उपर जणाव्यु तेम श्रमणोपासको श्रमणोनी आवश्यकताओ पूरी पाडता तेना मूळमां जैन श्रमणोना त्याग तप संयम अने विद्वत्तादि गुणोनो प्रभाव तो हतो ज, पण ते उपरांत केटलाक वर्गने ओछे वत्ते अशे आवी कथाओ पण दानादि कार्योमा प्रेरणाप्रद बनेली होवी जोईए, ए पण एक हकीकत छे. एटले प्राचीन भारतीय संस्कृतिना एक प्रधान अंगभूत जैनसंस्कृतिना निर्माण अने विकासमा प्रेरक बनेली आवी सुपात्रदान आदिनो महिमा दर्शावती अनेक कथाओ काल्पनिक होवा छतां निरर्थक छे, एम न ज कही शकाय. आथी उलटुं घणी वार तो आवा साहित्यनी महत्ता समजवा माटे ते ते युगनी परिस्थिति अने जनसमाजनी अभिरुचिनो आपणे विचार करवो ए पण आवश्यक वस्तु छे. आपणा भारतीय कथासाहित्यना निर्माणमा मात्र एक बीजा संप्रदायनी ज नहि पण देश-विदेशना कथासाहित्यनी पण असरो आवी छे. जो ते ते युगने लगती आवी विविध परिस्थितिओनो आपणे विचार करीशुं तो आवी कथाओनुं निर्माण शाने आभारी छे अने केटल्लू महत्तनुं छे ए आपणा ध्यानमां आवी शकशे. लोकमानस हमेशां मोटे भागे विनिमय वृत्तिवाळू ज होय छे. अने तेमां य व्यापारकुशळ वणिकोनुं स्थान मोखरे ज होय. वणिक् जेम व्यापारमा व्यय करतां लाभनी मात्रा विशेष इच्छे तेम अहिं पण विविध प्रकारना दानादि प्रसंगे जे कोई बदलावृत्ति धरावता होय ते पण, आवी कथाओमाथी प्रोत्साहन मेळवी धार्मिक अने सामाजिक जरूरीयातो प्रत्ले बेदरकार न रहे, ए कारणथी पण कदाच रचायेली आवी कथाओ जे वर्ग पारलौकिक लाभमां संदिग्ध छे तेने पण निःशंकित करवा मददरूप थाय ए स्वाभाविक छे.. कथाना खामी जिनदत्तना शौर्य, साहस, सहिष्णुता, परगजुपणुं, औदार्य, आयुर्वेदसंगीतादिशालोमां नैपुण्य, तेम ज जैन जैनेतर ग्रंथोर्नु ऊडुं ज्ञान अने त्याग विगेरे गुणो आलेखी ग्रन्थकारे षणिक पुत्र केवो होवो जोईए तेनी हिमायत करी छे. हकीकत पण साची छे. जो संसारवास अनिवार्य मान्यो तो पछी तेमां मायकांगली मनोदशा रहे तेवु शरीरखास्थ्य ते पण एक शापरूप छे. जो आमांथी वणिकपुत्रोने प्रेरणा आपवी न ज होत अने केवळ धर्मकथारूपे ज आ कथा लखवी होत तो, ग्रन्थकार कथानायकने क्षत्रिय के एवी बीजी कोई लडायक जातनो ज बतावत. प्राचीन जैनाचार्योए ते ते युगने अनुरूप विशाळ अने विविध प्रकारना कथासाहित्यनुं सर्जन करी प्रजामानसना विकासमाटे जेवो गौरवपूर्ण प्रयत्न कर्यो छे तेवो प्रयत्न आजना युगने लक्षीने जैन प्रजाए खास करी जैनाचार्योए अने जैन मुनिवर्गे अवश्य करवो जोइए. जो जैन मुनिवर्ग आजे आवी नक्कर प्रवृत्तिओमां पोताना कीमती समयनो सदुपयोग करे तो आजना मुनिवर्गनी केटलीक क्लिष्ट प्रवृत्तिओनो अंत आववा साथे जैनधर्म अने जैनप्रजा उन्नतिना मार्गे अनाबाधपणे गति करे. अने फलतः विश्वनी समग्र प्रजाने जैनसंस्कृतिनी वास्तविकतानुं दर्शन थाय. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कथागत उपयोगी शब्दो विगेरे आडतिगा ? आडत्तिया ( = आडतीया. सिम्वलिगा }} जिनदत्ताख्यान समलिगा • सुंल्ली, करंडिओ. सामलिगा वक्खरो = वाखरो. मइरं = बेडामूल्य. पत्र १७ - २४- ५१-५६ पत्र २३-५४-५५ पत्र २४ -५६ पत्र २६ टिप्पणी त्रीजी . एकाद प्रसंगे छंदोभंग न थाय ते माटे प्राचीन छान्दसिक नियमने अनुसारे ' वराई = वराकी' ने बदले 'वरई' शब्द मूक्यो छे. जुओ पत्र ८ गाथा ६८ मी. = विदर्भराजे ( वीतभयनगरना स्वामीए ) दशपुर ( आधुनिक मंदसोर) वसाव्यं हर्तु. जुओ पत्र २ गाथा १८ मी. बन्नेय कथाओमां प्राकृत तथा अपभ्रंश सुभाषितोनो संग्रह आकर्षक छे. ग्रंथकार अने समय प्रथम कथाना प्रणेता आचार्य श्रीसुमतिसूरि छे. तेमनो विशिष्ट परिचय के रचनासमयने जाणवानुं साधन कथाना अंतनी प्रशस्ति सिवाय बीजं कशुं ज जाणवामां आव्युं नथी. दशवैकालिकटीकाना कर्ता श्रीसुमतिसूरि अने आ सुमतिसूरि अभिन्न नथी. प्रस्तुत आख्यानना प्रणेता आचार्य श्रीसुमतिसूरि पाडिच्छय गच्छीय आचार्य श्रीसर्वदेवसूरिना शिष्य छे. पाडिच्छय गच्छ विषेनी विशेष माहिती ते अंगेना साधनना अभावे आपवी शक्य नथी. पाडिच्छय गच्छनी उत्पत्तिनुं कोई स्वतंत्र महत्त्वनुं कारण नथी लागतुं परंतु आ गच्छना आचार्योए ज्ञानादिनी वृद्धिनिमित्ते बीजा गच्छना आचार्योनुं गुरुत्व प्रतीच्छेल = स्वीकारेल होई तेमने पाडिच्छयगच्छीय कहेवामां आवता होवा जोईए एम मने लागे छे. आ सिवाय आ विषेनी बीजी कशी हकीकत मारी सामे हाजर नथी. बीजी कथाना ग्रंथकारनं नाम प्रशस्ति आदि नहिं होवाथी जाणी शकायुं नथी. छत प्रथम कथा करतां बीजी कथानी रचना पहेलां थई होय तेम लागे छे. आ कथानी एक प्रति मुद्रण थया पछी पूज्यपाद साक्षरवर्य श्री पुण्यविजयजी द्वारा वडोदराना श्रीआत्मानंद ज्ञानमंदिरमांथी मळी आवी. जे प्रति उपरथी मुद्रण थयुं छे ते प्रति अशुद्ध; उपरांत केटलेक स्थळे ताडपत्रो खरी जवाथी त्रुटित पाठवाळी; तेम ज अंतमां बे त्रण पत्रोना अभावे अपूर्ण होवाथी वडोदरावाळी प्रतिनो उपयोग करो आवश्यक बन्यो. ग्रंथना अंते वडोदरावाली प्रतिना पाठोनी नोंध आपी छे. १ नीया लोवमभूया वि आणिया दीह-बिंदु-दुब्भावा । अत्थं गर्मेति तं चिय जो तेसिं पुव्वमेवासी ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रतिपरिचय प्रथम कथानी प्रति जैसलमेरना मोटा भंडारनी छे. शुद्धि ठीक ठीक छे. लंबाई पहोळाई ३२४२३ इंचप्रमाण छे. स्थिति सारी छे. आ प्रतिमां बे कृतिओ लखायेली छे. ते आ प्रमाणे (१) पत्र १ थी २५५ सुधीमां मलधारी हेमचंद्रविरचित भवभावनावृत्त्यन्तर्गत-अरिष्टनेमिचरित, (२) पत्र २५६ थी २९४ सुधीमां जिनदत्ताख्यान. संवत् १२४६ मां आ प्रति लखाएली छे. तेनी पुष्पिका कथाना अंतमा साथे ज पत्र ४० मां मूकी छे. बीजी कथानी प्रति पाटणना श्रीहेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरमा रहेला श्रीसंघना भंडारनी ताडपत्रीय प्रति छे. घणे स्थळे अशुद्धिओ जोवा मळे छे. अंतनुं ३१ मुं पत्र तथा २७, २८, २९ मळी चार पत्रो नथी. अन्त्य पत्र न होवाथी लेखनकाळ वि. मळी शक्युं नथी. छतां अनुमाने विक्रमना बारमा शतकमां लखायेली निश्चित लागे छे. प्रतिनां पत्र ३० छे. लंबाई पहोळाई १३१४१४ इंच प्रमाण छे. प्रत्येक पत्रनी प्रत्येक पृष्ठिमां वधुमां वधु छ अने ओछामा ओछी चार पंक्तिओ छे. केटलेक स्थळे तो प्रति अति अशुद्ध कहेवाय. बीजी कथानु प्रत्यंतर, मुद्रणकार्य थया पछी मळेलं अने ते अति उपयोगी लागवाथी पाछळ परिशिष्टमां तेना पाठभेदो आप्या छे, अने प्रतिनी संज्ञा 'व' दर्शावी छे. अन्तमा पुष्पिका आ प्रमाणे छे-"जिनदत्ताख्यानं समाप्तम् ॥ संवत् ११८६ अघेह श्रीचित्रकूटे ॥ लिखितेयं माणिभद्रेण यतिना यतिहेतवे साधवे वरनागाय । खस्य च श्रेयकारणम् ॥ मंगलमस्तु वाचकजनानाम् ॥" प्रतिनी लंबाई पहोळाई १०४१३ इंच प्रमाण छे. पत्र संख्या ६९ छे. प्रत्येक पत्रमा पांच पंक्तिओ छे, केटलांक पत्रोमां चार पण छे. उपर प्रमाणे प्रथम कथानी एक प्रति अने बीजी कथानी बे प्रतिओ उपरथी आ प्रकाशन थयु छे. संशोधन प्रस्तुत बन्ने य कथाओनी नकल मात्र ज मारे करवानी छे एम समजी में कॉपी तैयार करी पूज्यपाद, पुरातत्त्वाचार्य मुनिश्री जिनविजयजीने सोंपेली. तेओश्रीए 'एनुं संपादन मारे करवान छ। ए ख्यालथी कॉपी प्रेसमां आपी. हुं दूर प्रदेशमा रहेतो होवाथी गुफो विगेरे नियमित रीते न जोई शक्यो. तेथी सरवाळे शुद्धिपत्रक वध्यु. वाचकोने शुद्धिपत्रकनो उपयोग करवा भारपूर्वक भलामण करूं छु. संक्षिप्त कथासार आदिमां ग्रन्थकार भगवान महावीरने तथा सरखतीने नमस्कार करीने तेम ज पाठकगणगत सज्जन- दुर्जन- पृथक्करण करीने मुनिदानना प्रभावयी जिनदत्त केवी रीते सद्गति पाम्यो ते जणावे छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यान जिनदत्तनो पूर्वभव विक्रमवर्म शासित अवंती देशमां पुरा काळमां प्रधोतराजविजेता विदर्भ ( वीतभय )ना राजाए [उदायने] वसावेला* देशपुर नगरमां शिवधन नामनो वणिक् पोतानी यशोमती नामक पत्नीनी साथे रहे छे. काळक्रमे तेमने पुत्र थतां तेनुं नाम शिवदेव पाडे छे. शिवदेव आठ वर्षनो थतां शिवधन मरण पामे छे. तेना मरण पछी अल्प समयमा ज समृद्धिनो पण नाश थतां यशोमती पोतानी भूतकाळनी जाहोजलालीनुं स्मरण करी, ज्यां परिचित माणसो न होय त्यां दासकर्म करवानो विचार करी, पुत्रने साधे लई, उज्जयिनीमां एक कुलीन वणिकूने त्यां काम करवा माटे रहे छे. शिवदेव रोज वाछरडांने जंगलमां चराववा लई जाय छे. एक दिवस वाछरडां चराववा गयेला शिवदेवे धर्मध्यानमां स्थित एक तपखीने जोती बहुमान ऊपजवाथी तेमनी वंदनादिपूर्वक पर्युपासना करी. घेर आवी पोतानी माताने पण आ वात करी. ' ते तपस्वी धन्य छे, तेमने अन्न - पानादि आपनार पण धन्य छे, पुण्यहीन आपणे तो तप के दान बेमांथी एक पण करी शकतां नथी, तो वत्स । ते तपस्वीनुं रोज वंदन करीने पण तुं आत्माने कृतार्थ करजे' आवी मातानी शीख मेळवी शिवदेव ते तपखीनी वंदनादि उपासना करे छे, अने विचारे छे के-आ मुनि म्हारे घेर आहार ले तो ठीक. अन्यदा माघ पूर्णिमाना तहेवारने दिवसे, एक बीजाने त्यां, खाद्य पदार्थोंनी भेट आपवानी काळी प्रथा होवाथी विधवा होवाना कारणे यशोमतीने त्यां पण खोराकनी वानीओ आवे छे. शिवदेव जमवा बेसे छे तेवामां जे तपखीनी ते नित्य वंदना पर्युपासना करतो हतो ते तपखी त्यां आवतां भावुक शिवदेव अति प्रसन्न थई अत्यंत भक्तिभावपूर्वक मुनिने आहार आपे छे. आ समये खाद्य वस्तुओ आपवा आवेली चार बालाओ शिवदेवनो भक्तिभाव जोई 'वयस्य ! आवा सुपात्रने दान आपीने तुं धन्य थयो छे' इत्यादि वचनोथी शिवदेवनी प्रशंसा करीने स्वस्थाने जाय छे. शिवदेव पण प्रसन्न चित्ते भोजन करे छे. क्ष्यार पछी शिवदेव पोतानी जींदगी सुखे गाळी आयुष्य पूर्ण थतां मरण पामे छे. जिनदत्तनो जन्म अने बाल्य - युवावस्था मध्य देशमां वसंतपुर नगरमां जैनधर्ममां स्थित जीवदेव नामे श्रेष्ठी रहे छे. तेमने जीवयशा नामे पत्नी छे. शिवदेवनो जीव जीवयशानी कुक्षीए अवतरे छे. जीवदेव शेठ पोतानी समृद्धिने अनुरूप वधामणुं संघपूजा तथा मंदिरोमां उत्सव विगेरे करावी तेनुं नाम जिनदत्त पांडे छे. १ बीजी कथामां विक्रमवर्मनी राणी पद्मश्री नामनी जणावी छे. ** आ बे फुल्लीना मध्यमां रहेली हकीकत बीजी कथामां नथी. २ आ स्थळे बीजी कथामां पद्मपुर पत्तन जणावी आगळ ( मुद्रितप्रत्र - ७१ मां ) दशपुर नगर जणावे छे. आ उपरथी को तो पद्मपुर अने दशपुर अभिन्न छे अथवा बीजी कथाना कर्ता प्रथम पद्मपुर लखी अंत सुधी तेनो संबंध जाळवी शक्या नथी. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आठ वर्षनी वये तेने लेखाचार्य पासे शिक्षणमाटे मूकवामां आवे छे. अनुक्रमे ते भाषा अने कळामां प्रावीण्य मेळव्या बाद पितानी प्रेरणाथी निम्रन्थ मुनिद्वारा जैन धर्मना सिद्धांतोनो पण अभ्यास करे छे. विमलमतिपरिणयन ___लग्न करवानी पोतानी अनिच्छाने लीधे अनेक लक्ष्मीपतिओनी कन्याओ मळती होवा छतां जिनदत्त सर्वथा निषेध करतो होवाथी, तेना पिता ते सांसारिक जीवनमां गूंथाय ए माटे जेमना सहवासथी विलासादि तरफ वृत्तिओ ढळे तेवा मित्रोनो जिनदत्तने संपर्क सधावे छे.. जिनदत्त ते मित्रोनी साथे प्रतिदिन विलासजनक स्थळोए फरतां फरतां एक दिवस एक मंदिरना द्वारनी बाजुमां बनावेला स्त्रीना रूपने जोईने, बाजु उभेला मित्रोनो ख्याल पण भूलीने, अत्यंत मुग्ध थई तल्लीन बनी, दृष्टरूपना जेवी सहचरी मेळववानी चिंतामां गरकाव थई गयो. घेर आवीने चिंतामग्न बनी एक बाजु बेठेला जिनदत्तने जोई जिनदास शेठे पूछतां संतोषकारक प्रत्युत्तर न मळतां तेना मित्रो द्वारा सर्व हकीकत जाणी, जिनदत्ते जोयेला ते स्त्रीखरूपना निर्माता कलाकार द्वारा आलेखित स्त्रीस्वरूप, अनुरूप कुमारनी अप्राप्तिथी अद्यावधि कुंवारी रहेली चंपा नगरीवास्तव्य विमल शेठनी पुत्री विमलमतिनुं छे एम जाणी, जिनदत्तनी प्रतिकृति करावी माणसो मारफते चंपा नगरीमा विमलशेठने त्यां मोकली विमलमतिर्नु मागु कयु. विमल शेठे जिनदत्तनुं चित्र जोई प्रसन्न थई आडकतरी रीते विमलमतिनो अभिप्राय जाणी संबंध कबूल कर्यो. जिनदत्त शुभ दिवसे खजनो साथे प्रयाण करी चंपा नगरीमां आवे छे. त्यां महोत्सवपूर्वक लग्न थया पछी विमलमतिनी साथे वसंतपुर आवे छे. जिनदत्तनी द्यूतासक्ति अने परदेशगमन ___ एकदा उपचार करवा छतां पोतानी शिरोवेदना न मटवाथी समय वीताववा माटे, जिनदत्ते द्यूत रमवू शरू कयु. दैववशात् ते जेम हारतो गयो तेम वधारे रमवा मांड्यो. ज्यारे बहु द्रव्य आप्या पछी पिता अने पत्नीना खजानचीओए द्रव्य आपवा निषेध कर्यो त्यारे मानभंगथी जिनदत्तने बहु ज दुःख थयु. घेर आवीने उदास रहे छे. जिनदास अने विमलमतिने खबर पडतां तेओ पोतपोताना खजानचीओने ठपको आपे छे. एक दिवस जिनदास शेठे जिनदत्तने कडं-पुत्र ! लक्ष्मीनी कंइ खोट नथी, बीजा सारे मार्गे यथेष्ट द्रव्य व्यय कर, धूतव्यसन पुरुषार्थबाह्य कहेवाय छे. जिनदत्त 'पिताजी ! हवे ते मार्गे नहिं जाउं' एम कही गुमावेला द्रव्यथी वधु उपार्जन करवाना विचारोथी चिंताग्रस्त बने छे. विमलमति पोताना पतिनी सचिंत अवस्था जोईने 'मारा पिताने त्यां थोडो वखत रहेवाथी तेमनी मानसिक परिस्थिति सुधरशे' एम विचारी जिनदास शेठनी रजा लई जिनदत्तने विनंति करीने साथे लई चंपा नगरी जाय छे. त्यां जिनदत्तने प्रसन्न राखवा विमलमति प्रतिदिन प्रयत्न करे छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यान जिनदत्त परदेश जवानी अनुकूलता साधवामाटे ज विमलमतिनी साथे आवेलो होई प्रसंग मेळघवानी प्रतीक्षा करे छे. एक दिवस जिनदत्त अने विमलमति उद्यानमा फरवा गया. त्यां प्रसंग जोई जिनदत्ते विमलमतिनी नजर चूकवी नजीकमां जई वर्णपरावर्तिनी गुटिकाथी पोतार्नु रूप बदली दक्षिण दिशा तरफ प्रयाण कयु. थोडा समयमां ज पोताना पतिने न जोवाथी विह्वळ बनीने मूछित थएली विमलमतिने जोई, सखीओ तेने स्वस्थ करे छे, तेम ज तेनां माता-पिताने खबर आपे छे. बधां जिनदत्तनी शोध करे छे पण क्याई पत्तो लागतो नथी. माता-पिताना सान्त्वनथी विमलमति कंईक दृढ थई भोजन सिवायनो पोतानो सर्व समय साध्वीओनी वसतिमां धर्मानुष्ठानमां गाळे छे. जिनदत्तनुं पर्यटन तथा श्रीमतीपरिणयन __ जिनदत्त चालता चालतां दधिपुर नगरनी बहार एक दरिद्र सार्थवाहना सुकायेला बगीचामा बेसे छे. विशिष्ट आकृतिवाळा जिनदत्तने जोईने दरिद्र सार्थवाहे विनंति करतां वनस्पत्यायुवेदना ज्ञानथी जिनदत्ते ते बाग फळ-फूलयुक्त-नवपल्लवित कर्यो. दरिद्र सार्थवाह पोताने पुत्र न होवाथी जिनदत्तने पुत्रवत् मानी खगृहे लई जाय छे. थोडा दिवस पछी 'तात ! समुद्र पासे होवा छतां आवी दरिद्र अवस्था शामाटे भोगववी' विगेरे जिनदत्तना वचनोथी प्रेराई दरिद्र सार्थवाह व्यापार माटे जिनदत्तनी साथे वहाण भरी सिंहलद्वीप गयो. त्यांना पृथ्वीशेखर राजाने मळी ते बन्ने एक कुलपुत्रने त्यां रह्या. ते कुलपुत्रनी माता जिनदत्तने पुत्रनी पेठे ज राखे छे. एक दिवस वृद्धाने रडती जोई जिनदत्ते रोदननुं कारण पूछतां वृद्धाए कह्यु-'आ नगरना राजानी श्रीमती नामनी कन्या महाव्याधिथी पीडित छे. तेनी पासे रात्रीए सुनार माणसनुं मरण थतुं होवाथी राजाए नगरमाथी प्रतिदिन एक माणस कुमारी पासे सुवा माटे मोकलवा आज्ञा करी छे. आजे मारा पुत्रनो वारो आववाथी हुँ असहाय रडुं छु' वृद्धानी आनाकानी होवा छतां तेना पुत्रनी रक्षा करवा माटे जिनदत्त संध्यासमये स्नानविलेपनादि करी हाथमां खड्ग लई राजा-प्रजाने विषाद पमाडतो वृद्धापुत्रनी बदलीमा सुवा माटे राजकुमारीना महेले जाय छे. क्याथी भय हशे ? एनुं अन्वेषण करवा माटे भोंयतळीयुं चोकसाईथी तपासी मेडा उपर जई उदरव्याधिथी पीडित राजकन्याने विश्वस्तचित्ते जोई जिनदत्त मधुरवाणीथी पूछ्यु-'सुंदरि ! तने कया प्रकारनी पीडा छे ?' श्रीमतीए पोतानुं उदर बतावी 'मारे आवा तेजस्वी पुरुषने बचाववो जोईए' एम विचारी कह्यु-'तमे राजानो आदेश पाळ्यो, जरा अंधकार थाय एटले आ महेलनी नजीकमां क्यांक सूई रहेजो, कारण उंध्या पछी ज्यारे हुं जागं छं त्यारे नजीकमां सुनार माणसने मरण पामेलो जोउं छं.' जिनदत्त तेना सौम्य खभावथी आकर्षाई 'सुंदर ! तने एकाकी छोडीने मारे जीव बचाववो नथी' एम कही तेनी नजीकना पलंगमां बेसे छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पोतानी चिंताथी राजकुमारी उंघती नथी एम जाणी जिनदत्त एक वार्ता कही पूर्व कर्मथी मळतां सुख-दुःखमां हर्ष-विषाद न करवा श्रीमतीने कहे छे. 'आवा प्रतिभाशाळी पुरुषथी मारुं दुःख दूर थशे' एवी श्रद्धाथी श्रीमतीने निद्रा आवे छे. श्रीमतीने निद्राधीन जाणी जिनदत्त धीमेथी उठीने एक मोटु लाकडं लावी पोताने सुवाना पलंगमा मूकी, तेना उपर कपडं ढांकी, दीवामां पूरतुं तेल पूरी, खड्ग लईने थांमला पाछळ संताईने उभो रहे छे. थोडी वार पछी राजकन्याना मोढामां बे नानी जीभो जुवे छे. 'आ शुं हशे ?' एम विचार करतां राजकन्याना मुखमाथी काळो सर्प नीकळे छे. 'आनाथी भय छे' एम जिनदत्त चिंतवे छे. एटलामां ते सर्प श्रीमतीनी पथारीमांथी जिनदत्तना पलंगमां जईने मस्तकना स्थळे रहेला ते काष्ठने डंख मारे छे. कुमार पण सावधान थई सर्पना त्यां ज टुकडा करी बाजुमा पडेला करंडीयामां नांखे छे. पेट नानुं थवाथी संपूर्ण निद्रा लई प्रभाते राजद्वारनां वाजिंत्रोना नादथी जागेली श्रीमतीए जिनदत्तने तेना पलंगमां बेठेलो जोई, आश्चर्यमुग्ध बनी, सविनय पूछतां जिनदत्ते सपनी हकीकत कही. प्रतिदिन प्रभाते मृतक लेवा आवनार माणसो द्वारा जिनदत्तनुं कुशळ सांभळी राजा त्यां आवी, श्रीमतीना मुखे रात्रीनी घटना जाणी, जिनदत्तने धन्यवाद आपी, औषधादिना उपचारथी श्रीमतीने स्वस्थ करी, हावभावथी श्रीमतीनो अभिप्राय जाणी धामधूमथी जिनदत्त अने श्रीमतीनुं लग्न करे छे. जिनदत्त प्रसंगे प्रसंगे श्रीमतीने चित्रपटमां जैनमंदिर-साधु-साध्वी विगेरे आलेखी जैन धर्मनां तत्त्वो समजावी जैनदर्शनानुयायिनी बनावे छे. अन्यदा पोताना व्यापारने लगतुं कार्य पूर्ण थतां राजानी रजा लई, श्रीमतीने साथे लई, जिनदत्त तथा दरिद्र सार्थवाहे खदेश जवा वहाण भरी प्रयाण कयु.. उपार्जित द्रव्यमां अने विशेषे श्रीमतीमां आसक्त थवाथी दरिद्र सार्थवाहे नोकरोने संकेत करी 'जिनदत्त जीवतो हशे त्यां सुधी श्रीमती मने नहिं इच्छे' एम विचारी रात्रीना समयमां अवाज थाय एवी रीते दरियामां कई वस्तु फेंकी. ज्यारे कहेवा छतां कोई पण माणस पडेली वस्तु लेवा माटे पाणीमां नथी उतरतो त्यारे जिनदत्त दोरडं बांधीने सागरमां उतरे छे. सार्थवाह ते दोरडुं कपावी नांखी वहाण हंकारी जाय छे. सार्थवाह विलाप करती श्रीमतीने पोतानी पत्नी थवा माटे अनेक प्रकारे समजावीने कहे छे-'जिनदत्त मारो पुत्र नथी, वाणीथी ज पुत्र तरीके स्वीकार्यो हतो.' सार्थवाहने घणो उपदेश आपवा छतां निष्फळता मळतां, श्रीमतीए 'पोताने आजीवन वैधव्य नथी' एवा नैमित्तिकना वचननं स्मरण थतां फरी जिनदत्तने मळवानी संभावनाथी सामनीतिथी शीयळरक्षा करवा माटे, छ मासनी मुदत मागतां सार्थवाह सहर्ष कबूल करे छे. छ मास पूर्ण थतां किनारो पण आवे छे. अवधिपूर्ण थयो जाणी श्रीमती पोते रजस्खला छे' एम जणावे छे. कांठो आवतां सार्थवाह वहाणमांथी उतरी ते नगरना राजाने मळवा जाय छे. १ प्रथम कथामां आ स्थळे विजयकुमारनी कथा छे (जुओ पत्र १९ थी २२). अहिं संक्षेपमा कहेवार्नु होवाथी ते कथा लखी नथी. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यान समय जाणी श्रीमती पण नीहार करवाने बहाने पोतानी दासीओ साथ जाय छे. आगळ उतावले चालतां, चंपापुरी तरफ जता सार्थने जोई ते सार्थना प्रधान पुरुषनी अनुज्ञा लई तेनी साथे चालतां, अनुक्रमे चंपा नगरीनुं सामीप्य जणातां, अनेक विचारोथी मुझायेली श्रीमतीए बे साध्वीओने जोतां 'आर्यपुत्रे चित्रपटमां दर्शावेली आ गुरुणीओ दयाळु होय छे' एम विचारी तेमनी पाछळ पाछळ चालवा मांड्युं. उपाश्रय आवतां 'निसिही' कथनपूर्वक प्रवेश करती श्रीमतीने जोई त्यां बैठेली विमलमतिए अजाणी समधर्मिणी जाणी पूछयुं - 'क्यांथी आवो छो ?' मनः संतापथ पीडित श्रीमती ज्यारे कशुं बोली शकती नथी, व्यारे विमलमतिए तेनी दासीओ द्वारा सर्व हकीकत जाणी, श्रीमतीने आश्वासन आपी शांत करी विशेष हकीकत पूछी श्रीमतीए पोतानो सविस्तर हेवाल कह्यो. विमलमति वर्णभेद विना पोताना पतिनुं साम्य जणातां 'बहुरत्ना वसुंधरा' ए कवतथी समाधान पामे छे. त्यार पछी बन्ने साथै ज रहे छे. १२ अंगारवती परिणयन जिनदत्ते सागरमा ऊतर्या पछी दोरडुं कपायेलं जाणी अनेक तर्क वितर्क करी मनने दृढ बनावी सागरमां तरवा मांड्यं. थोडा समयमां कोई भांगेला वहाणनुं लाकडुं तेना हाथमां आवे छे. प्रभात थतां दिशाविभाग जाणी जिनदत्त उत्तर तरफ जवा लाग्यो. जिनदत्तने सागरमा तरतो जोई आकाशमां जता बे खेचरोए तेना धैर्यनी खात्री थतां कह्युं - 'अमारे आपनुं काम छे, जो अनुज्ञा आपो तो आपने सागरमांथी बहार काढीने कहीए.' जिनदत्तनी सम्मति मळतां तेने बहार काढी, स्नान करावी, वस्त्रो पहेरावीने खेचरोए कद्दु - 'वैताढ्य पर्वतमां रथनूपुरचक्रवाल नगरना राजा अशोकश्रीने वेगवती राणीथी थयेली अंगारवती नामनी कन्या पूर्ण युवानीमां आववाथी अने विद्याधर कुमारोमांथी तेने अनुरूप वर न मळवाथी राजाज्ञाथी अमे योग्य वरनी शोध माटे नीकळी चारे तरफ फरतां फरतां आपने समुद्रमां तरता जोया, तमाराथी अमारा राजानी चिंता टळो, जो आज्ञा होय तो आपने लई जईए. ' वैताढ्य जोवाना कुतूहळयी जिनदत्ते सम्मति आप्या पछी तरत ज ते विद्याधरो तेने अशोकश्री पासे लई गया. जिनदत्तने जोईने राजा प्रसन्न थयो अंगारवतीना हावभावथी तेनी सम्मति जाणी शुभ दिवसे अशोकश्रीए बन्नेनुं लग्न करी, जिनदत्तने अनेक विद्याओ शिखवाडी. अहिं जिनदत्त चुस्त जैन होवा छतां कुतूहळथी पोते बौद्ध छे एम बतावे छे. अंगारवती जैन होवाथी जिनदत्तने युक्तिप्रयुक्तिथी जैन दर्शननी महत्ता एवी रीते समजावे छे के जेथी जिनदत्त प्रमुदित थई तेने कहे छे के - 'प्रिये ! कुलकमधी आवता बौद्ध धर्मने छोडीने में तारो धर्म स्वीकार्यो छे.' एक दिवस जिनदत्त श्रीमतीनी स्मृति थतां दक्षिणसमुद्र तरफ क्रीडा करवाने बहाने अंगारवतीने लई विमानमां बेसी दधिपुर जवा नीकळे छे. मार्गमां चंपा नगरी आवतां उद्यानमां साध्वीपासे अभ्यास करती विमलमति अने श्रीमतीने विमानमां बेठां बेठां जोईने जिनदत्तने हर्षथयो. जिनदत्ते अंगारवतीनी साथै समुद्रतीरे क्रीडा करी वळतां शेष रात्री तीर्थभूमि चंपा - नगरीमा गाळवा माटे अंगारवतीनी अनुमति मेळवी जे उद्यानमां विमलमति अने श्रीमती साध्वीओनी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३ साथे रहे छे ते ज उद्यानमां विमान उतायें. त्यां विश्वस्तपणे अंगारवती निद्राधीन थाय छे. जिनदत्त घधी पत्नीओ एकत्रित थई ते सारं थयुं, अंगारवतीने पण अहिं मूकी रूप बदली आ नगरीमां ज रही प्रसंगोपात्त प्रकट थर्बु ठीक छे, आ त्रण सरखा दुःखवाळी होवाथी परस्पर प्रेमपूर्वक वर्तती थशे, एटले भविष्यमा गृहकलह नहिं थाय' आम विचारी अंगारवतीने छोडी प्रयोगथी पामनरूप धारण करी नजीकमां संताई रहे छे. रात्रीना अंतभागमां जागृत थयेली अंगारवती जिनदत्तने न जोवाथी विलाप करे छे. तेनो विलाप सांभळी विमलमति अने श्रीमती 'आ कोई अमारा जेवी ज दुःखी छे, तेने शान्त करीए' एम विचारी तेनी पासे जईने हकीकत पूछे छे. अंगारवती सर्व बीना कहे छे. श्रीमतीए कह्यु'मारा पतिनी साथे सर्व हकीकत मळती आवे छे, फक्त तेओ जैन हता एटलं ज नहिं पण तेमणे भने जैनधर्मिणी बनावी हती अने आनो पति बौद्ध हतो एटलो ज तफावत छे. 'विमलमतिए 'हशे कोई' एम कही अंगारवतीने कयु-'तुं पण अमारी साथे ज रही धर्मानुष्ठान कर.' 'एकली कन्याए पिताने घेर जवु ठीक नहिं एम विचारी अंगारवती त्यां ज रहे छे. जिनदत्त वामनक बनीने गीत - वाधना विनोदथी चंपा नगरीना माणसोने दिन-प्रतिदिन मुग्ध करे छे. त्यांनो राजा तेना विज्ञानथी रंजित थई तेने रोजना सो द्रम्म आपे छे. एक दिवस राजसभामां 'विमलमति श्रीमती अने अंगारवती आ त्रणे य महासतीव्रत पाळे छे अने कोई पण पुरुषनी साथे हसती बोलती नथी' एवी प्रशंसा सांभळी राजानी आज्ञा लई वामनक त्यां जईने पहेले दिवसे पोतानी ज कथा आरंभथी विमलमतिना त्याग पर्यंत, बीजे दिवसे समुद्रावतरणपर्यंत अने त्रीजे दिवसे अंगारवतीपरिहारपर्यंत कही, ते त्रणेनी साथे सहास्य वातोलाप करी सर्वने विशेष मुग्ध करे छे. रतिसुंदरी परिणयन ___एकदा राजानो हाथी मदोन्मत्त बनी आलानस्तंभ तोडीने आखी चंपानगरीने भयग्रस्त करे छे. ते हाथीने कोई पण काबुमां लई शकतुं नथी. ज्यारे राजाए अर्ध राज्य अने कन्या आपवानी जाहेरात करवा छतां तेने वश करवा कोई तैयार न थयुं त्यारे वामनक राजानी आज्ञा लई तेने वश करी फरी तेना स्थाने बांधे छे.. आवा गुणी छतां कुरूपने पोतानी पुत्री आपवा माटे राजाने चिंता थतां तेणे 'कदाच मूळरूप छुपावनार कोई विद्यासिद्ध पुरुष होय' एम चितवी वामनकने कह्यु-हुं तमारा वडिलना स्थाने छु, माटे मारी समक्ष तमारे सत्य छपावq न जोईए, तमे तमारा चरित्रथी कोई सिद्धपुत्र लागो छो. तो साची हकीकत जणावो.' वामनके अवसर जाणी पोतानुं सर्व चरित्र कयु. पछी राजानी प्रेरणाथी विमलमति, श्रीमती अने अंगारवतीने बोलावी तेम ज अशोकश्री अने पृथ्वी शेखरने तेमना नगरमाथी लावी वामनक पोतानुं यथास्थित स्वरूप यथाविधि प्रकट करे छे. त्यार बाद जिनदत्त अने रतिसुंदरीनें उत्सवपूर्वक लग्न थाय छे. अशोकश्री अने पृथ्वीशेखरने खस्थाने पहोंचाडवामां आवे छे. ___अर्धराज्य अने चारपत्नीओनुं सुख भोगवतां एक दिवस जिनदत्त वसंतपुरमा पोताना पिताजीने त्यां'माणसो द्वारा छप्पन करोड द्रव्य मोकली पोतानी कुशळवार्ता जणावे छे. ते माणसोए पाछा आवीने माता-पिताना पुत्रवियोगना दुःखनी जाण करतां जिनदत्त चंपानगरीना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यान राजानी रजा लई चार पत्नी अने परिवार साथे अतिवैभवथी वसंतपुर जाय छे. त्या जई पिताजीने पायवंदन करी, चार पत्नीओ साथे हर्षाश्रुवाळी माताने पगे पडी, खजनोने सन्मान आपी, देवमंदिरोमां पूजा करावी, कायम माटे त्यां ज रहे छे. काळक्रमे चारे स्त्रीओने पुत्र थाय छे. जिनदत्तनो त्याग अने सद्गति । __ अन्यदा वसंतपुर नगरना उद्यानमां शुभंकर नामना अतिज्ञानी आचार्य आवतां नगरजनोनी साथे जिनदत्त पण पोतानी पत्नीओ अने मित्रोनी साथे तेमनुं वंदन करवा जाय छे. त्यां जई वंदन करी धर्मकथा सांभळी 'मने वैभवप्राप्ति केम थई ? एम जिनदत्ते पूछतां आचार्यश्रीए तेनो पूर्वभव कही, 'चार पत्नीओ ते, पूर्वभवमां तारा दाननी प्रशंसा करनार चार कन्याओना जीव छे' एवो निर्देश कर्यो. आ सांभळी जिनदत्त अने तेनी स्त्रीओने पूर्व भवनुं ज्ञान थयु, त्यांथी घेर जई माता-पितानी रजा लई पोताना मित्रो अने पत्नीओ साथे जिनदत्ते श्रमणदीक्षा लीधी. जिनदत्त श्रमण थया पछी विविधशास्त्राभ्यास करी अनेक प्रकारना तपनी आराधना करी अनुक्रमे आयुष्य पूर्ण थतां देवगति पामे छे. भविष्यमा त्यांथी मृत्यु पामी महाविदेह क्षेत्रमा सारा कुळमां जन्मी मोक्ष पामशे. ऋणस्वीकार पूर्वाचार्योए संक्षेए अने विस्तारथी जिनदत्त चरित्र कयुं छे तेने में म्हारी बुद्धीए कह्यं छे. पूर्वनी कथाओथी म्हारी कथामां कंई विशेष होय तो ते प्राचीन कथाना भावने में विस्तारथी प्रकाश्यो छे एम जाणवू. अथवा अल्पबुद्धिना कारणे कई पण ओछु वधतुं कर्तुं होय तो ते निपुण जनोए दरगुजर कर जोईए. पूज्यपाद मुनि श्रीजिनविजयजीए सिंघी जैन ग्रन्थमालामा प्रकाशित करवा माटे जे अनेकानेक संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश भाषा प्रथित प्राचीन ग्रन्थरत्नो निर्धारित कयों छे अने जेमांना अनेक अपूर्व रत्नोए अत्यारसुधीमां प्रकट थईने विद्वज्जगत्ने आनन्दित अने अनुप्रेरित क्यु छे, तेमाना केटलांक नानां मोटा ग्रन्थरत्नोनी प्रतिलिपिओ के प्रेसकॉपिओ विगेरे करवा रूप द्रव्य अने भाव बन्ने रीतिए लाभदायक एवं साहित्यिक पुण्य कार्य करवानुं मने पण सद्: भाग्य प्राप्त थतुं रा छे. परंतु आ प्रन्थमालामां आ रीते एक प्राचीन सुन्दर जैन कथानक ग्रन्थनुं स्वतंत्र संपादन कार्य करवानुं अहोभाग्य पण मने क्यारेक प्राप्त थशे एनी तो कल्पना पण क्यारेय न होती थई. ग्रन्थमालाना प्रधान संपादक, प्रतिष्ठापक अने प्राणदायक पूज्य श्री जिनविजयजीए आ रीते पोतानी आ विश्वविख्यात जैन ग्रन्थमालामां आवा एक स्वल्प श्रमने स्थान आफी मारा जेवा अल्पज्ञ जन उपर जे वत्सलभाव प्रदर्शित कर्यो छे ते माटे हुं तेमना प्रत्ये कया शब्दोमां अल्प-खल्प पण हृदयनो आभारभाव प्रदर्शित करूं ? प्रस्तुत संपादनकार्यमां उद्भवेली केटलीक शंकाओनुं निराकरण करवा माटे, विद्वद्विभूषण पूज्यपाद श्रीपुण्यविजयजी महाराजे जे अनुग्रह बतान्यो छे ते बदल हुँ अहिं तेओश्रीप्रत्ये पण मारो विनम्न कृतज्ञभाव प्रकट करूं छु. वागोळनो पाडो-पाटण, भणहिलपुर विद्वजनविनेय वैशाखी पूर्णिमा वि. सं. २००९ । अमृतलाल मोहनलाल Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तचरित्रगतप्रसङ्गानुक्रमः । मङ्गलम् जिनदत्तपूर्वजन्मवर्णना । सा चेत्थम् - शिवधनेभ्यपत्नी यशोमत्याः शिवदेवाभिधानपुत्रत्वेन जन्म, शिवधनमरणानन्तरं गृहदारिद्र्यम्, ततः शिवदेवसहिताया यशोमत्या दशपुरा - दुज्जयिनीं गत्वा दासित्वकरणम्, वत्सपालननियुक्तस्य शिवदेवस्य बहिस्तपस्वीदर्शनं वन्दनादिपर्युपासना च, कन्याचतुष्कानुमोदनासहितं तपखिने आहारदानम्, कालमेोपार्जित शुभकर्मणः शिवदेवस्य पञ्चत्वम् । जिनदत्तजन्मवर्णना दृष्टपुत्तलिका रूपोत्पन्नानुरागस्य जिनदत्तस्य विमलमतिपरिणयनवर्णना । जिनदत्तद्यूतप्रसक्तिवर्णना । ९,४७ १०,४८ द्यूतमग्नस्य प्रभूतद्रव्यहानेरनन्तरं कोशाध्यक्षनिषेधितद्रव्यादानप्रेषित पुरुषस्य जिनदत्तस्य मानहारुद्वेगः । ११,४९ जिनदत्तोद्वेग निवारणार्थं विमलमतिविचारणा, वसन्तपुरे खपितृगृहे जिनदत्त सहिताया विमलमत्याः प्रस्थानं, तत्रैवावस्थानं च । जिनदत्तविमलमत्योः प्रहेलिकाविनोदः । १,४१ २,४१ ५,४५ ६,४६ १२ १४,४९ द्यूतहारितद्रव्याघिकवित्तोपार्जन चिन्तायुतो जिनदत्तस्य वर्णपरावर्तेन परदेशगमनम्, दधिपुर निवासिनोऽपुत्रस्य दरिद्रसार्थवाहस्य गृहे पुत्रत्वेनावस्थानं च । १६,५१ दरिद्रसार्थवाहसहितस्य जिनदत्तस्य सिंहलद्वीपं प्रति प्रयाणम्, तत्र सपुत्रवृद्धा गृहनिवासश्व १७,५३ सिंहलद्वीपस्वामिपृथ्वीशेखरन्नृपपुत्र्याः श्रीमतीनाम्च्या उदरस्थसर्पमारणोपकारादू जिनदत्तस्योपर्यनुरागः, तयोः पाणिग्रहणं च । अन्तरे जिनदत्तकथिता विजयकुमारकथा । २४,५६ श्रीमतीसहितयोर्जिनदत्त - दरिद्वसार्थवाहयोः सिंहलद्वीपात् प्रतिक्रमणम्, श्रीमत्योपरिसञ्जातानुरागदरिद्रसार्थवाहरचितछद्मेन जिनदत्तस्य मध्यरात्रौ समुद्रान्तराले पातनम् । २६,५७ श्रीमत्याः कौशल्येन शीलरक्षा, चम्पानगरीस्थविमलमल्या सह वसनं च । २७,५८ उदधिपतितस्य जिनदत्तस्य विद्याधराभ्यां समुद्रान्निष्काशनम्, रथनूपुरनाम विद्याधरनगराधिपस्य पुरो नयनम्, तत्कुमार्या अङ्गारवत्याः सहोद्वाहश्च । ३०,६२ श्रीमत्यन्वेषणार्थं जिनदत्तस्याङ्गारवत्याः सार्धं कीलाप्रवासः, मार्गे चम्पायां भार्याद्वयनिरीक्षणात् तत्रैवाङ्गारवतीं छद्मेन त्यक्त्वा वामनकरूपेणावस्थितिः । ३३,६५ मदोन्मत्तराजहस्तिनिग्रहणरञ्जितचम्पानृपाभ्यर्थनानिराकृतवर्णपरावर्त - वामनकत्वस्य जिनदत्तस्य नृपकुमारीरतिसुन्दरीपरिणयनम् । ३५,६७ भार्याचतुष्कसनाहस्य जिनदत्तस्य पितृगृहे गमनम्, तत्रैव वासश्च । ३७,६८ धर्मोपदेशश्रवणम् । दीक्षाग्रहणम् । ३९,७४ " "" " Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAN AM अनुक्रमणिका ३९ ७४ जिनदत्तस्य खर्गमनम् । ४० ग्रन्थकारप्रशस्तिः । ४०,७४ ग्रन्थलेखकप्रशस्तिः। . जिनदत्तचरित्रगतविशेषनाम्नामनुक्रमः । २,६,४१,४५जिणयत्तो श्रेष्ठिपुत्रः १९ विजओ राजकुमारः जंबुद्दीवो द्वीपः २८ वेयड्डो . पर्वतः २,१९,४१ अवंतिदेसो देशः २९ रहनेउरचक्कवा-विद्याधरनगरम् वियब्भ (यभय) विदर्भ:= देशः, लपुरं ___ वीतभयं-नगरम् , असोगसिरी विद्याधरराजा ' पज्जोओ राजा वेगवई विद्याधरराज्ञी दसपुर नगरम् अंगारवई विद्याधरराजकुविक्कमवम्मो अवंतिराजा मारी २,४१ सिवधणो श्रेष्ठी रइसुंदरी राजकुमारी जसमई श्रेष्ठिपत्नी सुहंकरो आचार्यः २,४१ सिवदेवो श्रेष्ठिपुत्रः नेमिचंदसूरी , (प्रशस्तौ) ३,१९,४१ उजेणी नगरी सव्वदेवसूरी , ५,४५ वसंतउरं नगरम् सुमइगणी मुनिमहत्तमः,, जीवदेवो अणहिलपाटक नगरम् (लेखकजीवजसा श्रेष्ठिभार्या पुष्पिकायाम्) चंपाउरी नगरी रांवदेव श्रावकः, "" विमलसेट्ठी श्रेष्ठी अरिष्टनेमिचरित तन्नामा ग्रन्थः , विमलमई श्रेष्ठिपुत्री पउमसिरी राज्ञी १६,५० दहिपुरं नगरम् पउमपुरं पत्तनम् १७,५१ सिंघलदीवो द्वीपः चित्रकूट दुर्गः (लेखकपुहईसेहर राजा पुष्पिकायाम्) सिरिमई राजकुमारी जयतुंग ' राजा " वरनाग श्रावकः , राज्ञी श्रेष्ठी " " " " ७,४६ م د و ७,४८ माणिमदः यतिः , चंदवई Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यानकम्। नमो वीतरागाय । जयउ विणिजियदुजयदुरंतकंदप्पदप्पमाहप्पो । दुदृट्टकम्मदोघट्टकेसरी जिणवरो वीरो ॥१॥ काऊण पंचपरमेडिसंथवं तिविहकरणजोएण । अण्णाणतिमिरहरिणिं, नमिऊण सरस्सई सिरसा ॥२॥ वोच्छं सूरिपरंपरसमागयं सुप्पसन्नबन्धेण । जिणयत्तचरियभित्ति, धम्मकहं तं निसामेह ॥३॥ धम्मो चउप्पयारो, दाणाई जिणमयम्मि सुपसिद्धो । भनिही (बीहि ) जहावसरं, भवियाणुग्गहकए एत्थ ॥ ४ ॥ सुपसिद्धं चरियमिणं, तह वि हु वोच्छामि जेण सुयणाणं । चरियाणुकित्तणेणं, सुकयं अणुमोइयं होइ ॥५॥ भणियं च चउसरणगमणदुक्कडगरिहा सुकडाणुमोयणं चेव । एस गणो अणवरयं, कायवो कुसलहेउ त्ति ॥६॥ जी(जा)वीह विरह-संगम-सिंगाराईण वन्त्रणा का वि । तं मोहविलसियं ति य, दुकडगरिहा मुणेयवा ॥७॥ . अलं वित्थरेण ।। केसिंचि पियं गजं, पजं केसिंचि वल्लहं होइ । विरएमि गज-पजं, तम्हा मज्झत्थवित्तीए ॥८॥ बीहेमि दुजणाणं, सुयणाण वि तह य सुट्ट बीहामि । एगे दूसिंति गुणे, इयरे दोसे वि छायंति ॥ ९॥ अओ दुवेण्हं पि पसायणत्थं आसीवायं देमि- .. कवत्थचिंतणपरो, जं लहइ कई मणम्मि सुहदुक्खं । तं लहउ सजणो दुजणो उ लद्धे जमत्थम्मि ॥ १० ॥ अहवा अत्थेण व सत्थेण व, परस्स तोसो बुहेण कायो । दोसग्गहणेण खलो, जइ तूसइ तूसउ वराओ ॥११॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तपूर्वभवकथावर्णना। [१२-२४ ] दूसिहिइ खलो कवं, सलहिस्सइ सजणो निसग्गेण । ता होउ जारिसं तारिसं पि किं किर पयत्तेण ॥१२॥ इच्चाइओ पसंगो, सप्पासंगम्मि जुञ्जइ पबंधे । मडहं च इमं चरियं, भणामि ता पत्थुयं इण्हि ॥ १३ ॥ मुणिदाणपभावेणं, कल्लाणपरंपरं लहेऊण । जह संपत्तो सुगई, जिणयत्तो तह निसामेह ॥ १४ ॥ छ । ~ जिनदत्तपूर्वभवकथावर्णनाअत्थि इह जंबुद्दी(दी)वे, दाहिणभरहद्धमज्झखंडम्मि । देसो अवंतिनामो, गामागरपट्टणाइन्नो ॥१५॥ जत्थ य तुंगसुवंसा, गिरिणो सुयण व थिरसहावा य । रमणीओ व सरीओ, फुरंतकडयालयच्छीओ॥ १६ ॥ दुभिक्ख-चोर-मारी-भयमवगासं न जत्थ पाइ । कमलकोसे व महुयरपडलं दूरेण तो भमइ ॥ १७ ॥ तम्मि य वियब्भ(यभय?)पहुणा, निवेसियं गेण्हिऊण पजोयं । वचंतेण सदेसं, अत्थि पुरं दसपुरं नाम ॥ १८ ॥ बहुविच्छित्तिविणिम्मियमंदिर-पासायसेणिकयसोहं । उजाणवाविसंठियकलहंसुल्लावसुइसुहयं ॥ १९॥ पायारोरमणीओ, रमणीओ भूरिभासुरमणीओ। विमलं चिय सुयनाणं, सुयनाणं जत्थ सुयनाणं ॥ २० ॥ तं पुण अवंतिनाहो, विक्कमवम्मो त्ति पायडो तइया । दरियारिवारमहणो, भुंजेइ पयावगुणकलिओ ॥२१॥ अह तत्थ पुरे निवसइ, विण्णाण-कलाकलावसंपन्नो। सिवधणनामो वणिओ, णिग्घिट्टो वणियकिरियासु ॥ २२ ॥ भजा य जसमई से, समजोवणरुवसीलसंपन्ना । पुबज्जियपुग्नफलं, दोनि वि ताई अणुहवंति ॥ २३ ॥ जाओ य ताण पुत्तो, अवचविच्छड्डकोट्टियमईणं । सिवदेवो से नामं, पइट्ठियं तेहिं तुडेहिं ॥ २४ ॥ तओ जाव सो अट्टवरिसो संवुत्तो ताव खणभंगुरयाए सरीरस्स, चंचलयाए जीवियस्स, आसावल्लिविच्छेयदच्छत्तणओ कयंतस्स, महईए सिरवेणाए सममिभूओ पाविओ पंचत्तं सिवधणो । जसमई तविओयानलपलित्तहियया विविहकरुणपलावपरायणा तस्स मयकिच्चाई काऊण चिंतिय() पयत्ता । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यानम् | अ किं नाम मए, विच्छोहो कस्सई पुरा रहओ । पडिया जेणायंडे, दुक्खचडका मह सिरम्मि ॥ २५ ॥ ariगो किं व कओ, रंडी होसु त्ति किं व परिसविया । हा हा केरिसपावस्स एरिसं घोरमाहप्पं ॥ २६ ॥ किं वा कयंत निग्विण !, अवरद्धं किं पि तुज्झ मे पुवं । इय दुस्सहाइँ जेणं, कोव फलाई पयंसेसि ॥ २७ ॥ [ १५-३४] तओ एवं झायमाणी बिलवमाणी य कहकह वि कारुणियपुरपुरंधीहिं संठविया संत तं बालयं परिवालिडं पयत्त चि । एत्थंतरम्मि तीसे बिहवो विहवो अहं ति भीओ व । वदिवसाण मज्झे न हि नजर कत्थई पय ( उ ) त्थो ॥ २८ ॥ तओ तीए चिंतियं - दिणमिव पञ्चहेणं, नहं धणिएण सह धणं मज्झ । दालिद्देण तमेण व, अहयं स्यणि व ओसत्ता ॥ २९ ॥ पुनेहिं होइ अत्थो, ताइं दइएण सह पउत्थाई | ता मह निब्भग्गाए, को संपइ जीवणोवाओ ॥ ३० ॥ नत्थ परकम्मकरणं, मोतुं अन्नो त्ति निच्छियं एयं । तापेच्छ केरिस किर, माहप्पं विहिविलासाणं ॥ ३१ ॥ जे थिय जोडियहत्था, कम्मंकरियाइया मह गिहम्मि । सिं चेव गिहेसुं, कम्मं काहामि कहमहयं ॥ ३२ ॥ को वा वि एत्थ माणो, कयंतदंतग्गभग्गमाणाए । जह जह वाह विही, तह तह निचेमि एत्ताहे ॥ ३३ ॥ वह वि हु न एत्थ जुजइ, ठाउं सहितपुचवत्थाए । aara ar are य, जत्थ न पेच्छामि नियलोयं ॥ ३४ ॥ एवं संपहारिऊण सिवदेवेण सहिया निग्गया दसपुराओ । कहाणयविसेसेण व संपता उजेणिं । समासइया एगं कुलप्पसूयं वाणियगं । तेणावि महणिपतिवचिपु दिन्ननिलया किंचि निव्वुयमणा खंडण - कत्तणाइणा वद्विडं पयता । लिवदेवो विनिउत्तो वच्छवालत्ते । एवमइकंतो कोइ कालो । अण्णया वच्छरुयाणं गएण दिडो पण धम्मज्झाणट्ठिओ एगो महातवस्सी । लहुकम्मयाए समुप्पन्नबहुमाणेण वंदिओ गंतूण, सम्मद्दियाओ जंघाओ, परिओसनिब्भरो ठिओ कंचि कालं तस्समी । आगएण सिहं जणणीए । बहुमन्निओ तीए । भणियं च - 'वच्छ ! art सो महाणुभावो परलोकजे तवं तप्पेइ । सो वि धन्नो जो वस्स अन्न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तपूर्वभवकथावर्णना। [३६-३८] पाणाइगं देइ । अम्हं पुण पुन्नरहियाणं न तवो न दाणं । ता तुमं पि तस्स पइदिणवंदणेणावि ताव अत्ताणं कयत्थीकरेजसुत्ति । तओ सिवदेवो वि विसिट्ठयरभत्तिसंजुओ पइदिणं वच्छरुयाणं तयभिमुहो गंतूण तं वंदइ पजुवासेइ । चिंतइ यसुंदरं होइ जइ एस म[म] गिहे पारणगं करेइ । अहवा कुओ मायंगस्स नरवइअद्धासणं ति । अण्णं च पत्ते पियपाहुणए, किं काही दुग्गओ दुरंतो वि । अंधो मलिएहि वि लोयणेहि अंधो चिय वराओ ॥ ३५ ॥ सबहा नत्थि मे भागधेयाणि त्ति चिंतयंतस्स समागया माहपुन्निमा । तम्मि य दिणे भामेइ लोगो पहेणयाई । आगओ सिवदेवो भोयणसमए गिहं । ताव य सोवासिणि ति काउं समागयाइं जसमईए वि पहेणयाई । उवविट्ठो भुंजिउं सिवदेवो । एत्थंतरम्मि सिवदेवसद्धासमुप्पन्नपुन्नचोइओ व गोयरचरियाकमेण समागओ रिसी सिवदेवभवणंगणं । तं च दट्टण रहसवसुच्छलंतरोमकूवेण चिंतियं सिवदेवेण एयाई ताई चिरचिंतियाई तिन्नि वि कमेण पत्ताई। साहूण य आगमणं, संतं (भत्तं ?) च मणप्पसाओ य ॥ ३६॥ सबहा पुन्नवंतो हं । एयलाभसंभवे णत्थि येव झीणा मे रिद्धि ति भावयंतेण समू(म्मु)हं गंतूण वंदिओ रिसी । तओ गहिऊण कूरस्स मल्लयं दिनमद्धं । 'मा जणणी अंबाडिस्सइत्ति संकाए न दिण्णं सर्व । पुणो गहियं पायसमल्लयं तस्स वि तहेव दिन्नमद्धं । पुणो दिना खंडसकरगब्भा दुवे मंडया । एत्थंतरे समागया सवरससंपत्ता (पुन्ना ?) थाली । ताव भणिओ जणणीए- 'वच्छ एवं पि देहि महाणुभावस्स महरिसिणो ।' तओ पवड्डमाणसुहज्झवसाएण ढोइया रिसिणो । तेणावि सद्धाविद्धिं दगुण गहियं कवलमत्तं । भणियं च - 'धम्मसील ! पञ्जत्तमियाणि मा निबंधं कुणसु त्ति ।' तओ भत्ति-बहुमाणपुत्वं पहट्टमुहपंकएणं कयकिच्चमप्पाणं मन्नमाणेण सिवदेवेण कयवंदणाणुवयणो निग्गओ साहू । एत्थंतरे अहिणंदिओ सिवदेवो पहेणयहत्थाहिं चउहि कन्नगाहि- 'वयंस ! धन्नो तुमं जेणेरिसे सुपत्ते वियरियति । अवि य दिण्णं तस्स गणिजइ, अपहुप्पंतो वि धणसमिद्धीए । जो देइ इट्टमिटुं, चिरपत्तं भत्तिसंजुत्तो ॥३७॥ दाणोवभोगपरिवजिएण दवेण किं व किवणस्स । लद्धेण वि नत्थि गुणो, पक्ककविद्वेण कायस्स ॥ ३८॥ . १ कृतवन्दना-ऽनुवजनः । २ काकस्य । - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९-४९] जिनदत्ताख्यानम् । तहा-जे पूइंति कयत्था, साहुजणं नियविढत्तदवेण । ताण सुलद्धो जम्मो, सफला ताणं च धणरिद्धी ॥ ३९॥ देविंद-चक्कि केसव-हलहर-मंडलियपमुहरिद्धीओ। जे वियरंति सुपत्ते, तेसिं करपल्लवत्थाओ ॥ ४०॥ एवमुववृहिऊण गयाओ कण्णयाओ । इयरो वि तुट्ठचित्तो पभुत्तो भोयणं । तप्पभिई च सुहजीवियाए जीविऊण आउक्खए मओ समाणो कत्थ उववन्नोति। -जिनदत्तजन्मकथावर्णनाअस्थि सरसपंडुच्छुवाडपउरपुहइवीढे मज्झदेसे धवलमंदिरसुंदरं पि कसिणायारं असुरसासणवजियं पि देवरायसंगयं वसंतपुरं नाम नयरं । जत्थ य सप्पागारे, सप्पागारेहिं वजिया भवणा । मत्तकरिरायवयणा, वयणामयसंदिणो मणुया ॥४१॥ तत्थ य नयरे निवसइ, सेट्ठी नामेण जीवदेवो त्ति । विण्णाण-नाण-धण-रिद्धि-लद्धकित्ती महासत्तो ॥ ४२ ॥ निम्मलसम्मत्तधरो, जीवाइपयत्थसत्थविनाया। जिणइंद-साहु-साहुणिवंदणपूयासमुजुत्तो ॥ ४३ ॥ समरूव-धम्मसीला, जीवजसा नाम भारिया तस्स । उववन्नो कयपुन्नो, तीसे गब्भम्मि सिवदेवो ॥४४॥ तओ सा अब्भाहरइ न उण्हं, न य सीयं छुह-तिसा बि नो सहइ । चंकमइ नेव हुलियं गब्भायासाउ बीहंती ॥ ४५ ॥ एवं सुहं सुहेणं, नवण्ह मासाण साइरेगाणं । संपुनलक्खणधरो, जाओ तणओ जणाणंदो ॥ ४६॥ ताव य पत्ता वियसियवत्ता, अक्खयहत्था सुंदरिसत्था । वजइ तूरं नच्चणिसारं, दिजइ दाणं सबजणाणं ॥ ४७ ॥ तओ वि तुट्ठया सजणा, दुम्मिया दुजणा। तित्तपुरमग्गणं, वित्तयं वद्धणं ॥ ४८॥ वद्धावणयविरामे, जिणवरभवणेसु अट्ठ दिवसाई । महिमा महामहंती, पयट्टिया जीवदेवेण ॥ ४९ ॥ . १ करनाचारम् । २ शीघ्रम् । - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तपरिणयनकथा । [५०-४] तत्तो वि संघपूयं, काऊणं सयलसंघपञ्चक्खं । जिणवत्तो ति पवित्तं, बालस्स पइट्ठियं नामं ॥५०॥ किंबहुणा? चंदो व सेयपक्खे, अकलंको वड्डिऊण जिणयत्तो । अट्ठसमापजंते, लेहायरियस्स उवणीओ ॥५१॥ बावत्तरी कलाओ, गहिऊणं निययनामपयडाओ। अच्छइ परियट्टतो, ताओ एगग्गचित्तेण ॥५२॥ तओ.सेट्टिणा चिंतियं बावत्तरीकलापंडिया वि पुरिसा अपंडिया चैव । सबकलाणं पवरं, जे धम्मकलं न याति ॥ ५३ ।। एवं संपहारिऊण नीओ साहुसमी । तओ सोऊण धम्म साहु-सावगसामायारीकुसलो सावगो संवुत्तो। ~ जिनदत्तपरिणयनकथा - ___एत्यंतरे पयच्छंति सेद्विसत्थवाहाइणो नियकन्नयाओ । न ताओ जिणयत्तो परिणेउमिच्छइ । बला वि पयच्छंताणं भइणीओ पडिवाइ । तओ मायामोहवसओ वू(छोटो जीवदेवेण दुल्ललियगोट्ठीए । तओ ते दुल्ललिया सविलासवेसाभवणपेच्छणाईसु तं हिंडाविति । भणंति य - समसुहसुहियं समदुक्खदुक्खियं समसिणेहसब्भावं । एकं पि माणुसं जस्स नत्थि सो किं न पवइओ? ॥५४॥ लडहा मउया छंदाणुवित्तिणी विणयसीलसंपन्ना। पियभासिणी अरोसा, भजा रजं विसेसेइ ॥ ५५ ॥ तहा कहंति अणेगाओ सिंगारकहाओ, दंसंति संविलासिणीयणंगाई ति । अण्णया एगं अहिणवदेवउलं गएण जिणयत्तेण दिट्ठा दुवारदेससंठिया चित्तपुत्तलिया। केरिसा ? भोत्तूण मयणदेहं, मसिणं मुसुमूरिऊण अमएण। सबकलाकुसलेणं, लिहिया नूणं पयावइणा ॥५६ ॥ ईसी(सि)सिहसियकडकियअंगावयवाइँ लीलठाणेहिं । सञ्जीवा इव बाला, नजइ सा लेहयगुणेण ॥ ५७ ॥ जाव य तं जिणयत्तो, एगग्गो पुलइउं समाढत्तो । मयणेण ताव सहस त्ति ताडिओ पंचहिँ सरेहि ॥ ५८॥ १ सविलासिनीजनाङ्गानि । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [81-६१] जिनदत्ताख्यानम् । .. सधी तदसणेगग्गं दट्टण मुणियतयहिप्पाया अन्नस्थ गंतूण पिरस्स समागया बयंसया, दिट्ठो तहेव जिणयत्तो । तओ संपुन्नमणोरहेहिं नीओ गिहं । सो विचिंताभारनीसहो णुवनी गिहेगदेससंठिए पल्लंके चिंतिउं च पयत्तो। अमयमयाई मन्त्रे, तीसे नयणाई पंकयच्छीए । जाइं पलोयमाणं, हिययं न हु पावए तित्तिं ॥५९ ॥ तम्बाहुलयाबद्धो, थणवढे को वि धन्नओ रमिही। . पाही को वि सउन्नो, अहररसं विहुमच्छायं ॥६॥ किंबहुगा ? जइ कलत्तेण अप्पा विनडिजइ ता तारिसेण चेव । अओ कत्थ जामि ? के पुच्छामि ? कं पेच्छेमि ? कस्स साहेमि ? कहिं तारिसं बालियारयणं लहिस्सामि ? ति चिंतयंतो गरुयं गरुययरं विरहवियणं अणुभविउमारदो। अवि य पढम महुरासायं, पच्छा हिययं रसेण भावेति । मारेइ विसं वि णु ओसहेण पेमं परायत्तं ॥ ६१ ॥ एत्थंतरे भोयणसमओ त्ति गविट्ठो सेट्टिणा, दिट्ठो तहावत्थो । तओ पुच्छिओ'वच्छ! कि वे बाहइ ?' तेण भणियं-'न किंचि' । 'कहं न किंचि?' 'आम। एमाइसु(प)ण्हुत्तरेहि मुणिओ अभिप्पाओ सेहिणा । तह वि गंतूण पुच्छिया वयंसया । कहिया तेहिं दिवत्ता । तओ परितुढेण सेटिणा-अहो सुंदरं जायं, ताहे पेच्छामि ताव केरिसे आलम्बणे विलग्गो त्ति । अहषा होउ केरिसं पि, मए ताव संपाडेयव-चि संपहारिऊण भणिया वयंसया- 'कारेह कुमारं पाणवित्ति, जेणारं विसत्थचित्तो समीहियं संपाएमि' त्ति । तेहि वि तहेव कए भोयणाणंतरमेव उवायमग्गणसयोहो गओ तमेव देवयाययणं जीवदेवो । पलोइया पुतलिया, चिंतियं च- अहो सुंदरं आलंबणं. ता कहिं पुण एरिसरूवा कण्णया अत्थि ? तमेव चित्तयरं पुच्छेमि-ति संपहारयंतो गओ चित्तगरसमीवं । तेण वि ससंभमं कयविणयपडिवत्तिणा विहियासणपरिग्गहो भणिओ- 'अणुग्गिहीओ म्हि भवंतेहि नियपयपंतीए पंगेणमक्कमंतेहिं. ता आणवेह पओयणं' ति । सेहिणा भणियं- 'अमुगम्मि देवयाययणे तुम्ह विनाणपगरिसेण दढमावजियं मे हिययं. विसेसओ दुवारदेसहिएण देवयारूवेण । ता कहेहि मे किंनामधेया सा परमेसरि' त्ति । सिप्पिएण भणियं-'ताय ! न होइ सा देवया, अवि य माणुसी। कहं ? ति सुण - 'मए हि चंपाउरि गएणं विमलसेट्टिधूया विमलमई नाम कन्नया दिवा. सा कोउयमेत्तमिहालिहिया. न उणो तीए 1 उपायमार्गणसतृष्णा । २ प्राङ्गणम् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तपरिणयनकथा । [६२-६९) स्वस्त सहस्संसो वि सच्चविउं पारिओ ति । तओ सेट्टिणा परितुडेण भणियं'किं अणुरूवो तीए मम नंदणो' इयरेण भणियं - 'अवस्साणुरूवो, लच्छि.. नंदणो रईए। किंतु निसुयं मए जहा सा परिणेउं नेच्छई'त्ति । तओ तस्स कि पि पारिओसियं दाऊण समागओ सभवणं जीवदेवो । चिंतिय(उ) च पयसोसा मग्गिया ताव नियमेण लब्भइ. परं न याणिमो कहं परिणयमिच्छ(च्छि)स्सइ? ति । अहवा मंचयस्स एगम्मि पासे वुए बीओ वुओ चेव । ता पेसेमि तीए कुमारपडिच्छंदयं ति । 'हत्थढियं कजति तुट्टेण कहिओ वुत्तो जीवजसाए । आणदिया एसा । तओ लिहिऊण जिणदत्तपडिच्छंदयं तं चेव लेहं च समप्पिऊण पेसिया वरगा. पत्ता य चंपाउरिं. तत्थ वि विमलसेडिमंदिरं । दंसिओ लेहो विमलस्स । पुणोऽवहारियलेहस्स समप्पिओ पडिच्छंदओ । तओ तमणिमिसाए दिट्ठीए सुइरं पुलइऊण चिंतियं विमलेण-अहो रूवाइसओ कुमारस्स. परं न याणिमो बालियाचित्तं ति । अवि य जइ एरिसरूवं पि हु, न इच्छए मज्झ नंदणी मुद्धा । ता नूण वीयरागा, अहवा वि अयाणुया एसा ॥ ६२॥ एत्थंतरम्मि दिट्ठी, विमलमईए वि तम्मि संपत्ता । जाया य तक्षणेणं, तओ वि सा केरिसा सुणसु ॥ ६३ ॥ उप्फुल्लनयणजुयला, एगग्गा तं पलोयए रूवं । .. आलत्ताऽऽलिजणेणं, सुन्नं हुंकारमुच्चरइ ॥ ६४॥ अवि य तइंसणाउलं तं, द8 ईसालुउ व सहस त्ति । धम्मेल्लमल्लनियरो, ऊसरिउं नवरमारद्धो ॥ ६५ ॥ दहणमन्नचित्तं, वालं वाहो व वम्महो तीए । नाइ सरेहि तोडेइ कंचुयं तडयडरवेण ॥ ६६ ॥ अम्हाण नूणमेसो, पीडं काउं समुजओ को वि । इय कुविया इव सहसा, थणया कढिणत्तणं पत्ता ॥ ६७ ॥ वेल्लहलंगी बाला, डज्झउ मयणानलेण मा वरई । इय चिंतिउं व अंगेसु पसरिओ सेयजलनिवहो ॥ ६८॥ तं च तारिसं दट्टण पढियमेगाए वयंसियाए पेच्छेइ अद्धलक्खं, दीहं नीससइ सुन्नयं हसइ । जह जंपइ अफुडत्थं, तह हियए संठियं किं पि॥ ६९ ॥ अवधारितलेखस्य । २ कामपक्षे बालाम्, व्याधपक्षे मालम् । ३ वराकी । महा ताए। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०-७९) जिनदत्ताख्यानम् । अनाए भणियं लग्गो वि य को वि गहो, ऊसलियंगि ति किं न लक्खेह । मा विलवउ अनिबद्धं, वेजघरे निजउ वराई ॥ ७० ॥ . तओ विमलेणावि वियाणियहिययाहिप्पारण दिना सा तेसिं । ते वि तल्लाभपमुइया लद्धसम्माणा पडिगया वसंतउरं । वद्धाविओ जीवदेवो जिणयत्तो य । तओ वि पसत्थे मुहुत्ते बहुसयणपरिवुडो गओ चंपाउरिं जिणदत्तो । सम्माणिओ विमलेण । तओ वि संचारिया पओगा, साउल्ले वट्टिए वहु-वराणं । आसणं पि हु किच्छेण आगयं पाणिगहलग्गं ॥ ७१ ॥ तत्तो पमक्खणाई, मंगलकोऊहलेसु रइएसु । पत्तो विवाहमंडवमुकंठियमाणसो कुमरो ॥ ७२ ॥ किं बहुणा ? विलसिरहारतालसुवियक्खणनचिरजुवइसत्थयं, ___ वजिरसंख-तूरसदाउलमंगलझुणिपसत्थयं । बहुविहगंधपुप्फ-तंबोल-विलेवणदाणसोहणं, वित्तं पाणिगहणमुद्दामकुऊहलहिययमोहणं ॥७३॥ वित्ते पाणिग्गहणे, संपुण्णमणोरहो तओ कुमरो । ठाऊण के वि दियहे, दइयं मिल्लावए विहिणा ॥ ७४ ॥ विमलेण विमलमाणिक्कमुत्तपमुहं धणं बहुं दाउं । मुक्का बाला तत्तो, जिणयंत्तो पडिगओ नयरं ॥ ७५ ॥ तत्थ वि मंगलपउरे, बद्धावणयम्मि कारिए पिउणा । देवो व देवलोए, निश्चिंतो भुंजए भोए ॥ ७६ ॥ जिनदत्तद्यूतप्रसक्तिवर्णना।इय सोक्खसमुदएणं, समइकंतेसु केसु वि दिणेसु । दारुणसिरवियणाए, गहिओ सहस त्ति जिणयत्तो ।। ७७ ॥ मंतोसहिपडियारा, जाहे अचंतनिष्फला जाया । सारीज्यविणोओ, पारद्धो ताव मेत्तेहि ॥ ७८ ॥ परियाणियजयरसो, जाओ तत्थेव निचमुजुत्तो । खेल्लइ य सइच्छाए, अंधिय-नल्लचमाईणि ॥ ७९ ॥ जि० द० २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तातप्रसक्तिवर्णना। [८०-८८] तओ जीवदेवेण चिंतियं जूयं अत्थविणासो, ज्यं जस-कित्तिनासणं भणियं । जूयं जीयंतकरं, सरीरखेयावहं जूयं ।। ८०॥ जयपसत्तो पाणी, लोहकसाओवओगजोगाओ। संचिणइ कम्मरासिं, अहोमुहं वच्चए जेण ॥ ८१॥ वंचेइ जणणि-जणए, मित्तद्दोहं करेइ तेयं च । कर-चरण-कन्न-नासाण छेयणं लहइ ज़्यरई ॥ ८२ ॥ जूएण नलसरिच्छा, रायाणो पाविया विवत्तीओ। ता नीयकम्ममेयं, छाइ नीयस्स लोयस्स ॥ ८३॥ एस उण मज्झ पुत्तो, विनायसमत्तसत्थपरमत्थो। जूयम्मि जं पसत्तो, न सुंदरं सबहा एयं ॥ ८४ ॥ अहिमाणधणो एसो, वारिजंतो वि परिभवं गणिही । ता रमउ थेवदिवसे, पच्छा दाहामि उवएसं ॥ ८५ ।। वसणीणं पढमरसे, उवएसो निप्फलो हवइ पायं । रोगम्मि वि परिजिन्ने, कुणइ गुणं ओसहं सहसा ।। ८६ ॥ जाव य जीवदेवो एयं वियप्पमाणो चिट्टइ, ताव जिणयत्तेण अंधियं खेल्लमाणेण हारियाओ सत्त दविणकोडीओ । तओपेसिया भंडागारियसमीवं जायगा। दिनाओ तेण तिनि कोडीओ । पुणो वि पेसिया, ताहे भंडारिएण 'पभूयदववएण सेढी अंबाडिस्सई' त्ति परिभंतचित्तेण किंचि मिसं काऊण निसिद्ध, कहियं तेण जिणयत्तस्स । तेणावि पेसिया विमलमईभंडागारियसमीवं । दिनाओ तेण । तओ सहिएण भणियं- 'सेट्टिपुत्त ! इओ परं धणं काऊण खेल्लियवं, न उण अंगुद्धारीए ।' जओ बप्पेण ताव निवारियमिव लक्खिाइ । भजाए वि नीवी एत्तिया चेव संभावियह त्ति । तओ कीस एत्तिय त्ति चिंतिऊण दविणहारणुप्पन्नमहंतामरिसुद्धमायमाणमाणसेण जयमणोरहरहारूढेण जिणयत्तेण पुणो वि मग्गाविओ विमलमईभंडागारीओ । अवि य जह जहं जायइ हारी, तह तह हिययम्मि वट्ट()इ जयासा। ____हा पावकम्म ! ज़्यय !, विवरीयं तुज्झ माहप्पं ॥ ८७॥ तओ देव्वजोगाओ तेणावि सामिणीभयाओ निसिद्धं । तओ गहिओ माणेण जिणयत्तो, चिंतियं च पयत्तो-कित्तियं मए हारियं जेणेवं निवारिओम्हि ? को वा इच्छानिरोहसंचिएण धणेण गुणो ? त्ति । अवि य इच्छानिरोहदुक्खं, होइ जओ तेण महधणेणालं । सलहिजइ वणवासो, नूणं सच्छंदवित्तीओ ॥ ८८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८९-९८] जिनदत्ताख्यानम् । तहा मलियम्मि माणकंदे, साहारो नत्थि सयणविडवेण । ता नरपायव संपद, को हेऊ विद्धिबुद्धिए ॥ ८९ ॥ अनंच नियमुयविढत्तदयो, मणोरहे मग्गणाण पूरितो। विलसइ जो न जहिच्छं, चलंतथाणू न सो पुरिसो ॥ ९ ॥ ता सहा भुयडंडसहाओ निग्गंतूण करेमि दबोवजणं, पराणेमि कुलहरें विमलमा त्ति, संपहारिऊण उडिओ ज़्यफराओ । गओ सभवणं । चिंताभारनिमरो दिट्ठो जणएण विमलमईए य । किमयं ? ति गवेसमाणाण दोण्हं पि साहिओ वुत्तंतो भंडागारिएहिं दुवेहिं पि । [ सेट्ठिणा ?] भणियं-'न सुंदरं कयं, इओ परं माऽवमाणेसह त्ति । अण्णया भणिओ जिणयत्तो जणएण- 'वच्छ! किमेइणा पुरिसत्थवाहिरेण ज्यवसणेण ? जइ ता ते चाए कोउगमत्थि ता . कुणसु जिणसाहुपूयं, दीणाईणं जहिच्छियं देसु । वित्थरइ जेण कित्ती, पुण्णं पि हु अक्खयं होइ ॥ ९१॥ धण्णाण दाणधम्मे, लच्छी उवयरइ जा य पुरिसाण । इयरेसि पत्तविलया वारुणि-जूएसु सा जाइ ॥ ९२ ॥ इय जंपियम्मि पिउणा, जिणयत्तो भणइ एवमेयं ति । ता ताय ! इमं कम्म, न मए पुणरवि हु कायई ॥ ९३ ॥ इय तोसिऊण जणयं, जिणयत्तोऽमाणमाणपडहत्थो । दबोवजणकजे, चिट्ठइ चिंताउरो निचं ॥ ९४ ॥ ----- जिनदत्तोगनिवारणार्थं विमलमतिविचारणा । तं च तहा दट्टणं, विमलमई चिंतिउं समारद्धा । उबिग्गो विय दइओ, लक्खिजइ एस किं कजं? ॥ ९५ ॥ जओ तं चिय हसियं विरसं, रुक्खा ते चेव मंजुलुल्लावा । किं बहुणा सर्व चिय, संपइ अन्नारिसं ललियं ॥ ९६ ॥ अहवा मनेमि अहं, मझुइओ एस धणनिवाराए । न सहंति माणभंग, थेवं पि हु माणिणो जम्हा ॥ ९७ ॥ भणियं च थेवं पि माणहाणि, पेच्छंता माणिणो गुणमहग्या । अत्थं पियं सएसं, सुसामियं झत्ति मुचंति ॥ ९८॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तविमलमतिविचारणा । [९९-१०२] किं च___ उझंति निययजीयं, तणं व माणसिणो न उण माणं । लब्भइ पुणो वि जीयं, माणो पुण मइलिओ कत्तो॥ ९९ ॥ ता कहं चि नियनयरिंगमणविक्खेवेण वीसारेमि माणं ति, संपहारिऊण विमलमईए भणिया नियमहंतया- 'दढमुकंठिय म्हि नियअम्म-तायाणं ता अजउत्तसहियं में विसजावेह' ति । तेहि 'एवं'ति पडिवन्ने, भणिओ भत्ता'विनवेमि अजउत्तं जइ पत्थणावियत्थं न होइ।' इयरेण भणियं- 'विन्नत्ति विणा वि मम संतियस्स जीवियस्सावि जइ पुण दूरत्थवत्थुणा केणइ पओयणं ता विन्नवेसु' ति । तीए भणियं - 'अजउत्त! उकंठिय म्हि दढं जणय-जणणीणं, न य सकुणोमि निमेसद्धमत्तं पि तुहादसणम्मि पाणे धारेउं, ता करेहि मे एगपत्थर्ण-बच्चामो चंपाउरिति ।' तओ 'मम मणोरहाणुरूवं जंपत्ति हरिसिएण भणिया जिणयत्तेण - 'पिए ! तुह वयणेण दुक्करं पि कीरइ, किमंग पुण एत्तियं" ति । तओ किं बहुणा ? विमलमईमहंतएहि पडिवपम्भने(१) कए, सेटिणाऽणुण्णायाणि पत्ताणि दो वि चंपाउरि । बहुमाणपुरस्सरं पविठ्ठाणि विमलसेट्ठिमंदिरं । तत्थ वि उबिग्गमाणसं दइयं ददृण भणियं विमलमईए - 'अजउत्त! करेमो के पि विणोयं ।' जिणयत्तेण भणियं - 'पढेहि कखाइपन्होत्तराणि । तओ हरिसियमणाए पढियं विमलमईए किं मरुथलीसु दुलहं १, का वा भवणस्स भूसणी भणिया। कं कामइ सेलसुया ?, कं पियइ जुवाणओ तुट्ठो? ॥१०॥ तं ता ततं । पढियाणंतरमेव लद्धं जिणयत्तेण 'कंता हर । पुणो 'पिए! पढसु' त्ति वुत्ते भुजो वि पढियं संबोहिऊण बंभण चलणं चलणनिजियगइंद । किं जिणनाहस्स सिरे, आरूढं पावए सोहं ॥ १०१॥ त त तं, वद्धमाणयं । लद्धं जिणयत्तेण 'कमलं' । तओ 'अहो कोसलं पिययमस्स' ति जंपिरीए भणिओ 'संपयं तुमं पढसु' त्ति । पढियं जिणयत्तेण किं कारेइ अहंगं, पुरसामी ? का पुरी दहमुहस्स। का दुन्नएण लब्भइ ?, विरायए केरिसा तरुणी ? ॥ १०२ ॥ तातं ता ता, गहियमुत्तयं । १ प्रथमप्रश्नोत्तरः कं-उदकम् , द्वितीयप्रश्नोत्तरः कता-कान्ता, तृतीयप्रभोत्तरः हरं-शिवम्, चतुर्थप्रश्नोत्तरः कंताहरं-कान्ताधरम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३-११०] जिनदत्ताख्यानम् । - पढियाणंतरमेव लद्धं विमलमईए "सालंकारा । पुणो जिणयत्तेण पढियं का विण्हुपिया ? रमणीणमप्पिओ को जुवा भण पहाणं । को नाम गिरं महुरं, पि जंपिरो पामरे तवइ ? ॥ १०३॥ ___ ता त तो, वित्थवड्डमाणयं । पुणो पुणो चिंति(त)यंतीए [लद्धं ?] 'सारसो' । एवं विचित्तपण्हुत्तरेहि अक्खरचुएहि बिंदु-मत्ता-वंजणचुएहिं गूढकिरियाकारगुत्तरचउत्थपाएहिं, पहेलियाहिं, हियालियाहिं, बिंदुमइअंतक्खरियाहिं, चित्त]बंधकव्वेहि, पत्तच्छेजेण, अमेहि विविहेहि कीलाविसेसेहि विमलमई तं विणोइउं पवत्त त्ति । अवि य सो जत्थ जत्थ वच्चइ, अणुमग्गं जाइ तत्थ तत्थेव । अगणिय विओयभीया, उवहसमाणं सहीसत्थं ॥ १०४ ॥ अह सरसचूयमंजरिमयरंदुम्मत्तभमरसंगीओ। ... कलयंठबंदिसंदोहघुट्ठउद्दामजयसद्दो ॥ १०५ ॥ नवर्किसुयरत्तच्छो, दूमियलोयस्स सिसिरचरडस्स । उवरि परिकुविओ इव, संपत्तो माहवनरिंदो ॥ १०६॥ पढमाइटेण य मलयपवणजोहेण कंपियसरीरा । जाया झत्ति विवन्ना, तरुभिचा सिसिररायस्स ॥१०७ ॥ काउं आणवडिच्छे, तरुभिच्चे पउरपत्तरिद्धिल्ले । चच्चरिरासंदोलयरम्मं भुवणं महू कुणइ ॥ १०८ ॥ दइयासरणविमुच्छियपहियगणासासणस्थहेउं व । कारावेइ वसंतो, पए पए नीरसालाओ ॥१०९ ॥ सुत्थम्मि कए महुपत्थिवेण भुवणम्मि पमुइओ लोगो । परिकीलिउमारद्धो, पवरुजाणेसु सच्छंदो ॥ ११० ॥ तओ जिणयत्तो वि निग्गमणोवायमग्गणमणो कीलानिमित्तमिव सद्धिं विमलमईए गओ उजाणं । पवत्ता कीला । कहं ? खणं लयतालंगहारहारिविलासिणीजणारभूमणहरचचरीपलोयणेणं, खणं सुहसुहयवंसवीणातंतितालसम्मिलियकायलीगेयाऽऽयन्नणेणं, खणं घणच्छायचूयसाहानिबद्धमंदंदोलणपणञ्चमाणकणयमंजरीभमिरभमरमंडलीमहुरझंकाराभिरामहिडोलयारोहणेणं, खणं विविहभंगुरतरंगरम्ममाणमाणिणीवहलकुंकुमुप्पं(प्पभ?) १ प्रथमप्रभोत्तरः सालं प्राकारम्, द्वितीयप्रश्नोत्तरः लंका-रावणराजधानी, तृतीयप्रभोत्तरः कारा-गुप्तिः, दूर्यप्रश्नोत्तरः सालंकारा-साभरणा । . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तपरदेशगमनवर्णनम् । [१११-१२१] कटिविडिकियसलिलकीलासरसम्मजणेणं ति । एत्थंतरे सिणिद्धसहियणपवत्तियविचित्तवसंतकीलापमत्तं विमलमई पलोइय चिंतिउं पवत्तो जिणयत्तो सम्भावनेहनिब्भरहिययं लायण्णपुण्णसवंगं । थरथरइ मज्झ हिययं, दइयं परिचत्तुकामस्स ॥ १११ ।। किं तु दो तिनि वासराई, सासुरयं होइ सग्गसारिच्छं । पच्छा परिभवदावानलेण सवत्थ पजलइ ॥ ११२ ॥ तहा माणेण पिइघराओ, निग्गंतुं ससुरमंदिरे ठाइ । जो सो तविओ गिम्हायवेण संसेवए जलणं ॥ ११३ ॥ न य जामि निययगेहं, जावइयं हारियं मए रित्थं । तावइयं अट्ठगुणं, न जाव कत्थइ विढत्तं ति ॥ ११४ ॥ ~ जिनदत्तस्य परदेशगमनवर्णनम् ।एवं संपहारिऊण वंचियनीसेसपरियणदिद्विपसरो पुवसंगहियवण्णपरावतिणि गुलियं सरीरमज्झे गोविऊण तुरियमेव निग्गओ उजाणाओ। चलिओ दाहिणदिसाभिमुहं । वच्चइ दोन्नि पयाई, पयमेगं पिट्ठओ पुणो वलइ । अच्छामि जामि जामि त्ति जाइ विगलन्तनयणं व ॥ ११५ ॥ चिंतेइ न जुत्तं चिय, चतुं अणुरत्तियं नियं दइयं । किं तु न तीए सद्धिं, समीहियं सिज्झए मज्झ ॥ ११६ ॥ पभणइ - 'दइए ! मा होसु कायरा एस एमि तुरिओ हैं । न तरामि खणं पि जओ, सोढुं तुह संतियं विरहं ॥ ११७ ॥ अहव किरियाविरुद्धेण एइणा जंपिएण किं सुयणु!। परितप्पसु मा हु तुमं, निडरहिययस्स मज्झ कए ॥२१८॥ भुयडंडसहाएणं, अजेयवं धणं ति मह इच्छा । दवा य विसाला, नाणऽब्भुयभूसिया पुहई ।। ११९ ॥ तं तुमए सह न घडइ, सुंदरि ! मुका सि तेण कजेण । ता परियावविमुक्का, कुणमाणी चिट्ट जिणधम्म ॥१२०॥ एवं विचिंतयंतो, ठावितो धीरिमं तहा हियए। संचल्लो सो तुरियं, लंघतो गाम-नगराई ॥ १२१ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२२-१३६] जिनदत्ताख्यानम् । अह विमलमई बाला, कीलंती पिययमं अदट्टणं । नूणं गओ त्ति भीया, सहसा मुच्छं समणुपत्ता ॥ १२२ ॥ हा हा ! किमियमयंडे, त्ति जंपिरो ताव सहियणो सबो । सहस चिय संपत्तो, तीए पासं दुहऽकंतो ॥ १२३ ॥ जलसेयण-संवाहण-सिसिरानिलदाणलद्धचेयना । पुट्ठा सहीहि सामिणि !, किं ते बाहइ सरीरम्मि ॥ १२४ ॥ सा वि हु जूहविउत्ता, हरिणि व दिसोदिसि पलोयंती । पभणइ नूण पउत्थो, मह दइओ में पमोत्तूण ॥ १२५ ॥ नहि नहि खणं पि सामिणि !, जुञ्जइ एयं ति बिति सहियाओ। नूणं होज निलुको, कत्थइ परिहासकजेण ॥ १२६ ॥ अहवा पेच्छणयाइसु, अक्खित्तो कत्थई चिरावेइ । इय जंपिरसहियाहिं, सहिया अनिसिउमारद्धा ॥ १२७ ।। अनेसिओ समंता, न य दिट्ठो जाव कत्थई दइओ । ता विरहानलतविया, पलविउमेवं समारद्धा ॥ १२८ ॥ 'छेओ सि धम्मिओ बुद्धिमं च दक्खिन्नकरुणनिलओ सि । ता न हु जुत्तमदोसं, मोत्तुं मं नाह ! एमेव ॥ १२९ ॥ जाणामि न हु अजुत्तं, कुणसि तुम मह अहन्नया एसा । तह वि तुह दीणवच्छल !, करेमि लल्लिं ति मा मुंच ।। १३० ॥ जइ किंचि वि अवरद्धं, दइयय ! अन्नाणओ मए तुज्झ । तं खमसु पाणवल्लह !, खंतिपहाणा जओ सुयणा ॥ १३१ ॥ पियसंगघोटियाई सुहाई अचंतमहुरसायाई । सकलाई ताई मन्ने, विरहकुसुंभोवमाणाई ॥ १३२ ॥ तहा भत्ता महिलाण गई, भत्ता सरणं च जीवियं भत्ता । भत्तारविरहियाओ, वसणसहस्साइँ पाविति ॥ १३३ ॥ इय विविहं पलवंती, लद्धोदंतेहिँ जणणि-जणएहिं । संठविऊणं नीया, नियगेहं दुक्खतविएहि ॥ १३४ ॥ भणिया- 'सुयणु ! तए चिय, विच्छोहो कस्सई कओ होज । पुत्वभवे तेण इमं, संपइ वसणं समुप्पन्नं ॥१३५ ॥ सबो पुवकयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य, निमित्तमेत्तं परो होइ ॥ १३६ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य सिंहलदेशे प्रयाणम्। [१३७-१४३] ता धम्मकम्मनिरया, पढमाणी चिट्ठ साहुणिसमीवे । जाणियजिणवयणाए, अट्टज्झाणं न ते जुत्तं ॥ १३७ ॥ तओ एवं अम्म-ताएहि आसासिया सन्ती भोयणकजवजं विवजियगिहागमणा साहुणीसमीवे सज्झायज्झाणपरायणा कालं गमिउमारद्धा विमलमई । चितइ य ताव चिय होइ सुहं, जाव न कीरइ पिओ जणो कोइ । पियसंगो जेहि कओ, दुक्खाण समप्पिओ अप्पा ॥ १३८ ॥ गयकण्णचला लच्छी, मुणालदलतंतुपेलवं जीयं । तारुनं विजुचलं, दप्पणछायासमं पेम्मं ॥ १३९ ॥ जर-वाहि-रोगरयमलकिलेसबहुलम्मि नवर संसारे । नत्थि सरणं जयम्मी, एकं मोत्तूण जिणधम्मं ॥ १४० ॥ इओ य जिणयत्तो पत्तो दहिपुरं । खेयावहारत्थं चोवविठ्ठो एगम्मि उजाणे । ताव य दिट्ठो उजाणसामिणा दरिद्दसत्थवाहेण 'विसिट्टागिई देसंतरिओ य' त्ति सोवयारं संलत्तो णेण - 'भद्द ! इममुजाणं पुप्फ-फलाई न पयच्छेइ, 'किर बहुरयणा वसुंधर'त्ति पुच्छेमि भवंत मुणसि किं पि उवायं?' ति । जिणयत्तेण वि 'मुणामि गुरुपसाएणं' ति भणिऊण आणावियं तदुवगरणं । तओ किं बहुणा ? किं पि सिद्धत्थयखलेण, किं पि इयलचुन्नेण, किं पि सकामकामिणीसमुवगृहणेण, किं पि चंदणपंकोवलेवेण, तओ किं बहुणा ? अन्नेहि वि एवमाइपगारेहि सहसा चेव तमुजाणं फुल्लावियं फलावियं च त्ति । तबिन्नाणरंजिएण य 'एस को वि महापुन्नवंतो' ति भावयतेण सेट्टिणा 'पुत्तय ! अपुत्तयस्स मम तुमं पुत्तो होसु' त्ति भणमाणेण नीओ सगिहं । तत्थ वि कयभोयणाइमुवयारो सिणेहसारं च उवचरिजमाणो पिइगिहे व सुहाच्छियाए अच्छिउं पयत्तो । -~जिनदत्तस्य सिंहलदेशे प्रयाणम् ।अण्णया भणिओ णेण सेट्ठी पच्चासन्नो जलही, पुत्तो हं तुज्झ तह वि दालिदं । इय पेच्छिरस्स मज्झं, उल्वेवो वट्टए ताय ! ॥१४१॥ अण्णं च- धम्मो अत्थो कामो, पुरिसत्था तिन्नि जीवलोगम्मि । अत्थो तत्थ पहाणो, न धम्म-कामा विणा तेण ॥ १४२ ॥ अत्थस्स पुण उवाया, दिसिगमणं होइ मित्तकरणं च । नरवरसेवाकुसलत्तणं च माणप्पमाणेसु ॥ १४३ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यानम् । धावाओ मंतं, देवयआराहणं च केसिं चि । सायरतरणं तह रोहणं च विन्नाणविणयं च ॥ १४४ ॥ नाणाविहं च कम्मं, विजा - सिपाइ गरुवाई | अत्थस्स साहणाई, अनिंदियाहं च लोगम्मि ॥ १४५ ॥ तं तुमएऽणुण्णाओ, दुल्लंघं लंघिउं लवणसिंधुं । इच्छामि अहं तायय !, समजणं भूरिविहवस्स ॥ १४६ ॥ भणियं च - जे यि भमंति भमरा, ते च्चिय पार्वति कुसुममयरंदं । मंदपरिसिक्क (सक्कि ) राणं, होइ रई निंबकुसुमेसुं ॥ १४७ ॥ तं सोऊण 'अहो ववसाय साहसघणो पुनवंतो य एसो ति तुद्वेण भणियं सेट्टिणा - 'पुत ! करेमो जं तुमं भणाहि ।' तओ पसत्थे तिहिमुहुत्ते संजत्तियं पवहणं, पणीकया आडत्तिगा, गहियं सिंघलदी वोचियं भंडं । कयमंगलोवयारेहि विजयं जाणवतं । तओऽणुकूलत्तणओ पवणस्स कुसलत्तणओ आडचिगाणं, सुसुण पत्ता सिंघलदीवं । जोका रिओ तस्सामी पुहइसेहरराया । उत्तारियं एगस्स कुलपुत्तयस्स गिहे भंडं । कया तेण उचियपडिवत्ति | चिंतियं च - [ १४४-१४९ ] जेण न किंचि वि कर्ज, तस्स वि घरमागयस्स जे सुयणा । नूणं पट्टवयणा, नियसीसं आसणं देति ॥ १४८ ॥ तस्स माया वि जिणयत्तं पुत्तं पिव पेच्छेइ । करेइ सिणाणाइणा सुत्थं सरीरं । जिणयत्तो वि तग्गुणावजिओ 'किमेएसि उवयरामि' त्ति परिभावयंतो चिट्ठह । अवि य उबयारो जो पढमं, तस्स हु मोल्लं न तीरए काउं । उवयरिए उवयारो, वणिययकयविक्कओ एस ॥ १४९ ॥ जिनदत्तकृता सिंहलदेशीयराजकुमारीजीवितरक्षावर्णना १७ 1 अण्णया विवणीओ गिहमागओ रुयमाण बुद्धं पेच्छिय भणह - 'अंब ! केण परिभूया सि ? किंवा ते नत्थि ? त्ति कहेहि मज्झ । सवहा मइ विजमाणे मा उवभायण होसु' त्ति । तीए भणियं - 'पुत्त ! चिरं जीव, न विसरेमि तुम्ह पसाएण. किंतु सुण - इह राइणो सिरिमई नाम धूया महावाहिया अत्थि । तीसे समीवे जो सुयइ सो नियमा मरइ । तओ राइणा नाइदूरत्थे पासाए ठाविया । नगरं च सेणिबद्धं कथं, वारएण सोवगा वञ्चति । तं अज रत्तीए मम पुत्तस्स वारओ कहिओ गंडएण, तं असरणा अत्ताणा हा ! कत्थ जामि ?' जि० द० ३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जिनदत्तकृता सिंहलदेशीयराजकुमारीजीवितरक्षावर्णना । [ १५० - १५३ ] चि भणिऊण पुणो वि परुना । भणिया जिणयत्तेण 'अम्मो ! मा अद्धिहं करेहि अहं तव पुत्तं रक्खिस्सामि ।' चितियं च - सयलम्म विं एत्थ जए, ते पुरिसा जे परं न पत्थंति । जे य पहुमेत्तकजे, तणं व मन्नंति नियजीयं ॥ १५० ॥ हुति परकअनिरया, नियकअपरम्मुहा धुवं सुषणा । चंदो धवलेह महीं, न कलंकं अत्तणो फुसइ ॥ १५१ ॥ तणलग्गविसमसंठियपवणाहयनीरबिंदुसरिसेण । जीएण जइ विढप्पड़, थिरो जसो किं न पखतं ॥ १५२ ॥ - तीए बुत्तं - 'तुमं पि पुत्तो चैव त्ति निविसेसं दुक्खं ।' 'कित्तियं ममेयं' ति चिंतेण धीरविया णेण । तओ संज्ञासमए कयमज्जणविलेवणो तंबोलवीडय - चंदहासभूसिय करो केसरिकिसोरड व भयविवजिओ, सलीलाए गईए दूर्मिको गपुरसुंदरीहिययाई, विसायमउलियनयणेण पलोइजमाणो नायरगणैण, रायसहासमासन्नवत्तिणीए [ रच्छाए ? ] पत्थिओ कुमरीमंदिराभिमुहों जिणयत्तो । दिट्ठो राइणा. पुच्छियं च - ' को एस ? किं निमित्तं वच्चइ ?" ति । कहियं परियणेण - 'कुमारीभुवणवासुओ' त्ति । तओ तस्स रूवाइसयं दण विसनो राया भणिउं पवत्तो- 'धिरत्थु पावपरिणईए मे, धिरत्थु कण्णगाए जत्थेरिसा महाणुभावा खयं वच्चति । एत्यंतरे छीयं वामपासट्ठिएण केणावि । तओ साउणिएण पढियं - पडिसेहमत्तं वा, बुड्डी हाणी खयं असिद्धिं च । आरोगमत्थलाभं, छीयम्मि यदाहिणदिसासु ॥ १५३ ॥ तओ 'महाणुभावो कोवि एस नियपुन पहावेण चैव रक्खिजिहि' त्ति मंणम्मि समासत्थो राया । जिणयत्तो वि पविट्ठो कुमारिभवणं । 'कत्तो किर भयं १' ति गवेसिऊण हेट्ठभूमीं, आरूढो बीयभूमियाए । दिट्ठा उयरवाहिपीडिया रायकन्ना, पलोइया विसत्थचित्तेण । संभासिया महुरवाणीए । पुच्छिया- 'सुंदरि ! किं ते बाहर ?' त्ति । तीए वि उयरं दंसिऊण चिंतियं 'अहो रूवं, अहो निब्भयत्तं, अहो विसत्थया, अहो महाणुभावया एयस्स. अहो एरिसरूयाण विणासिगाए अकल्लाणभायणत्तं मम त्ति सबहा होउ किं पि, निवारेमि एयं' ति संपहारिऊण भणियं - 'भो महाभाग ! कयं तुमे रायसासणं, ता अंधयारीभूए मम जग्गमाणीए चैव नियजीयरक्खणत्थं पासा - याओ नाइदूरे गंतूण सुविज्जसु' ति । इयरेण भणियं - ' सुंदरि ! कस्स पुण व मणयस्मि मतो | Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५४-१६५] जिनदत्ताख्यानम् । सयासाओ इह भयं ? सा भणइ - 'न याणामि केवलं सुत्तविउद्धा पासवत्तिणं विगयजीयं पेच्छामि ।' जिणयत्तो वि 'अहो. सोमसहावा एस' ति चिंतिऊण 'सुंदरि ! तुमं एगागिणिं पमोत्तूण न मे जीवरक्खाए पओयणं' ति भणमाणो निविडो तयासन्नपल्लंके । जाव तचिंताए सा निदं न पावइ ताहे णेण पारद्धं कहाणय। जिनदत्तकथिता विजयकुमारकथा ।सुंदरि ! अवन्तिदेसे, उजेणी नाम पुरवरी रम्मा । दरियारिदप्पदलणो, जयतुंगो तत्थ वरराया ॥ १५४ ॥ चंदवई से भजा, विक्कम-अहिमाण-चायगुणनिलओ। परकजसाहणरई, विजओ ताणं च वरपुत्तो ॥१५५ ॥ सो अण्णया कयाई, केणावि नरेण पंजलिउडेण । अब्भत्थिओ किर म्हं, कुण साहेजं वरकुमार! ॥ १५६ ॥ अन्ज कसिणहमीए, रत्तिं इच्छामि साहिउं मंतं । अमेण सहाएणं, न तीरए साहिउं सो उ॥ १५७ ॥ अवि य दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहिं पि धारिया एसा । उबयारे जस्स मई, उपयरियं जो न पम्हुसइ ॥ १५८ ॥ एवं ति तओ मणियं, संझाए खग्गपोरुससहाओ। पत्तो ते[हिटुं, मसाणभूमि विजयकुमरो ॥ १५९ ॥ जत्थ पिसाया दीसंति मीसणा मंसकत्तिया हत्था । भीमट्टहासदुप्पेच्छमुत्तिणो रक्खसा तह य ॥१६०॥ फेकंति सिवा सत्था, डाइणिओ किलिकिलिंति सहयो। कीलंति कवालकरा, भूयसमूहा जहिं विविहा ॥ १६१ ॥ अह साहगेण तुरियं, मंडलयं पूइयं अइविसालं । काऊण बलिविहाणं, उवविट्ठो तस्स मज्झम्मि ॥१६२॥ भणिओ विजयकुमारो, अपमत्तेणं तु रक्खियको है। उहिस्सति सुमीमा, विभीसियाओ धुवं एत्थ ॥ १६३ ॥ वा खम्गवग्गपाणी, चिट्टइ एगग्गमाणसो कुमरो। इयरो वि मंडलत्थो, पारद्धो साहिउं मंतं ॥१६४ ॥ अनो वि गयणचारी, कुमरं अह भणइ पायसंलग्गो। किर अन्भत्थियसारो, सरणागयवच्छलो तं सि ॥ १६५ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जिनदत्तकथिता विजयकुमारकथा । [ १६६-१८१ ] ता एसा पाणपिया, भजा जत्तेण रक्खियता मे । जेऊण वेरिखयरं, अहयं जा एमि अचिरेण ॥ १६६ ॥ किं कायद्यविमूढो, विजयकुमारो वि चिट्ठई जाव । उप्पहऊणं खयरो, ताहे अहंसणं पत्तो ॥ १६७ ॥ एत्थंतरम्मि कयघोरविग्गहो गरुयरोसदुप्पेच्छो । उग्गीरियकरवालो, समुट्ठिओ रक्खसो घोरो ॥ १६८ ॥ पण रे रे तुम्हं, एत्थ महं संतिए मसाणम्मि । को अहिगारो ठाउं, सवं रयणि निरासकं ॥ १६९ ॥ ता भयह किं पि सरणं, अहवा तं कुमर ! निरवराहो सि । पहणेमि इमं खुद्द जंपतो तम्मुहो चलिओ ॥ १७० ॥ ता सुंदरि ! मा बीहसु त्ति भणिऊण धाविओ कुमरो । पारद्धो तेण समं, जुज्झेउं साहसेकरसो ॥ १७१ ॥ अनोनं पहणंता, अक्कोसंता य फरुसवयणेहिं । संपत्ता जा दूरं, तिरोहिओ रक्खसो ताव ॥ १७२ ॥ पडियागओ कुमारो, पिच्छइ तं साहगं विगयजीयं । ताहे विसायविहुरो, पलोयए खेयरिं तेण ॥ १७३ ॥ तंपि हु न जाव पेच्छइ, ताहे अत्ताणयं बहुपयारं । निंदर अहो अणत्थो, रहओ सरणागयाण मए ।। १७४ ॥ धी ! मज्झ वीरवित्ती, गिजइ पडिवन्नपालणं जं च । हा हा की सुववन्नो, अहयं कुलफंसणो पुत्तो ॥ १७५ ॥ एत्थंतरम्मि सहसा, पत्तो विजाहरो भणइ कुमर ! | अप्पिञ्जउ मम दइया, कुलभूसण सुंदरसहाव ! ॥ १७६ ॥ नत्थि परकजतिसिओ, तुह बीओ एत्थ जीवलोगम्मि । जयतुंगरायवंसो, पयासिओ तुज्झ जम्मेण ॥ १७७ ॥ जह जह थुबइ कुमरो, तह तह लोणओ दर्द होइ । न तरह उद्विग्गमणो, किंचि वि पडिउत्तरं दाउ || १७८ ॥ वारं वारं पुच्छंतयस्स कुमरो न जाव पडिभणइ । सो आह तुज्झ कजं, तीए जइ जामि तो अहयं ॥ १७९ ॥ तुम्हारिसस्स पुरिसस्स मह पिया जइ वि जाइ उवओगं । लद्धं जं लहियवं, माकुणसु तुमं विसायं ति ॥ १८० ॥ वोत्तूर्ण उप्पइओ, खयरो कुमरो वि चिंतए ताव । ही ! धिरत्थु पावो, निम्मलकुलदं (कं) सणो अहयं ॥ १८१ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यानम् । सरणागए न रक्ख, विजयकुमारो ति किं न पञ्जतं । जुवईहरणकलंको, जेण कओ मज्झ रे देव ! ।। १८२ ॥ इय गुरुकलंकपंकंकियस्स को मज्झ पेच्छिही वयणं । भमिही तहा जुगतं, भमरउलसमप्पो अयसो ॥ १८३ ॥ अयसेण दूसिएणं, परिभवदङ्केण पियविउत्तेण । जं जीवि लोए, मरणं खु तओ वरं मने ।। १८४ ॥ इय चितिरस्स सहसा, केणइ अद्दिस्समुत्तिणा भणियं । तं विजय ! किं पि कीरह, न होइ एयारिसं जेण ॥ १८५ ॥ को एसो किं च तयं, 'जिन्नासाए त भर्मणं । सज्झायझाणनिरओ, दिट्ठो एगो मुणिवरोति ॥ १८६ ॥ गंतूण पणमिऊण य, उवविट्ठो तस्स पायमूलम्मि | मुणिणा वियतो भणियं, निसुणसु जिन्नासियं कुमर ! ॥ १८७ ॥ वीरउरे जिणदासो, नामेणं सावगी मुणियतत्तो । मित्तो य तस्स अचतवल्लहो ईसरो वणिओ ॥ १८८ ॥ सो अनया कयाई, निक्खतो तावसाण मज्झम्मि । ताहे जिणदासो वि हु, विचितिउं एवमारो ॥ १८९ ॥ अन्नाणिणो वि जड़ ता एवं उज्झति विसयसोक्खाई । विनायभवसरूवो, अहयं ता किं न उज्झामि ॥ १९० ॥ इय चिंतिय पवइओ, सुघोस रिस्स पायमूलम्मि | परिवालियसामत्रो, सोहम्मे सुरवरो जाओ ।। १९१ ॥ मिचो वि वंतरेसुं, उववन्नो तेण ओहिणा दिट्टो | गंतूण निययरिद्धी, निदंसिया बोहणत्थं से ।। १९२ ॥ चितेइ वंतरो सो, अधो लहिऊण माणुस जम्मं । जई जिधम्मं सेविrsहं तया तो सुही हुंतो ॥ १९३॥ एमाइ बहुपयारं, परितप्पिय सुरवरस्स वयणेण । पवित्र सम्मत्तं, सिवसोक्खनिबंधणं परमं ॥ १९४ ॥ दसवास सहस्साइं आउपमाणं च अप्पणो मुणिउं । विभवर सुरं मणुअत्तणम्मि बोहिज मं मित्त ! ॥ १९५ ॥ तियसेण वि पडिवने, उवडिय वंतरो तुम जाओ । एकतवीररसिओ, न मुणसि नामं पि धम्मस्स ।। १९६ ॥ [ १८२-१९६ ] १ जिज्ञासया । २ परिपालितश्रामण्यः । २१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तकथिता विजयकुमारफथा। [१९५-२०५] तो तुज्म बोहणत्थं, माया तियसेण निम्मिया एसा। 'ओहावणं अपत्ता, सुहिणो जम्हा न बुझंति ॥ १९७ ॥ अहयं च एत्थ धरिओ, तेणं चिय तुज्झ बोहणढाए । ता कुमर! कुणसु धम्मं, जेण सुही होइ निचं पि ॥ १९८ ॥ एयं सुणमाणो चिय, जाईसरणेण मुणियनियचरिओ। बुद्धो विजयकुमारो, पवइओ तस्समीवम्मि ॥ १९९ ॥ काऊण य पचलं, सारयससिकिरणनिम्मलं विउलं । जाओ तत्थेव सुरो, जिणदासो अच्छई जत्थ ॥ २०॥ इय सुंदरि! जीवाणं, सुहदुक्खं सबमेव कम्मफलं । तम्हा मा उल्लेवं, करेसु तं रोगसंतसा ॥२०१॥ एवं च अमयरससीलएहि वयणेहि पम्हुट्ठसरीरदुक्खाए रायपुयाए 'अहो दयालुओ महासत्तो कोवि एस, जहा जिणदासेण नियमित्तो सुहमायणीको तहा मं पि सुहिणिं करिउकामो लक्खिजइ. । अहवा एयस्स देसणं पि अकल्लाणभाइणो न पाविति'त्ति भावयंतीए समागया निद्दा । ताहे सणियमुट्ठिऊण जिणयत्तो वि पुवगविट्ठ कट्ठखोडिं नियस[य]णिजे पच्छाइऊण दीवयं च तेल्लपूरियं काऊण खंभंतरिओ खग्गं गहाय अपमत्तो अच्छिउं पयत्तो । अवि य रन्ने जलम्मि जलणे, दुजणजणसंकडे व विसमम्मि ।। जीह व दंतमज्झे, नंदइ अपमत्तयाजुत्तो ॥ २०२॥ ताव निवाइयमुहाए रायकण्णाए वयणकुहरे दिवाओ तणुयचंचलाओ दोषि जीहाओ । तओ किमेयं ति संकिएण दिलृ निग(ग्ग)च्छमाणं सप्पवयणं । अवि य रत्तच्छफडामीमो, कजलपुंजप्पहो अइपमाणो । नीहरिओ कुमरीए, क्यणाओ विसहरो घोरो ॥२०३ ।। एचो भयं ति चिंतंतयस्स कुमरस्स सेजमारूढो। सीसपएस डसिउं, पारद्धो कट्ठखोडीए ॥२०४ ॥ अह करणदक्खयाए, खंडाखंडिं कओ कुमारेण । छूढो सण्ण(ण्णि)हियाए, करंडियाए खणद्वेण ॥२०५॥ तओ 'अच्छेरयं माणुससरीरं सप्पवसहिति विम्हिय विसत्थमाणसो निविट्ठो पल्लंके । अणेगसत्तरक्खाकरणेण कयत्थमप्पाणं मन्नमाणो, पन्नगं च १ भपभावनाममाताः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०६-२१०] जिनदत्ताख्यानम् । २३ सोअमाणो डियो स्यणिसेसं । इयरी वि रोगावहारनिया सुविसत्थं सुविऊण रायंगणुच्छलियतरगंधवनिनाएण विबुद्धा जिणयत्तं पल्लंकनिसनं दट्टण चिंतिउं पवत्ता 'जा पुचि दुक्खेणं, तल्लोवेल्लीए मज्झ वचंती । सा कह निमिसद्धेणं, वोलीणा अज मे रयणी ॥ २०६ ॥ लहुईभूयं उदरं, उच्छाहेणं व संगयं अंग। एसो महाणुभावो, चिट्टइ एवं सुवीसत्थो ॥२०७॥ ता किं पुण एवं ? ति । हुं, जाणिओ परमत्थो. को वि महाणुभावो एसों-ति तुहाए भणिओ जिणयत्तो 'हियए जाओ तत्थेव वडिओ नेय पयडिओ लोए । घवसायपाययो सुपुरिसाण लक्खिजहि फलेहिं ॥ २०८ ॥ तह वि अजउत्तो काऊण पसायं कहेउ मे कुसलकारणं । दढं विम्हिय म्हि असंभावणिजावत्थंतरसंपत्तीए ति । इयरेण भणियं- 'तुह पुनपरिणई एसा. तह वि परमत्थं सिम्वलिगाए निरूवेहि ।' तओ निरूवेमाणीए दिट्ठो सप्पो । संभताए सिम्वलिगं मोत्तूण पुणो विसेसेण पुच्छमाणीए कहिओ सब्भावो । तीए भणियं- 'सामि ! कहं पुण एयारिसस्स उयरमज्झे संभवो होइ ?' जिणयत्तेण भणियं-'आहारवेगुनेण वा पचणीयपउत्तचुनेण वा संभवइ । सुबइ यरामहंसनामो रायपुत्तो पेत्तियभजाए चुण्णं दाऊण दडुरवाहिणा गिहाविओ। पलक्खा य आहारवेगुनसंभवा गंडोक्याइणो । तहा एवं पि संभवह । परमत्थं पुण सब जाणई' ति । अवि य कालम्मि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मभरियाणं । तं नस्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥ २०९ ॥ एत्यंतरे मडयागरिसणनिउत्तेहि विसत्थाणं दुण्हं पि समुल्लावं सोऊण जिणयत्ताकुसलवत्तासवणभीयस्स राइणो निवेइयं जहा- 'देव ! अज जो पसुत्तो कुमरीए समीचे सो जीवई' त्ति । तओ 'अहो सुंदरं' ति भणमाणो गओ तत्थ राया । अछुट्टिओ जिणयत्तेण । तओ सत्थसरीरं कुमरिं दट्टण तुट्ठमाणसेण राइणा समीवे निवेसिऊण भणिओ जिणयत्तो मुणिओ महाणुभावो, सुंदरचरिएहिँ दूरओ तं सि । तह वि हु कहेहि मज्झं, कह अप्पा रक्खिओ तुमए ॥ २१० ॥ . माहारवैगुण्येन वा प्रत्यनीकप्रयुकचूर्णेन वा। २ पैतृकभार्यया। . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिनदत्तस्य सिंहलदेशीय कुमारीपाणिग्रहणम् । [२११-२१५] कह व इमा मम धूया, जाया सहस त्ति चैव नीरोगा । कुमरो भणइ नरीसर !, पुनपभावो तुहं एस ॥ २११ ॥ जं पुण निमित्तमेतं तं कुमरी चैव सीसिही देव ! । अह दंसह नियपिणो, करंडियं सिरिमई कन्ना ॥ २१२ ॥ सर्व्वं पिरयणिवतं, जहट्ठियं साहिऊण रायस्स । पण कुमरी अहयं, जमस्स उद्दालिया इमिणा ॥ २१३ ॥ > जिनदत्तस्य सिंहलदेशीयराजकुमारपाणिग्रहणम् । — तओ इंगियागारकुसलेण राइणा वयणवियारमुणियनिय धूयाहिप्पारण कारियं वद्भावणयं | आनंदिओ नयरलोगो । संपूइओ कुमारो राइणा नागरेहि य । कुमरी वि वेजेहिं पुणनवीकया दिना जिणयत्तस्स । कयं विच्छद्वेण पाणिग्गणं । सब्भावपणयसारे पंचप्पयारे भोए भुंजमाणाण दोष्णं (हं) पि दियेहा बोलिउं पवत्ता । कया जिणयत्तेण साविगा सिरिमई । दंसियाणि चित्तवट्टिगाए जिणाययणाई साहु साहुणीवग्गो य । ताव य सवं पि विणिओइयं भंड, गहियं पडिभंडं | चिंतियं जिणयत्तेण 'वच्चामो सएस' ति । अवि यकिं तीऍ सिरीऍ सुपीवराए जा होड़ अन्नरजम्मि । जाय न मित्तेहि समं, जं च अमेत्ता न पेच्छंति ॥ २९४ ॥ तओ रायाणं अणुन्नविय विओयदुक्खमुप्पा [य] यंतो नायरजणाणं, धूयाविओ य विसंकुलमाणसे राइणा अणुगम्ममाणो, जणणि-जणय विरहतवियं सिरिमई संवेमाणो, कयपूयविहाणो आरूढो जाणवत्तं जिणयत्तो । विसज्जियं च तं आडत्तिगेहिं, पत्तं जलहिमज्झे । ताव य चंचलत्तणओ इंदियाणं, दुन्निवारत्तणओ कुसुमबाणस्स, सिरिमईए रूवलायनेसु अज्झोववनो सेट्ठी । चिंतह य - एयम्मि जीवमाणे न एसा मं इच्छइ । तओ 'महग्घमोल्लं पि वक्खरं पडियं मा उत्तारेसह 'त्ति संकेयपुवं भिन्ना कम्मरा । घत्तियं किं पिरयणीए । जाहे न कवि तुरियं ओयरइ ताहे वरत्ताए ओयरिओ जिणदत्तो । तेहिं वि वरतं छिन्नऊण पेल्लियं जाणवत्तं । तओ जिणयत्तं अपेच्छमाणी परोविया सिरिमई । भणिया सेडिणा - ' मा अद्धिई करेहि, तुह संतियमेव सबमेयं, होहि मम भारियत्ति न य सो मम पुत्तो, अवि य वायमेत्तपडिवन्नगो त्ति' । तीए भणियं - 'ताय ! वाया चेव पुरिसस्स जीवियं । भणियं च - अलसायंतेण वि सजणेण जे अक्खरा समुल्लविया । ते पत्थरटंकुक्कीरिय व न हु अन्नहा होंति ।। २१५ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१६-२३०] जिनदत्ताख्यानम् । तहा- लजिजइ जेण जणे, मइलिजइ नियकुलकमो जेण । कंठडिए वि जीए, मा सुंदर ! तं करिजासु ॥ २१६ ॥ जाण परजुवइमणहरभमुहधणुम्मुक्कलोयणसरोहिं । सीलकवयं न भिन्नं, नमो नमो ताण पुरिसाण ॥ २१७ ॥ ते कह न वंदणिजा, जे ते दद्रुण परकलत्ताई । धाराहय व वसहा, वचंति महिं पलोयंता ॥ २१८ ॥ अनं च-ताकः पुरिसो त्ति भवइ, जाव य सीलेण संजुओ होइ । सीलेण विप्पमुक्को, होइ लहू अकतूलं व ॥ २१९॥ देवहिँ परिग्गहिओ, जइ वि समो होइ भरहनाहेण । तह वि अकित्ति पावइ, पुरिसो परनारिसंगेण ॥ २२० । सबहा बप्पतुल्लो तुम मा एवं भणाहिं त्ति । सेट्टिणा भणियं जाणामि अहमकजं, तह वि य मे वम्महो अभिद्दवइ । . . वम्महसरपहरसजजरेण लज्जा मए चत्ता ॥ २२१ ॥ अस्थि य सुई पुराणे, पंचहिँ पुरिसेहिँ दोवई भुत्ता। जाओ भारदाओ, सा एत्थ महासई लोए ॥ २२२ ॥ ता सबहा किसोयरि ! मा कुण चिन्तंतरं तुमं किं पि । जो हसिररोइरीए, वि पाहुणो सो वरं हसिरे ॥ २२३ ॥ तं उज्झियमजायं, दट्टणं सिरिमई वि चिंतेइ । एएणं चिय नजइ, रइओऽणत्थो मह पियस्स ॥ २२४ ॥ अनं पि अकायवं, इमस्स नूणं न विजए किं पि । सामेण सीलरक्खा, कायवा संपयं तम्हा ॥ २२५ ॥ एवं विचिंतिऊणं, भणियं तुह निञ्छओ मए लद्धो । किं को वि अत्थि अनो, तुज्झ समो गुणनिही भुवणे ॥ २२६ ॥ तई समिहिए सुंदर ! विरहो किं काहिई दुरंतो वि । पडिओ महादहम्मी, दज्झइ को वा वणदवेण ॥ २२७ ॥ नवरं एयपसाया, अम्हाणं एस संगमो जाओ। परमोवयारिणो वा, मयकिच्चं तस्स रहयत्वं ॥ २२८ ॥ एएण कारणेणं, परिवालसु सुहय ! जाव छम्मासं । परओ तह साहीणे, विरहस्स जलंजलि दाहं ॥ २२९ ॥ एवं आसावल्लिं, हियए आरोविऊण सेद्विस्स । पियविप्पओगतविया, परिचिंतइ सिरिमई तत्तो ॥ २३०॥ जि० द. ४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य सिंहलदेशीयराजकुमारीपाणिग्रहणम् । [ २३१-२३९] 'एही कवि दस परिणमइ, गिरिकंदरदलणस्स । जेण सियालु वि अहिलसइ, गुह केसरीसीहस्स ॥ २३१॥ मा सो सुहाई पावउ, निचं दुक्खाण भायणं होउ । काऊण मेलयं वल्लहाण विरहो कओ जेण ॥ २३२ ॥ मोत्तूण हिययनाहं, अन्नं नेच्छामि ताव सुमिणे वि। आवइपडिया वि दढं, रयणियरं महइ किं नलिणी ॥ २३३ ॥ नेमित्तिएण तइया, सिलु तुह पुत्ति ! नत्थि वेहई । - .... जाणामि तेण मज्झं, मिलिही दइओ न संदेहो ॥ २३४ ॥ एवं संमइच्छिया छम्मासा । तओ 'पञ्चासण्णं कूलं ति पयडियं पुप्फवइत्तं, समुत्तिण्णाण य. कम्मयराण मइरं पइच्छिय विसत्थहियओ गओ रायदंसणत्थं सेट्ठी । तओ सिरिमई नियचेडीहि सहिया निययाभरणं गहाय सरीरचिंतानिमित्तमिव पत्थिया, तुरियं च वच्चमाणी मिलिया चंपाउरिगामिणो सत्थस्स । सस्थवाहं विनविय पयट्टा तेण समं । पत्ता चंपाबाहिरियं चिंतिउं पयत्ता साहेमि कस्स दुक्खं, कस्स व वच्चामि संपयं सरणं । दइयय ! तुज्झ विओए, न याणिमो किं पि पाविस्सं? ॥२३५॥ "नियसयणविउत्ताए, पियविरहं दूसहं कुणंतेण । गंडस्स उवरि फोडी, विणिम्मिया मे कयंतेण ॥ २३६ ॥ न जलंति धगंति न सिमिसिमिति न मुयंति धूमवत्तीओ। निहुयाइँ मामि पियविरहियाण अंगाई डझंति ॥ २३७ ॥ आसासिजइ चक्को, जलगयपडिबिंबदंसणसुहेण ।। तं पि हरंति तरंगा, पिच्छह निउणत्तणं विहिणो ॥ २३८ ॥ इमाइ बहुपयारं चिंतयंतीए दिट्ठाओ दोन्नि समणीओ । 'एयाओ ताओ अजउत्तगुरुणीओ सबसत्तवच्छलाओ' त्ति तुट्ठमाणसा गया ताण पिढओ । निसीहियं काऊण पविट्ठा पडिस्सयं । 'अउबा साहम्मिणि त्ति पुवागयाए अन्भुट्ठिया विमलमईए । कयउचिओवयाराए कयसमत्थसाहुणिवंदणा वंदिऊण पुच्छिया य 'कत्तो साहम्मिणि ?' त्ति । तओ बाहजलपञ्चालियगंडयला मबुभरनिरुद्धकंठा परुण्णा सिरिमई । कहिओ वुत्तंतो चेडीहिं । ताहे महुरवयणेहिं संठविऊण भणिया विमलमईए- . जेत्तियमेत्तो नेहों, संतावो सुयणु ! तेत्तिओ चेव । उज्झियनेहं न हु कुंकुमं पि ताविजइ जणेण ॥ २३९ ॥ तेन मध्यम् षण्मासान्तरम् । २ समतिकान्ताः । ३ "बेडामूल्यम्" प्रती टिप्पमकम् । ४ निजस्वजनवियुक्तायाः।.. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्ताख्यानम् । जं त्तीहिं न जुञ्ज, अंगीकरिडं न तीरए जं च । कम्मवसेणं तं पि हु, जीवेहिँ सहिजए दुक्खं ॥ २४० ॥ जेणं चिय संसारो, एरिसदुक्खेहि दारुणो निचं । तेणं चिय कउन्ना, चरंति जिणभासियं धम्मं ॥ २४९ ॥ जारिसयं तुह दुक्खं, सुंदरि ! मज्झं पि तारिसं चेव । ता मज्झ तुमं भइणी, इह चिय निव्वया चिट्ठ ॥ २४२ ॥ [२४०-२४७ ] कहिओ अप्पण वृत्तो । पुच्छियाई साहिन्नाणाई, सवाणि मिलति । नवरं विमलमई भणइ - 'मम भत्ता कणयगोरो आसि ।' सिरिमई भणइ - 'पियंगुसामो' ति । तओ 'बहुरयणा वसुंधर'त्ति भणिऊण दो वि जणीओ जिणधम्मपरायणाओ अच्छिउं पवत्ताओ ति ॥ छ ॥ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्या सह परिणयनम् । इओ य वरतछेयाणंतरं कनीसाहारनियसरीरो खणमुब्बुडणे काऊण जलमज्ये चैव तरमाणो चिंतिउं पवत्तो जिणयतो- केण पुण होऊ छिण्णा एसा रजु ? न तावासंग ( तायासंग १ ) ओ को वि कम्मयरो अत्थि । अनं च - तोयम्मि विजमाणे, एयं को कुणइ निग्विणं कम्मं । जीवंतयस्स फणिणो को णु मर्णि मुट्ठिणा हणइ ॥ २४३ ॥ ता सयमेव कहं चि तुट्टा होही । अण्णं च - सुयणो सरलसहावो, ताओ दुक्खेण धारिही पाणे । काही मज्झ विओए, न याणिमो सिरिमई किं पि १ ॥ २४४ ॥ अहवा किमेtणा पडियाराविसएण ९ पुवकयकम्मपरिणामपरवसेहि संसारजीवेहिं सोढवाई चैव एयारिसाई [एवं ] विचिंते, न उण सेट्ठिविसए संकं धरेइ । अवि य - नियहियय निम्मलाई, सुयणा पेच्छति सवहिययाई । पिसुणाउलं पिवणं, अप्पणयं तेण मन्नंति ॥ २४५ ॥ aa पलोइओ जली | केरिसो ? - जलहत्थिमत्थयाहयहेसिरजलतुरयतसियमयरोहो । गुरुमयरग हियघणसिप्पिसंखगद्दन्भसद्दालो ।। २४६ ॥ गुरुमच्छपुच्छ उच्छलियतुंग कल्लोल भीसणायारो | संसारो व अच्चंतदुत्तरो दिट्टिमोहेण ॥ २४७ ॥ २७ १ मुक्तनिःस्वाधार निजशरीरः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्या सह परिणयनम् । [२४०-२५५ ] तओ चिंतिउमारद्धो, जेष गिरिमुद्धरंति पयरन्ति सायरं नहवलं पि लंघति । तं नत्थि जए वित्थिनसाहसा जं न साहन्ति ॥ २४८॥ एत्यंतरे पावियं पुवभिन्नघोहित्थफलयं । तओ मणहरदइयालिमणसुहलालियमउयसुप्पलंबाहि । बाहाहि तयं फलयं, दइयादेहं व उवगूढं ॥ २४९ ।। एक धीरसहावो, बीयं फलयं मणोहरं पत्तं । सरइ सुविसत्थचित्तो, सीहो अन्नं च पंक्खरिओ ॥ २५० ॥ कत्थइ महल्लकल्लोलपिल्लिओ खलइ विहुमलयासु । कत्थइ समुहागयदरियमच्छसत्थस्स अभिडइ ।। २५१ ॥ अह को वि पुग्नपुरिसो, तरह समुदं ति दट्टमिच्छु छ । अवणित्तु रैयणिजमणिं, सूरो उदयऽद्दिमारूढो ॥ २५२ ॥ , तओ दिसाविभागं जाणिऊण पयट्टो उत्तराभिमुहो । एत्वंतरे दिलो गएणसंठिएहिं दोहिं विजाहरेहिं । 'अहो स्वाइसयपिसुणिजमाणपुण्याभारो को वि महाणुभावो केरिसं अवत्थं पाविओ?" ति सवियकेहि पलोइयाई परोप्परं मुहपंकयाई । पढियं च गरुयाणं चिय भुवणम्मि आवया होति न उण लहुयाणं । . गहकल्लोलगलत्था, ससि-सुराणं न ताराणं ॥ २५३ ॥ तहा-मरुय चिय गरुए भीसणे बि मुझंति न वरमुहवसणे । सूरो विडप्पगहिओ, तह वि य जोण्हं पयासेइ ॥ २५४ ॥ "अम्ह संतियं पओयणं एएणं चेव सिज्झइति तुडा बि सतपरिक्षण सकोवा इव गया समासन्नं । तओ छुरियाए हत्थं दाऊण भणिया शेण-'भो भो! पओयणं कहिऊण एजह ।' तओ आयारभावकुसलेहिं 'महासत्तो को विति तुडेहिं भणियं तेहिं- 'भो महाभाग ! अत्थि अम्ह पओयणं, किंतु न पारिमो एयावत्थगयं भवंतं विनविउं । तो अणुजाणह ताव जेण उत्सारिमो ति । एवं' ति भणिए उत्तारिओ णेहिं । मजिओ महुरपाणिएणं । परिहाविओ महग्धवत्थाणि । ताहे सुहनिसनो भणिओ- 'भो महाभाग ! सुण अस्थि कुबेरदिसाए वेयड्डो नाम गिरिवरो रम्मो । 'निम्मलकलहोयमओ, पुत्वाऽवरसिंधुसंपत्तो ॥ २५५ ॥ • पक्षान्वितः। २ रजनीयवनिकाम् । ३ निर्मलकलधौतमयः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५६-२६५] जिनदत्ताख्यानम् । २९ जस्स य सिहरं गावंत-मतकिभरगणोहसदेण । पम्हट्टनिययकजे, सुरसंघे विचले धरइ ॥ २५६ ॥ जस्स य सेणीजुयले, नमि-विनमिनिवेसियाई रुंदाई। चिहति सुंदराई, सट्ठी पन्नासनयराई ॥ २५७ ॥ विजाहरोहिं पउरं, 'विजाऽऽहरविवजियं अमजायं । मैत्रायजयंतहियं, रहनेउरचकवालपुरं ॥२५८ ॥ झुंजेइ असोगसिरी, चक्की विजाहराण हरिचरिओ । सं नयर नयरहिओ, न य रहिओ जो सुनीईए ॥ २५९ ॥ वेगवइए धूया अंगारवई मज्भसंभवा तस्स । लायण्ण-जोवणेहि, सुरवहुउवहासिणी अस्थि ॥ २६०॥ ... तीसे समाणरूवो, पुरिसो न हि अत्थि खयरलोगम्मि । अइनिब्भरं च वट्टह, तारुनं जणमणाणदं ॥ २६१॥ ता तेणऽम्हे तीए, वरमन्निसिउं समंतओ पहिया । दिट्ठो सि तुमं सुंदर!, अचन्भू(ब्भु)यरूवगुणकलिओ ॥ २६२ ॥ ता तुम्ह पसाएणं, सामी अम्हाण निव्वुओ होउ। आइसह जेण तुम्हे, नेमो तुरियं तहिं नयरे ॥ २६३ ॥ • तओ वेयडदंसणकुऊहलिणा जिणयत्तेण 'एवं ति भणिए, झत्ति नीओ हि असोगसिरिपायमूलं । 'अहो सुंदरो' त्ति परितुट्ठो राया । सम्माणिजो जहोचिओवयारेण । दैसिओ अंगारवईए । तओ सा केरिसा जाया ? उप्फुल्लकमलवयणा, ससेयबिंदू करालरोमंचा। सिदिलियसप्पाबंधा, गलंतधम्मेल्लमल्ला य ॥ २६४ ॥ तओ 'अभिरुइओ' ति मुणियं राइणा। अवि य-जइ वि न हसह न जंपह, निहुयं झाएइ हिययमज्झम्मि । मयणाउरस्स दिट्टी, लक्खिजह लक्खमज्झम्मि ॥२६५ ॥ तओ कारियं विच्छडेण पाणिग्यहणं । गाहिओ विविह विजाओ । विजाहरसिरि अणुहविजमाणो चिट्ठइ । तहा मेरुगिरीनिञ्चलसम्मचो वि मायाए उवासगत्तं पयडेइ । तओ अण्णया भणिओ अंगारवईए - 'अजउच ! मिण्हाहि सावगधम्म, जओ उवासगधम्माओ बहुगुणो एसो' त्ति । भणियं च वैचा-हरवर्जितं वैद्या-हरवर्जितं वैधा-ऽधरवर्जितं वा, भाहरः तस्करः, महर(दे०) आम, अधरा-दुर्जनः । २ अमयापं अमर्याद वा । ३ मद्विाजमान्तर्हितम् । ४ उपासकत्वं बौडवर्षनिस्वम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्या सह परिणयनम् । [२६६-२७.] सीहो व वणयराणं, गिरीण मेरू गहाण चंदो छ । रेहइ उत्तमफलओ, जिणधम्मो सबधम्माणं ॥ २६६ ॥ जिणयत्तेण हसिऊण भणियं- 'सुंदरासुंदरं वियारेण नअइ, ता कहेहि सुंदरि! तुह धम्मे केत्तियाई तत्ताई?' तीए भणियं- 'सत्त जीवाइयाइं ।' इयरेण भणियं'थेवमेयं, अम्ह धम्मे पंचवीसतत्ताई सत्त-रय-तमाइयाई ।' तीए भणियं'अजउत्त! अविचलाई सत्त तत्ताई, परिगप्पणा चेव अहिया । जओ अम्ह धम्मे पंच इंदियाई पंचविसयगाहित्तेण भन्नति, न य अन्नसंतियं विसयं अण्णं गिण्हइ । तुम्मे पुण हत्थ-पाय-उवत्था-हिट्ठाण-ऽवाया(णा १)हि सद्धिं दस परिगप्पह । तं जइ पाया इंदियं तो सीस-पट्टि-पोट्ट-बाह-जंघाओ किं न इंदियाणि भमंति ? किंच पंचवीसहि वि तत्तेहिं एगं जीवतत्तं न सिज्झइ, न य तेण विणा धम्मासेवणसाहल्लं होइ । एवं पुवावरविरुद्धं सवं तुम्ह परिगप्पणं । अण्णं च महापासंडिओ इव अजउत्तो लक्खिजइ । जओ उवासगचरिओ संखदरिसणतत्तेहि मं वेलवइ । बुद्धदरिसणे हि दुविहाई तत्ताई । अलं च तुम्हं जाणगाणं पुरओ तदुच्चरणेण, न य तेसु वि को वि परमत्थो' त्ति । तओ 'अहो कोसल्लं' ति तुडेण भणियं जिणयत्तेण- 'पिए ! मा रूस तुह परिच्छा मए एवं कया । जं पुण तुज्झ पियं तं मए कायवं, ता कुलकमागयं पि बुद्धधम्मं मोत्तूण पडिवनो मए तुह संतिओ धम्मो ति । ताहे हरिसिया अंगारवई । तस्स थिरीकरणहेउं दावेह नंदीसराईसु सासयचेइयाई । चिंतइ य सो मित्तो सो सुयणो, सो चिय परमत्थबंधवो होइ। जो जिणवराणमाणा, धरेइ मालं व सीसेण ॥ २६७ ॥ अण्णया चिंतियं जिणयत्तेण जणणी-जणयविउत्ता, मज्झ विओयम्मि सिरिमई बाला । एत्तियमित्तं कालं, न याणिमो जीवइ न व त्ति ॥ २६८ ॥ .. चारं वारं तइया, भणिओ हं पुहइसेहरनिवेण । मम पाणपियं एयं, बालं जत्तेण रक्खेज ॥ २६९ ॥ वाएण समं पत्ता, सा होही दहिपुरम्मि नयरम्मि । संजोइजउ तुरियं, पडिवण्णसुहावहा सुयणा ॥ २७० ॥ - एवं संपहारिऊण भणिया अंगारवई - 'दइए ! वच्चामो अज दाहिणसमुद्दकूले कीलानिमित्तं । तीए 'एवं' ति भणिए, वेउवियविमाणारूढाई पत्ताई चंपाए उवरि । तओ 'विमलमई दइया किं करेइ ? त्ति पवित्तो सविसेसं पलोइडं। जाव दिट्ठाओ भुवणुजाणे साहुणीसमीवे पढमाणीओ दो वि विमलमइसिरिमईओ । 'सोहणं जाय' ति तुट्टो गओ कीलिउँ । तओ य चिरं कीलिऊण Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७१-२८४ ] जिनदत्ताख्यानम् । ३१ मज्झरत्तसमए पडिनियत्तेण भणिया अंगारवई - 'पिए ! भगवओ वासुपुजस्स जम्मभूमीए निद्यामो यणिसेसं ।' तीए पडिवने तम्मि चेव विमलमईउज्जाणे ओइमाई । तओ जिणय तेण चिंतियं 'सुंदरं जायं मिलियाओ एगत्थ दइयातो, ता एवं पि अंगारवई एएसिं समीचे मोत्तूण पच्छण्णरूवधारी इहेव चिट्ठामि । अवि य - समदुक्ख दुक्खियाणं, मेत्ती तिन्हं पि उत्तमा होउ । पच्छा वि जेण कलहं, एयाओ नेय कुवंति ॥ २७१ ॥ लहूण अवसरं तो, दाहं एयाण दंसणं पच्छा । एवं विचितिऊणं, अंगारवई समुल्लव || २७२ ॥ दइए ! सुबसु विसत्था, अहयं चिट्ठामि जग्गिरो चैव । को जाणs परदेसे, सीलसहावं मणुस्साणं ।। २७३ ॥ सुविसत्थमणा सुत्ता, अंगारवई अनायपरमत्था । इयरो वामणरूवं, काऊणं झति ऊसरिओ ॥ २७४ ॥ अह पच्छिमराईए, अंगारवई विबोहमावन्ना । दयं अपेच्छमाणी, चिंतत्र किं सुविणओ एस १ ॥ २७५ ॥ नहि नहि नूण निलुको, बीहड़ दइया न वचि कलिऊणं । पण तत्तो दयय !, धीरतं कत्थ नारीणं ॥ २७६ ॥ बीमि एहि तुरियं, दिट्ठो दिट्ठो सि नाह! मा लुक्क । पेच्छ पहाया रयणी, अञ्ज वि दूरम्मि गंतवं ॥ २७७ ॥ अनिट्ठरोसि जाओ, परिहासो एतिओ सुहावेइ । थरथरइ मज्झ हिययं, अच्छसि कयलीवणे तंसि ॥ २७८ ॥ जाहे न एइ दहओ, ताहे चितेह हा किमेयं । ति । चत्ता पण किमहं निद्दोसं कीस वा चइही ॥ २७९ ॥ पण जइ अवरुद्ध, दयय ! अण्णाणओ मए किं. पि । . पसिय कहिअउ मज्झं, बीयं चिय तं न काहामि ॥ २८० ॥ आऊण घराओ, मुका एगागिणी इह परसे किं भववित्तो, दइयय ! तं वेरिओ मज्झ ॥ २८१ ॥ किं नाह मज्झ कुविओ, किं वा हरिओ सि अण्णखयरीएं । हा दयय ! कत्थ गओ, रुयमाणी किं न पेच्छेसि १ । २८२ ॥ खणरत्तविरताओ, नारीओ हुंति जीवलोगम्मि । सप्पुरिसाण महायसं ! न हु छजइ एरिसं कम्मं ॥ २८३ ॥ सा पीई सो पणओ, दक्खिणं तारिसं पुरा आसि । eave for किं तं दयय ! काहि अवहरियं ॥ २८४ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जिनदत्तस्य वामनकरूपस्वीकरणम् । हा नाह! तुमे चत्ता, गंतूणं किं कहेमि तायस्स । बुड्डा वयणिजजले, न याणिमो कह तरिस्सामि ॥ २८५ ॥ एमा कलणं रुयमाणी सुत्तविद्धाहिं निसामिया बिमलमह-सिस्मि 'अहो अम् निविसेसा का वि दीणभावमावन्ना लक्खिजर, ता गंतूण संठवेमी सिणियं सणियं गयाओ तस्समीवम्मि संठविया एसा भणियं च विमलमईए - 'अहो मम भत्तुणो वि निग्घिणयरो को वि जो एत्थ मोत्तूण पलाणो । अहवा एरिसो सो चेव' त्ति पुच्छिया वृत्तंतं । कहिओ णाए । सिरिमईए भण्णइ - 'सवं पि घडइ मम भत्तुणो, नवरं जं भणसि 'मम सिणेहेण उवासगधम्मं कुलकमाrयं पि मोत्तूण सावगो जाओ' त्ति तेण अन्नो को चि. जओ अहं मिच्छत्तकद्दमाओ दइएण चेव उत्तारिय म्हि ।' विमलमईए भणियं - 'होउ को वि. किं तेण ? चिट्ठाहि अम्ह चेव समीवे जिणधम्मं कुणमाणी के वि दिणे, पच्छा समयं चैव पवइस्लामो 'ति । · अनं च - दियाइँ दो वि तिन्नि वि, रणरणओ होइ पवि (व) सिए दए । वीसरह तं तह चिय, दंसणसारा हूँ पेम्माई ॥ २८६ ॥ तहा - पियविप्पओगमइयं, कोवसमुत्थं व परिहवकयं वा । जे च्चिय सहति दुक्खं, ते च्चिय सुहभाइणो हुंति ॥ २८७ ॥ किं काही पियविरहो, जिणवरवयणेण भावियमईणं । [ २४५ - २८९ ] पहवंति किं नु फणिणो, गारुडसारं सरंताणं १ ॥ २८८ ॥ एवं संठविया संती 'न जुत्तमेगागिणीए कुलहरगमणं' ति कलिऊण कयविमाणसंहारा गया ताहि सद्धिं साहुणिसमीवं ति ॥ छ ॥ - जिनदत्तस्य वामनकरूपस्वीकरणम् । ओ य जिणयत्तो वि वामणगरूवं काऊण विजामयवयंसपरिवारिओ गंधव कहाणविणोएण नयरीजणं हयहिययं कुणंतो नाऊण कोक्काविओ राइणा । विभाणरंजिएण य कया से दम्मसइगा दिवसवित्ती । अण्णया रायत्थाणे पवत्तो उल्लाबो- 'किरित्थ नयरीए तिनि सुवासिणीओ अप्पाडरूवरूवाओ महासहवयं परिवालयंतीओ चिति न ताओ बलदेव पण्णलायनो वि को वि पुरिसो अत्तणो समुहं नियच्छाविउं बोल्लाविरं हसाविउं वा तरह' ति । ताहे हसिऊण भणियं वामणगेण - 'भो ! एरिसा पंडिया तुम्भे संझन्भरायचंचलहिययासु कामिणी एवंविहं सिंगारं ठावेह ।' अवि य - अंधो नरिंदचित्तं, पाइयकवं च पाणियं महिला । तत्तो च्चिय जंति फुडं, जत्तो घुत्तेहिँ निति ॥ २८९ ॥ १ द्रम्मशतका | Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९०-१९१] जिनदत्ताख्यानम् । ३३ तओ अत्रेण सासूयमिव भणियं - 'रे रे वामणग ! जइ परं तुमं हसावेसि ? तेण भणियं - ' अवस्सं हसावेमि, जइ महाराओ भगइ ।' ताहे सकोउगेण भणियं राहणा - ' एवं होउ ।' संचल्लो वामणगो । तओ पढियं केणावि - कत्तो मरुम्मि सलिलं, हे हरिण ! हयास ! मूढ ! मा वच्च । मायहियाहि नडिया, अन्ने वि मंया मया एत्थ ॥ २९० ॥ तओ अनसुयं काऊण अणेगजणपरिवुडो गओ तमुजणं । साहुणीओ पणमिंऊणमुवविट्ठो नाइदूरतरुच्छायाए । ताव भणिओ पुवसंकेइगेण - 'भो वामणया ! कहेहि किं पि कहाणयं जाव रायकुले अवसरो होइ ।' तेण भणियं - 'काणयं कहेमि, उयाहु बुचतं ?', 'को उण एएसिं विसेसो ?'. 'पुढकालबुतं कहाणगं, थैवदिवसबुत्तो वृत्तंतो जस्स पच्चया वि दीसंति । तओ सबेहि भणियं - 'अलं कहाणएण, सकोउयं वृत्तंतं किं पि कहेहि ।' एयं च ताओ तिनि वि जणीओ नाइदूरत्थाओ सुणमाणीओ चिति- 'अहो ! पिययमाणुरूवा वयणरिद्धि' ति ससिणेहमिव पलोयंति । अवि य - अन्नभवि वि दइए, दिट्ठे वियसंति झत्ति नयणाई । मेहंतरिओ वि रखी, लक्खजह किं न उग्गमिओ ।। २९१ ॥ वामणगेणावि पुत्तलियादंसणाइ कहिओ नियवुत्ततो जाव उज्जाणे मोत्तूण पत्थो चि । तओ भणियं 'अज वि महंतो वृत्तो, कलं कहिस्सामि । एत्थंतरे ' जाणइ मम भणो वत्तं' ति हरिसियाए ईसि हसिऊण भणियं विमलमईए - 'भो महाणुभाव ! सुंदरं कहाणयं मा रसविग्धा (घा) यं करेहि, कहि ताव ।' वामणगेण भणियं - 'निच्चंता तुमं, अम्हे अवसरे जइ न वच्चामो तओ राया वित्तिं न देइ । किं तु जर तुह कोउगं ता पुणरवि सुए आगंतूण कहिस्सामि' चि भणंतो उडिओ वामणगो । पुणो दुइयदियहे समागओ समुद्दपडणपतं कहिऊण थको । तहेव हंसिऊण पुच्छिओ सिरिमईए तमेव भणिऊण निम्गओ । तइयदिणे वि कहिओ अंगारवइमोक्खपतो अंगारवईए वि हसिऊण पुच्छिओ - 'संपयं सो कत्थ चिट्ठइ ?' त्ति । वामणगेण भणियं - 'परमेसरो खु सो, समीवत्थो वि नोवलब्भह । मए वि एत्तियमेव निसामियं तच्चरियं' ति बोचूण गओ वामणगो रायसमीवं । 'अहो विन्नाणं' ति तुट्ठो राया पूओ वामणगो चि । - जिनदत्तस्य रतिसुन्दरीपाणिग्रहणम् । अह रायकरिवरेणं, आलाणं भंजिऊण पारद्धो । तियचउक्क (क) चच्चरेसुं, उवद्दवो सवनयरीए ॥ २९२ ॥ १ मृगा मृता अत्र । जि० द० ५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जिनदत्तस्य रतिसुन्दरी पाणिग्रहणम् । 'खंभाग रिसण निवड तह- देवउलखडहडप्पेत्थो । हाहारखं समंता, करेइ पुरसुंदरीसत्थो ।। २९३ ॥ अह एह कत्थ जामो, एस जमो अह व दाणवो कुद्धो । सुति समंतेणं, नर-नारीणं समुल्लावा ।। २९४ ॥ तं दहूण विसण्णो, राया बजरइ अत्थि भो ! कोइ । जो मयपरवसमिमं करे वसवत्तिणं हत्थि ।। २९५ ॥ भणिएण किं व बहुणा, जो एयं सिंधुरं वसे कुणइ । देमि फुडं तस्साहं, नियधूयं अद्धरअं च ॥ २९६ ॥ जाहे न को वि जंप, वामणगो भणइ देहि आएसं । दिनो ति गओ तुरियं, अन्भासं मत्तहत्थिस्स ॥ २९७ ॥ तह करणदक्खयाए, तत्तो कीलाविओ करी तेण । जहराया जणसहिओ, विणिक्खिउं दाउमारो ॥ २९८ ॥ ठाऊण नाइदूरे, पारद्धं मंजुलं तओ गीयं । नागओ व हत्थी, निचलदेहो ठिओ तेण ।। २९९ ॥ विजुखे (क्खे) तेण तओ, आरूढो झ त्ति हत्थिणो खन्धं । तुट्ठो भइ जणो तो, वामणगो सुरवरो नूणं ॥ ३०० ॥ आसीवायसयाई, सुणमाणो संजमित्तु तं खंभे । रायसमीवं पत्तो, वामणगो पूइओ रन्ना ।। ३०१ ॥ चिंतियं च - कत्थइ गुणा न रूवं, कत्थइ रूवं न चेव गुणनिवहो । विरतण विहिणा, विडंबियं निययविन्नाणं ॥ ३०२ ॥ ताव इवो वामणगो, तिहुयणविम्हावणं च विष्णाणं । देमि नवतिय धूयं नियमणियं को नवा कुणा ॥ ३०३ ॥ जेण भणियं - [ २९३-३०५ ] तं जंपति सुपुरिसा, तं चित्र पमुहे कुणंति पडिवति । रयणाय व वेलं, कालेण वि जं न लंघंति ॥ ३०४ ॥ अनं चेरिसचरिओ, सिद्धो चिय एस कोई संभवह । ठाऊण विवित्तम्मी, एवं चि पुच्छिमो अहवा ३०५ ॥ एवं संपहारिऊण पुच्छिओ वामणगो । तेण वि 'अलंघणीयवयणो गुरु, अवसरो एस' चि कहिओ जहडिओ सबुत्तो । राइणा भणियं - 'बच्छ ! उपसंहर १ स्तम्भाकर्षणनिपतद्धट्ट - देवकुलखटत्कारत्रस्तः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६-३१२] जिनदत्ताख्यानम् । एवं विडंबणं'ति । पडिवनमियरेण । तओ हकारियाओ भारियाओ । भणियाओ राहणा-"एस वामणगो एवं भणइ एयाओ मम भारियाओ हवंति" तं किं सच्चमेयं?ताहि भणियं - 'भत्ता संपुण्णसरीरो आसि, न एरिसो' त्ति । तओ तेण ईसि हसिऊण उवसंहरियं वामणत्तं । पञ्चभिन्नाओ अंगारवइ-सिरिमईहिं । तह वि पच्चयनिमित्तं अंगारवइसहिएण गंतूण आणिओ णेण असोगसिरी पुहइसेहरो य । पुणो सब्वेसि पुरओ नीणिया वण्णपरावत्तिणी गुलिया । तओ पञ्चभनाओ सपरियणाए विमलमईए । भणियं च निहरहियओ अच्चंतनिग्धिणो वयणमेत्तनेहिल्लो । बहुकूडकवडभरिओ, एसो सो पिययमो मज्झ ॥ ३०६ ॥ इम पेच्छमाणो विम्हिओ सबलोगो । एत्यंतरे चंपाहिवेण दिण्णा रइसुन्दरी नियधूया । कयं विच्छड्डेण पाणिग्गहणं । ठाविओ अद्धरजे । पाउन्भूओ चंपाउरीए महाणंदो त्ति । तओ पुहइसेहरं सट्ठाणे पराणिऊण चउहि भारियाहि सहिओ सुहेण अच्छिउं पयत्तो जिणयत्तो त्ति । -~~ जिनदत्तस्य स्वस्थानं प्रति गमनम् ।अण्णया य पेसिया छप्पन्नदविणकोडीसहिया बद्धावगा जणणि-जणयाणं । आगएहि.य सिहं तेहिं जहा- तुज्झ विओए असरीराइं ताई दुहं चिट्ठति । तओ रायाणमणुनविय पत्थिओ वसंतउरं । कहं ? आरूढो धवलगइंदकंधरं धुवमाणसियचमरो । धवलब्भविन्भमेणं, धरिएणं पुंडरीएणं ॥ ३०७ ॥ कयमंगलोवयारो, दाणं 'जम्मग्गिराण वियरंतो। जिणनाहचेहयाई, पूइंतो रयणमालाहिं ॥ ३०८ ॥ पडपडह-संख-काहल-भेरी-झल्लरि-मुइंग-ढकाणं । आरितो विउलं, सद्देण नहंगणाभोयं ॥ ३०९ ॥ संभासेतो सयलं, पुरीजणं दाणवयणदिट्ठीहिं । अणुगम्मतो रण्णा, नयरीओ निग्गओ बाहिं ॥ ३१०॥ कह कह वि नियत्ताविय, रायाणं पउरमंतिपरियरियं । नरनाहनिउत्तेणं, सहिओ सामंतचक्केण ॥ ३११॥ नीसाहारविसजियतुरयक्खु(खु)रुच्छलियबहलरयनियरो। दरियकरितत्थघोडयसंदणकयघणघणारावो ॥ ३१२ ॥ , "रापरिसिणी' प्रतौ। २ सन्मार्गमितृभ्यः । - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य स्वस्थानं प्रतिगमनम् । [३१३-३१३] अण्णोण्णसमुप्पेल्लियपत्तिसमुच्छलियगहिरसिकारों । पासट्ठियदइयाणं, दंसेंतो सेण्णचरियाई ॥३१३ ॥ कत्थइ वेगविसज्जियखलंतनिवडंतअस्सवारोहा । हत्थं परिहत्थेहिं, अण्णयरेहिं धरिजंति ॥ ३१४ ॥ कत्थइ करहारावं, सोऊण तसंति मुद्धमायंगा। मायंगकरुखि( क्खि)त्ता, रहनिवहा कत्थइ पडंति ॥ ३१५ ।। एवं च वच्चमाणो, लंधितो विविहगाम-नगराई । पत्तो थेवदिणेहि, नियनयरं जीवदेवसुओ ॥ ३१६ ॥ वद्धाविओ य जणओ, तुरियं गंतूण केहि वि नरेहि । परिओसियं च दाउं, पञ्चोणीनिग्गओ सो वि ॥३१७ ॥ पिउणो कयप्पणामो, पारद्धो पविसि पुरवरम्मि । नर-नारीनियराणं, संखोहं संजणेमाणो ॥ ३१८॥ कहं ? धावइ का वि अरंजियनयणा, करगयधुसिणअमंडियवयणा । का वि सकंकयमोकलवाली, अवरकरट्ठियकुंडलवाली ॥ ३१९ ॥ उभयकरट्ठियहारमणोहर, धावइ अन्नक पीणपओहर । का वि पहाविय चूडयहत्थी, अवर वि नेउरजुयलविहत्थी॥३२०॥ . अवि यअह एइ एस पत्तो, एत्तो जोएहि देहि मे मग्गं । इय जंपिरतरुणीहि, रुद्धाई भवणसिहराई ॥ ३२१ ॥ धण्णाण इमो दइओ, धन्नो जस्सेरिसाओ भजाओ। पुरजुवइजुवाणाणं, सुर्वति परोप्परुल्लावा ॥ ३२२ ॥ एवं नीसेसनायरजणस्स विम्हयाणंदपूरियाई हिययाई करेमाणो पविट्ठो विविहवंदणमालाउलं रुइरमोत्तियावलीविरायमाणं नियमंदिरं । तओ चिरकालवि. रहविहुरहिययाए समुहमागंतूणमुवगूहिओ जणणीए । तओ वि अणवस्यगलंतबाहबिंदुसंदोहेण जणणिहिययं निबविऊण निवडिओ चलणेसु, तयणुचरो(रा) वहूओ । लद्धा धण्णाउसाणि पविट्ठाणि अभितरं । ताव जिणयत्तेण सम्माणिओ सयणवग्गो-को वि पणामेणं, को वि वायाए, को वि दिट्ठीए, को वि दाणेणं ति । किं बहुणा? काऊण चायभोएहिँ सुंदरं वित्थरेण वद्धणयं । रइया जिणभवणेसुं, विहिणा अट्टाहिया महिमा ॥ ३२३ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..[३१-३३५] जिनदत्ताख्यानम् । तत्तो तिवग्गसारे, भोए मुंजतयाण सव्वेसि । वोलीणो बहुकालो, सुमिणे वि अदिट्ठदुक्खाणं ॥ ३२४ ॥ जाया य तओ पुत्ता, ताण चउण्हं पि जणमणाणंदा । 'तारुण्णपुण्णदेहा, कालेणं ते वि संजाया ॥ ३२५ ॥ जिनदत्तस्य धर्मोपदेशश्रवणम् । -- अह अनया कयाई, विहरतो आगओ तहिं नयरे। निम्मलनाणचउको, सुहंकरो नाम आयरिओ ॥ ३२६ ॥ सोय केरिसो ? मंदरो इव खमाधरो राया असोगाउलो य, सायरो इव सारतरंगो बहुभंगगंगालिंगिओ य, संकरो इव सबाणीसंगओ उत्तमविसाहिडिओ य, गोविंदो इव गोवालसेविओ विगयवाहणो य त्ति । अवि य हंसगई घणनाओ, वम्महरूवो समुदगंभीरो। ससि-सूर-सोम-तेओ; सुरगुरुबुद्धी य सो भयवं ॥ ३२७ ॥ : तस्स य वंदणवडियाए निग्गओ सवसामग्गीए जिणयत्तो । वंदिऊण य विहाणेण, सग्गा-ऽपवग्गपावणप्पवणेण धम्मलाभेण आणदिओं निविट्ठो नाइहरे । तओ सजलजलयगंभीरभारतीए पारद्धा भगवया धम्मदेसणा । अवि य जर-मरण-रोगतविए, संजोय-विओयदुक्खपडिहच्छे। संसारे जीवाणं, एको नरवर! हिओ धम्मो ॥ ३२८ ॥ धम्मेण धणसमिद्धी, संजुत्ता होइ चाय-भोएहि । आरोग्गसुहसमेयं, धम्मेण य आउयं दीहं ॥ ३२९ ॥ धम्मेण रायरिद्धी, धम्मेण य सग्ग-मोक्खसंपत्ती । किं बहुणा धम्मेणं, लब्भइ हियइच्छियं सद्धं ॥ ३३० ॥ पंचमहत्वयमूलो, धम्मो कहिओ तिलोयनाहेण । अहवा चउप्पयारो, नायबो दाण-सीलाई ॥ ३३१ ॥ दाणं गिहत्थधम्मे, मूलं सीलं च साहुधम्मम्मि । मूलपरिवालणाए, जत्तो सेसेसु कायबो ॥ ३३२ ॥ दाणेण होति भोया, सीलेण य होइ बंधवोच्छेओ । तव-भावणाहि झिजइ, बहुजम्मसमजियं कम्मं ॥ ३३३ ॥ इयमाइवित्थरेणं, कहिए धम्मस्स पवरमाहप्पे । लद्धावसरो पुच्छइ, जिणयत्तो मुणिवरं नमिउं ॥ ३३४ ॥ भयवं! केण कएणं , पत्ता एयारिसी मए रिद्धी । चत्वारि भारियाओ, थेवं थेवं च तह दुक्खं ॥ ३३५ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य धर्मोपदेशश्रवणम् । [३३६-119) अक्खाओ पुवभवो, गुरुणा दाणं च जह पुरा दिन्नं । जेणऽह संकाविरई,निबंधणं अंतरायस्स ॥ ३३६ ॥ उववूहिओ पहेणयहत्थाहिं तह य चउहिँ कन्नाहिं । अणुमइफलेण ताओ, जायाओं तुज्झ जायाओ ॥ ३३७.॥ एयं सुणमाणाई, पंच वि जाईसराणि जायाणि । संजायपच्चयाई, तह त्ति वंदंति मुणिनाहं ॥ ३३८ ॥ सुणिऊण इमं सवं, संपत्तो विम्हयं नयरलोगो । जंपइ अहो महंतं, माहप्पं दाणधम्मस्स ॥ ३३९ ॥ जिणयत्तो वि विचिंतइ, नूणं अइमूढमाणसो अहयं । जइ दिट्ठपञ्चओ वि हु, धम्मम्मि न उजमं काहं ॥ ३४०॥ अहवा किं बहुएणं, अणवजं लेमि अज्ज पवजं । अन्नह जरजजरिओ, होहं सोयस्स आवासो ॥ ३४१ ॥ एवं संपहारिऊण पणमिओ णेण भगवं । भणियं च भयवं ! संसारसरे, संखुत्तो विसयविसमपंकम्मि । होज निहणं गओ हं, जइ तुह पाए न पेच्छंतो ॥ ३४२ ॥ ता एस जणणि-जणए, अणु जाणाविय करेमि साहल्लं । .. तुह पयमूले मणुयत्तणस्स वरधम्मगहणेण ॥ ३४३॥ तत्तो देवाणुपिया!, अहासुहं मा करेहि पडिबंधं । इय गुरुणा संलत्ते, वंदिय नयरं अणुपविहो ॥ ३४४ ॥ चलणेसु निवडिऊणं, भणियाई तेण जणणि-जणयाई। अणुजाणह लेमि वयं, सुहंकरगुरुस्स पयमूले ॥ ३४५ ॥ सोऊण असुयपुवं, दुम्मियहियएहिँ तेहिँ पडिभणियं । मा लवसु पुत्त ! एयं, दुहावहं अम्ह हिययस्स ॥ ३४६ ॥ अंधलयजटिकप्पो, एको चिय पुत्त ! अम्ह संजाओ। ता परिवालसु सुंदर !, जावम्हे जीविमो ताव ॥ ३४७ ॥ जिणयत्तेण भणियं सोऊण नरयवासे, विसयविवागुब्भवाइँ दुक्खाई। न तरामि ताय ! ठाउं, खणं पि खुत्तो विसयपंके ॥ ३४८॥ दुक्खाइँ दुरंताई, असंखसंखासु तिरियजोणीसु । पेच्छंतयस्स तायय!, संसारे मे धिई नत्थि ॥ ३४९ ॥ १ जाताखवायाः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५०-३६२] जिनदत्ताख्यानम् । सइरोग-सोगपउरे, संपत्ति-विवत्तिहुंतपरियत्ते । माणुसभवम्मि तायय!, को जाणंतो रई कुणइ ॥ ३५०॥ साहीणो अपवग्गो, सग्गो वा जिणवरिंददिक्खाए । गिहवासपासबद्धो, तरामि न हु अच्छिउं तम्हा ॥ ३५१ ॥ जे जे पेच्छसि जीवे, ते पुत्ता तुज्झ गंतसो जाया। न य तेहि तुज्झ तायय !, साहारो संपयं को वि ॥ ३५२ ।। सको सबस्स पिया, सबो सबस्स बंधवो आसि । सबो वि मित्त-सत्तू, संसारेऽणोरपारम्मि ॥ ३५३ ॥ पुणो अम्ब-ताएहि भणियं अइदुकरं खु पुत्तय !, सामन्नं होइ सुणसु खणमेकं । केसुप्पाडो भिक्खा, अन्हाणऽणुवाहणत्तं च ॥३५४॥ भूमीसेजा मलिणं, वरत्तणं तह परीसहा विविहा । अइसुकुमालो सुंदर, खणं पि सोढुं न पारिहिसि ॥ ३५५ ॥ जिणयत्तेण पवुत्तं, अम्मो! अचंतदुक्करं तस्स । जो नरयवेयणाओ, तिरिक्खदुक्खं व नो मुणइ ॥ ३५६ ॥ जह गुरुवाहिविणडिओ, किरियं अइदुकरं सुहावेइ । संसारदुक्खतविओ, तह पवजं सुहावेइ ॥ ३५७ ॥ ~ जिनदत्तस्य दीक्षाग्रहणपूर्वकं वर्गमनम् ।इय लद्धनिच्छएहि, मायामित्तेहिँ सो अणुनाओ। दाऊण महादाणं, काउं महिमं जिणगिहेसु ॥ ३५८ ॥ सुपसत्थम्मि मुहुत्ते, तणए जणयस्स ओगणित्ता णं । भामित्तेहिं समं, पवइओ गुरुसमीवम्मि ॥ ३५९ ॥ तओ-पढियं विचित्तसुत्तं, चिन्नं छट्टऽट्ठमाइ तवमुग्गं । विविहाहि भावणाहिं, अहोनिसं भाविओ अप्पा ॥३६०॥ अणवजं पवजं, सुइरं परिवालिऊण जिणभणियं । संलेहणाकमेणं, कालं काउं समाहीए ॥ ३६१ ॥ उववनो कयपुनो, अच्छरगविसंकुले विसालम्मि । सुरलोयतिलयभूए, महाविमाणम्मि सुहकलिए ॥ ३६२ ॥ केशोत्पाटः। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य दीक्षाग्रहणपूर्वकं स्वर्गमनम् । [३६१-२०१ वसिऊण सुही तहियं, चुओ समाणो महाविदेहम्मि । लण कुले जम्मं, कयधम्मो पाविही सिद्धिं ॥ ३६३ ॥ जिणयत्तचरियमेयं, नियमइविहवेण तुम्ह वजरियं । संखेव - वित्थरेणं, जह कहियं पुरीहिं ॥ ३६४ ॥ पुलिया विसेसो, दीसह जो एत्थ कत्थई कोइ । तस्सइओ च्चिय भाओ, पयासिओ वित्थरेणेत्थ ॥ ३६५ ॥ अहवा मइदोबल्ला, ऊण-हियं किं पि जं मए भणियं । खमियां विउसेहिं, सोहेयवं च निउणेहिं ॥ ३६६ ॥ F आसी असेसमेइणिअस्संतभमंत कित्तिपब्भारो । सिरिनेमिचंदसूरी, पाडिच्छयगच्छकप्पदुम ॥ ३६७ ॥ चंदो व अमयमुत्ती, सूरो इव सत्तपी संपन्नो | सिंधु व विविहरयणोवसो हिओ नीरसहिओ य ॥ ३६८ ॥ जो सो उत्तमगुणरयणविलनिद्दोसको सभ्रएहि । सिरिसवदेवसूरीहि ठाविओ उत्तमपम्मि ।। ३६९ ॥ तस्स विएण इमं, बहुभव विबोहकरणतिसिएण । सुमइगणिणा विरइयं, जिणयत्त महारिसीचरियं ॥ ३७० ॥ जाव जिणवीर तित्थं, वित्थरउ इमं पि ताव भरहम्मि | उपाय सुयणाणं, आणंदं वीरवयणं व ।। ३७१ ॥ कहिऊण इमं चरियं, पुनं जमुवज्जियं मए किंपि । लहु पुन - पावमुका, सोयारगणा तओ हुतु ॥ ३७२ ॥ छ ॥ ॥ जिनदत्ताख्यानकं समाप्तम् ॥ ॥ ग्रंथाग्रं ॥ ७५० ॥ छ || मंगलं भवतु पाठकस्य ॥ छ ॥ संवत् १२४६ वर्षे श्रावणवदि ६ गुरावद्येह श्रीमदणहिलपाटके श्रावकरांवदेवेन निजपितृव्यः (व्य ) श्रेयोर्थ श्रीमदरिष्टनेमिचरितं जिनदत्तकथासमं लिखापितं पुस्तकं ॥ छ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयं जिन दत्ताख्यानम् । नमिऊण[जिण]चलणजुयलं असुरसुरखयरवंदियचलण । सुरइंदरइयपूयं मिच्छत्तविणासणं पवरं ॥१॥ तह गणहरआयरिए उवझाए साहुणो नमंसित्ता । पोच्छं दाणस्स फलं पुवायरिएहि [जं भणियं ] ॥२॥ [......... ] नो अडविं व दर गुहं समुदं वा । नंदति तहिं तहिं सो जिणदत्तो जह य कयपुन्नो ॥३॥ ~ जिनदत्तस्य पूर्वभवकथाया वर्णनम् । - तत्थ को सो जिणदत्तो ? अस्थि अवंतिणाम-जणवओ धणधनसमाउलो निचपमुइयजणो । तत्थ उजेणी नाम न[यरी । ........"ना ]म राया । पउमसिरी नाम महादेवी । ताई बिसयसुहमणुहवमाणाई रजधुरं च अणुपालंताई चिट्ठति । इओ य पउमपुर नाम पट्टणं । तत्थ सिवधणो नाम वणिओ । असमती नाम भारिया । [ सिवदेवो नाम पुत्तो] । इओ प अभया कालन्तरेण महतीए सिरवेयणाए मओ सिवधणो । नित्तियाई मयकिचाई । ताव य सुहकम्मक्खएणं असुहकम्मोदएणं, चंचलत्तणजी ये लच्छीण, गयं असेसं दई खयं । [..............." ] ताह वासाण पुरओ सकए पेसत्तणं काउं। तथा च - पुरिसेसु कलावियक्खणेसु संदेहपोच्छणिजेसु । पवसंतेसु मएसु य ते देसा सुन्नया होति ॥ पुग्नेहिं होइ अत्थो अम्हं पु [ ण.............." 1] [" ] दृण विहवकिरणे रवि व सो चेव अत्थमिओ॥ २ अणुहरइ विओओ रोरवस्स तह संगमो वि सग्गस्स ।। एकेणं चिय सुयणेण सगू(ग्ग)णरया समप्पंति ॥ ३ मा सो सुहाई पावउ निचं दुक्खाण भायणं होउ । [प. १. २] काऊण मेलयं वल्लहाण विरहो कओ जेण ॥ जि० द०६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जिनदत्तस्य पूर्वभवकथाया वर्णनम् । गयकण्णचला लच्छी मुणालदलतंतुपेलवं जीयं । चिंतेह चिंतिय दप्पणछायं समं पिम्मं ॥ ५ तओ जसवईए चिंतियं तेण विणा न तीरए पाणधारणं काउं । - चिंतेइ [य] - जा [ उ ] अभग्गमाणं जीविजति ताव जीवियं सहलं । परिहवपरिमलियपयाव[ग]स्स भण किं व जीवेणं ॥ उज्झति निययजीयं तिणं व माणंसिणो न उण माणं । लब्भति पुणो व (वि) जीयं माणं पुण महलियं कत्तो १ ॥ अन्नं च - भत्ता महिलाण गती भत्ता सयणं च जीवियं भत्ता । भत्तारविरहियाओ वसणसहस्साइ पार्वति || छणु परियणु वद्धावणउं जं जं कज्जु पहाणु । कंतिं विणु असुहावण दी सइ नारि मसाणु || [ ५- १३ ] ता गच्छामो उज्जेणिं ति । तत्थ गयाण दो वि भविस्संति इहलोगो परलोगो य । जओ भणियं - धम्मत्थकामरहिया जे दियहा निद्धणाण बोलेंति । १० जदि ते वि गणे विही, गणेउ न हु एरिसं जुत्तं ॥ तओ तं दिक्करगं गहाय गया उज्जेणिं । ठिया एगं वाणियगं समासाइऊण । लाइओ दिकरगो वच्छवालचणए (ते ?) ण । सा वि तस्स गेहे कम्मं कुमाणी चिट्ठति । इओ य वच्छगणं वाहिं सिवदेवेणं मणनिहियलोयणो पलंबबाह उद्धड्डाडिओ तवसुसियदेहो किं पि झाणं झायमाणो दिट्ठो महातवस्सी । तं पेच्छिऊण सुहकम्मोदरणं जाव [प. २. १ ] अहो महातवस्सी एस । उक्तं च- तणसंथारनिवन्नो वि मुणिवरो भट्टराग-मय-मोहो । ...... जं पावर मुत्तिसुहं कत्तो तं चकवट्टी वि ॥ वीतरागः सुखं शेते पतितः कण्टकेष्वपि । रागी न लभते निद्रां पट्टतूलीष्वपि स्थितः ॥ तओ चिंतिऊण वंदिओ सविणएण, पमजिया से चोलियाखप्पडएण नियचलणया । थिओ थेवं वेलं । एवं दिणे दिणे बंदति, पञ्जवासेह, चिंतेह इमं - महापुन्नवंतो एस। अवि य - अक्खंडिय वयनियमा गुत्ता गुतिंदिया जियकसाया । सज्झायझाणनिरया निचंसुतिमुणिवरा होंति ॥ ११ १२ १३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४-२२] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । - ता एसो कस्स वि महापुनवंतस्सेव गेहे पारणयं करेइ । को एत्थ महाकल्लाणभायणो अत्थि ? तो सो वि वंदणीओ भविस्सइ । जेण ऊसरि वावइ जो अबुहु कउ वि जु वि पावेइ । हारइ सो धणु अप्पणउं जो निस्सीलहं देइ ॥ रिसयह विसयविरत्ताहं वयधारहं नियमेण । . दाणु सुपत्तेहिं देहु जणा बहुगुण लब्भइ जेण ॥ १५ तओ वंदिउं गओ वच्छवालो सगिहं । तम्मि य दियहे माहपुन्निमाए भामेइ लोगो पहेणयाइं बम्भणाणं सोतासिणीणं च । आणिया य बहुएहिं जसवतीए सोयासिणीहि मंडया । पेसियो महाकाओ सामिणा मंडओ।।। इओ य तम्मि चेव दिवसे तस्स महाणुभावस्स रिसिणो पारणगदिवसो जाओ । तओ आगमविहाणेण पविट्ठो नयरिं । जाव [प० २.२] पइट्ठो अचुप्पबयाए विसुद्धकम(म्म )सुहपायववीयभूओ वणियकुमारस्स जसमईए घरम्मि । दिट्ठो य पप्फुल्ललोयणेण सिवदेवेण । . अनं च-जेण न किंचि वि कजं तस्स वि घरमागयस्स जे सुयणा । निउणं पहरिसवयणा नियसीसं आसणं देति ॥ १६ पत्ते पि य पाहुणए किं काही दुग्गओ तुरंतो वि। .. अन्धो मलिएहिँ वि लोयणेहिँ अन्धो चिय वराओ । १७ उप्पाइऊण सुयणं सामनधणं हयास ! रे देव!। इच्छा विउला तुच्छा य संपया कीस निम्मविया ॥ .. अहो मे भागधेजाणं अन्ना मे सुहपरिणई ! अहो मे मणुयजम्मस्स सफलया! अहो मे एस महालाभस्स संपायणत्थं खीणो अत्थो ! ता किं बहुणा ? पत्तं जं पावियई । अवि य एयाइँ ता. चिरचिन्तियाइँ तिनि वि कमेण पत्ताई। साहुस्स समागमणं संतं च मणप्पसाओ य ॥ काले थेवं दिजउ माऽकाले बहुं (बहुययं) पि देजाहि । न हु एगदिवसवुट्ठोदएण निप्पजए सस्सं ॥ काले उवणिजंती थेवा वि महोसही जियावेति । अमयरसमीसिएण वि मयस्स किं लावयरसेण ॥ दाणोवभोगपरिवजिएण दवेण किं त्थ किवणस्स। लद्धेण वि नत्थि गुणो पक्ककविद्वेण कायस्स ॥ .. २२ पाई। २१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जिनदत्तस्य पूर्वभवकथाया वर्णनम् । [२३-३०] का पुग्नवंतो हं जेण मम [प० ३. १] गेहे अज भूमी महातपस्सिरितिचलणेहिं अकंता । जाणामि अजेव दाणं विभवो, ता पडिलामेमि सविभवणं । 'जेण-अणवरयं पि व(उ) देंतो को वि नरो होति विविहरिद्धिल्लो । निचं चिय संचंतो कोइ सया दुक्खिओ चेव ॥ २३ दाणस्स नत्थि नासो आहम्मिय(ऍ) हम्मिए य दिनस्स । आहम्मिए अहम्मं धम्मं पुण धम्मिए होइ ॥ २४ सओ हरिसेणाऊरिजमाणहियएण उवाइयं कूरस्स मल्लयं । दिनं तस्सऽद्धं । मा जणणी अंबाडिस्सइ ति तओ न दिन्नं सर्व । तओ उचाइयं पायसस्स मल्लयं, दिनं तस्स वि अद्धं । दिना सकरापगब्भा पुणो दो मंडया। एत्यंतरम्मि समागया सबरसपुन्ना थाली । तओ चिंतियं-अहो मे धन्नया।। भणिओ य जणणीए- 'वच्छ ! वच्छ! एयं पि देह एयस्स महाणुभावतवस्सियो। भणियं च-अणुदियह दिन्तस्स वि झिजंति न सायरस रयणाई । पुनक्खएण खिजइ धणरिद्धी न उण चाएण ॥ २५ तओ पवड्डमाणसुहमाणसेण ढोइया रिसिणो । भणियं च रिसिणा- 'धम्मसील! संपुजति मम एएण ।' तह वि य निवडिउं चलणेसु गहाविओ कवलमत्तं ति । तओ वंदिओ विणएण । तत्थ य पहेणय घेत्तूण आगयाहिं दिट्टो चाहिं कुमारियाहिं । ताहिं अभिनंदिओ सिवदेवो । भणिओ य- 'वयंस ! [प० ३. २ ] पुनवंतो तुम, जेण तए एस रिसी पडिलाभिओ।' पढियं च ताहि जिणचलण[ कमल ]सेवारएहिँ गुरु-साहुभत्तिजुत्तेहिं । पाविजहिँ पुरिसेहिं बालय ! विउलं महारजं ॥ जे पूयंति कयत्था साहुजणं नियविढत्तदवेणं । ताण सुलद्धी जम्मो सफला ताणं च धणरिद्धी ॥ ते होंति सुराहिवई सुइरं भुजंति तत्थ सोक्खाई । तत्तो चुया समाणा पुणरवि पूयारिहा होति ॥ चोद्दसरयणाहिवई नाहो मणुयाण सुरसहस्साणं । दाणेण होइ चक्की सामी छक्खंडभरहस्स ॥ वररूय-सत्त-संपय-गुणवया दरियसत्तुनिट्ठवणा । बलदेव-वासुदेवा वि भवन्ति सुपत्तदाणेणं'। १ "वि न शिजति सायरस्स' प्रतौ। २ 'तत्तो य चुया' प्रतौ। ३ 'देषा भवन्ति सुपरदिखदाणेणं' इति प्रतौ। ३० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१-३५] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । एत्थंतरम्मि निग्गओ साहू । ताओ य सुइरं बहुमन्निऊण गया सभवणेसु । दारगो वि जिमिओ । तं चेव भावेमाणो ठिओ कं पि वेलं । जाव नियया. उयक्खएण मओ केण वि कालन्तरेणं । ~ जिनदत्तस्य जन्म-परिणयनादिकथाया वर्णना।इओ य वसन्तपुरे नयरे जीवदेवइन्भस्स जीवजसाए भारियाए महाओवाइअसयाई पयच्छमाणाणं उववन्नो कुंच्छिसि पुत्तत्ताए त्ति । जाओ य नवण्हं मासाणं साइरेगाणं । जाओ महालक्खणधरो । कयं से नामं जिणदत्तो ति। तओ वड्डए देहोवचएण कलाक [प० ४.१] लावेण य । जाव गहिया बाहत्तरिकलाओ । न य इच्छइ परिणेउं । तओ सिणेहेण माया-वित्तेहिं छुढो दुल्ललियगोट्ठीए । तओ आराम-काणणुजाण[ ......]पाविओ वेसाण घरेसुं च आयय[ णेसुदीहियासु य तित्थेसु महापहपत्तेसु आढत्ता हिंडावेळ पेच्छणयसयाइं पेच्छमाणा गन्धवगीयवाइयसिंगारवे( वि? )यारपरियरिया, जाव देवउलपइटेणं अउच्चदंसणीयं सवंगावयवसुंदरं पुराणनिकुट्टियं दिटुं जुवहरूवं । तं च केरिसं ? - भेत्तूण मयणदेहं मसिणं मुसुमूरिऊण अमएण । चित्तकलाकुसलेणं लिहिया नूणं पयावइणा ॥ निरूनि(वि)या य सुचिरं जिणदत्तेण । अवि य ससिणेहवियसिरिसरायमुहो(?) पसंतदिट्ठीए । पियइ व कयंजलिउडो आसायंतो तयं रूवं ॥ - कि मे इमिणा निरत्थएणं जम्मेणं समसुहसुहियं समदुक्खदुक्खियं समसमेहसम्भावं एकं पि माणुसं जस्स नत्थि । सो किं न मरइ ? ति । ता जइ एरिसरूवं रह व सुंदरं न पावेमि ता किं निरत्थएणं इमिणा जम्मेण मे कजं? भणियं च-धम्म-ऽत्थ-काम-मोक्खाण जस्स एक पि नत्थि जियलोए । किं तेण जीविएणं किं तेण व नन्दपुरिसेणं ॥ [प० ४.२ ] ३३ ......................"तिन्नि वि एयाई तरुणजोग्गाई।। निरइसयाई ताई च जस्स सो उत्तमो इहई । ३४ ताजदि कामसेवणं कीरति तो एरिसरूवातिसयकलिएणं तह कीरति वो.... .................. न चेच्छया । मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य न भुक्तं न विशोषितम् ।। एवं चिंतेमाणो नियत्तिओ गेहं । गहिओ मयणावत्थाहिं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ........ ॥ जिनदत्तस्य जन्मपरिणयनादिकथाया वर्णना। [३६-४२] पढम महुरासायं पच्छा हिययं रसेण वा[सेइ] । [मारेइ विसं विणु ओसहे ] ण पेम्मं परायत्तं ॥ वरि मरणं मा विरहो विरहो दूमेइ अंगमंगाई। एकं चिय वरि मरणं जेण समप्पंति दुक्खाई॥ एवं चिंतेमाणो पडिओ पल्लंके । आढत्तो म............ । हारो चंदणपंकुजलो वि जलदो य सीयलो वाऊ । विरहग्गितावियस्स य अहिययरं कुणति सो दाहं ॥ गंधवं कन्नसुहं नेच्छइ से महुरयं पि सोउं जे । कामरइराग....." ३९ ............................. । विसयविमोहियचित्तो मन्नइ सुन्नं व अप्पाणं ॥ गविट्ठो जीवदेवसेद्विणा । दिट्ठो पल्लंके ठिओ । पुच्छिओ य- 'वच्छ ! किं बाहए ? तेण भणियं-'न किंचि ।' चिंतियं सेट्ठिणा-.........[प० ५.१] ..................................................। विरहवियारा सुकुलुग्गयाण हियए समप्पंति ॥ ४१ तओ पुच्छिया वयंसया । कहिओ जहोवलद्धो वुत्तंतो । सेहिणा चिन्तियं ता लजा ता माणो ताव... .........."सहिओ, पेम्मपिसाओ न लंघेइ ॥ ४२ तओ भणिया वयंसया- 'संवासेह कुमारं, करेउ आवस्सयाइ(1) संपाडेमि से हिययं(य)समीहियं । गओ य जीवदेवो..........." ......"रिसिओ चित्तएणं - 'भो ! सुंदररूवे अणुराओ कुमारस्स, ता जइ कह वि एव(योरूवधारिणी माणुसी कुमारी हवेचा ता संपाडेमि सा, जइ वि रायकन्नग त्ति । ता तं......................................................................... यस्स गेहे कयोवयारेण गहियासणेण य. भणियं सेट्ठिणा-'सोहणं निबत्तियं आययणं तुब्भेहि, ता अम्हाण वि जाया तारिसाययणकारवण.......... ................"रूवं तं पुण न जाइ(रि)सयं पयावइणा निम्मविउं(य) ति । सिप्पिएण भणियं - 'भो! पयावइनिम्मियं चेव, अम्हाणं पुण हत्थलक्खणं'ति । सिविणा भणियं.............. ....." [५० ५.२] सिप्पिएण- 'मया चंपागएण विमलसेद्विधूया कनगा दिट्ठा । तीए रूवसंपयाए भो सेहि ! न मया सहस्संसो रुवस्स संपाडिउं सकिओ।' तओ आणंदिओ सेट्ठी । पुच्छिओ य(अ)सेसवुत्तंतं । दाऊण पारिओसियं चित्तगरस्स गओ सभवणं सेट्ठी । चिन्तियं च Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३-४९] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । ४७ तूरतेसु न सका अत्थो विजा य रायलच्छी य । हियइच्छिया य भजा सत्तूण य विप्पियं काउं॥ ४३ कहिओ वुत्तंतो से भारियाए । तओ हरिसाऊरियहियएहिं दोहि मिलिऊण लिहावियं जिणदत्तपडिच्छंदयं गहाय पेसिया वरया । पत्ता य तहिं । दंसिओ विमलसेहिस्स लेहो पडिच्छंदओ य । दिट्ठो य आसन्नट्टियाए कनयाए जिणदत्तपडिच्छंदओ । निरूविओ य सविसेसं । तओ गहिया मयणाए (ण) । अवि य जाईसराइँ मन्ने इमाई नयणाइँ लोयमज्झम्मि । जं पढमदंसणे चिय मुणंति सत्तुं व मित्तं वा ॥ ४४ जइ वि न हसति न जंपति निहुयं झाएइ निययहिययम्मि। मयणाउरस्स दिट्ठी लक्खिाइ लक्खमज्झम्मि । पेच्छइ अलद्धलक्खं दीहं नीससइ सुन्नयं हसइ । जंपइ य अपुवत्थं तह हियए संठियं किं पि ॥ ४६ पढियं से सक्खियाए लग्गो सि कोति गहो ऊससियंग ति किं न लक्खेहि । [प० ६.१] मा विलवि(व)उ अणिबन्धं वेजघरे निजउ वराई ॥ ४७ निरूविऊण य सेटिणा रूवाइसयं, रूवाओ कलाइसओ चेव, पडिच्छिओ रूवातिसएण। जत्थाकिई(इ) तत्थ गुणा जत्थ गुणा तत्थ संपया वसति । संपयसहिया पुरिसा कं सोक्खं जं न पावंति ?॥ ४८ तओ दिना हियएण तस्स । लद्धो कुमारीए अहिप्पाओ । वरिया य तेहिं । दिन्ना य सबहुमाणं तस्स । गया वरया। वद्धाविओ य जणओ । कइवयदियहेहिं आणिओ जिणयत्तो । परिणिया य पसत्थे तिहिकरणजोए । कहाणयविसेसेण नि(नी)या य सगिहं महाविभूईए जिणदत्तेणं । अच्छइ तीए सह विसयसुहमणुहवंतो । ता उच्छ्रगामे वासो सेयं वत्थं सगोरसा साली । इंट्ठा य जस्स भजा पिययम ! किं तस्स रजेण ?॥ ४९ ~ जिनदत्तस्य धूतप्रसक्तिवर्णनम् ।अन्नया य मणागं जाया सिरवेयणा जिणदत्तस्स । तओ आढत्तो कीलाविणोओ । जाया य तत्थेव रती । तओ आढत्तो जूएणं खेल्लिङ, जाव जायं वसणं । आढत्तो खेल्लिउं अणवरयं ति, जाव हारिओ सत्तकोडीओ । मग्मिओ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जिनदत्तस्य द्यूतप्रसक्तिवर्णनम् । [५०-५६ ] भंडारिओ । तओ भंडारिएण चिंतियं- बहुयं दविणं हारियं ति, ता कयाइ अंबाडेसह सामी, ता पुच्छामि ताव । तओ विक्खेवं किं पि काउं निसिद्धा जायगा । तओ सयमेव [ ० ६ २] मग्गिओ विमलमईए भंडारिओ । जोष ऽत्थ कडियाओ तिनि कोडीओ । तओ तेण चिंतियं - बहुयं कड़ियं दवं ति, न णाम किंपि भणिस्सइ सामी । ता किं पिव (वि) क्खेवं काऊण पुच्छामि । तओ किं पि भणिउं निसिद्धो ताव । तओ जिणदत्तेण चिंतियं काले जमिह दिजति जं च न दिजइ य मग्गमाणस्स । दुक्खेण जं च दिजति तं बहुसरिसं अदिन्नस्स || भणिउं जाण न दिइ बहुयं भणिऊण दिजए थोयं । कालो जत्थ गमिज ते तिनि विसज्जिया लोए ॥ ता भो ! पेच्छ, एत्तिएणेव कड्डिएणं धणेणं धरिजति मम धणं ति । इच्छा जं पडिवन्नं सुहयं थेवं पिप ( ब ) हुतु | माह भंग जइ पुहति, तो वि न लेयण जुत्त ॥ गिरिवरमन्दरेसरसो ताव नरो होइ जीवलोयम्मि । परिभवसंकारं देहित्ति न जंपए जाव || यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमान् लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ तओ चितियं जिणयत्तेण - ५३ ता किं इमिणा गुरुपरंपरागएणं पराहीणेणं अहिमाणखयकारेणं अत्थेणं ! ति । ता कुलहरं पराणिऊण विमलमई, ता गच्छामि कहिँ पि दविणोवजपणं ति । तथा च 1 ५० ५१ ५२ जलहिविसंघडि वि निवसिजति हरसिरम्मि [ ० ७ १] चंद्रेण । जत्थ गया तत्थ गया गुणिणो सीसेण वुज्झति ॥ ५५ तओ उवसंघरियं जु ( जू ) यं । अच्छए विमणसो । कहियं च भंडारिएण सामी- सामिणीणं । तेहिं भणियं - 'असोहणं कथं जं निवारियं, संपयं जहामग्गियं देह' ति । चिन्तियं च सेट्टिणा - मइलिज जेण कुलं जेण जसो जेण विहडर पयावो । न समायरंति कजं तं वीरा मरणसमए वि ॥ ५६ हक्कारिऊण भणिओ जिणयत्तो सेट्ठिणा- 'वच्छ ! किं इमिणा सिडूजणगरहिएण जूयवसणेणं ? ति ता इमिणा दद्वेणं करावेह जिणाययणाई, जिणपडि १ " जुत्तो सरिसो' प्रतौ । ५४ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ५४+६०] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । माओ, ताणं च पूयाओ, देह दीणानाहाण महादाणं । किं इमेण जूएणं' ति। जिणयसेण भणियं- 'न पुणो रमिस्सामि ।' -~जिनदत्तस्य विमलमत्या सह श्वसुरगृहे गमनम् । दिट्ठो विमणसो विमलमईए वि परिमुक्कनिययवावारो । तओ नायं तीए महिओ रोदिमाए एसो महाणुभावो । न सहति माणिणो माणभंगं । पंढियं च ताए अवि मरति धुरालग्गो संचुन्नियसंधिबन्धणो धवलो। न य पामरस्स वि रहे आरासंघट्टणं सहति ॥ अवि उड्डे चिय फुटृति माणिणो न य सहति अवमाणं । अत्थवणम्मि य रविणो किरणा उडे चिय फुरंति ॥ ५८ थेवं पि माणमलणं न य विसहति माणिओ मरंतो वि। .. अत्थं पियं [प० ७. २] सएसं सुसामियं झ ति छड्डेइ ॥ ५९ तहा वि णियनयरगमणवक्खेवेण वीसारेमि एयस्स सोयं । तओ भणिया निययमहंतया-'विसजावेह अजउत्तसहियं मम' ति । तेहिं भणियं- 'एवं' ति । तओ विसजावियाई दो वि सेट्ठिणा समालोचिऊण वइयरं । महाविभूईए नियपुरिसे सहाए दाऊण पेसियाइं दो वि जणाई । जिणदत्तेण चिन्तियं-सोहणं जायं अणुकूलं । तओ गयाइं जाव य कहाणयविसेसेण पत्ताई चंपानयरिआसनमणोहरुजाणं । तओ भणिया नियपुरिसा जिणयत्तेणं- 'भो भो ! नियत्तह तुन्भे । तओ उवरोहसीलयाइ त्ति काउं पेस( सेइ ? )त्ति अम्हे एस । ता एवं करेमो । तओ सपच्छयणा णियत्ता ते । ताई च पविट्ठाई नयरीए । बहुमनिओ जिणयत्तो ससुरवग्गेणं । ठिओ कइव[य] दियहे । .. ~ जिनदत्तस्य श्वसुरगृहादन्यत्र गमनम् ।. अभया कीलत्थं निग्गयाई उजाणं । तत्थ केण वि छलेणं वेसपरावत्तिणियाए परावत्तिय वेसं ऊसरिओ जिणयचो । तेहिं च महापवंचेहिं गविट्ठो, न य दिट्ठो । तओ महाविरहवेयणाभिभूया महामाणसदुक्खेण पीडियसरीरा अवदुहट्टाई चिंतेमाणा अच्छइ विमलमई । किं च एक्केण विणा पियमाणुसेण सम्भावनेहमइएण । .. जणसंकुला वि पुहती अबो रण्णं व पडिहाइ ॥ १ पठितं मनसीत्यर्थः। जि० द०७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जिनदत्तस्य श्वसुरगृहादन्यत्र गमनम् । [ ६१-७०] ६१ ६३ अन्नत्थ पिओ अन्नत्थ गेहिणी बन्धवा वि अन्नत्थ । भूयबलि व कुडुम्बं विक्खित्तं कह कयंतेण १ ॥ अणुवतिणी विणीया सीलवई निच्चकालगुणरता । हा न हु जुजइ दयय ! मोत्तूणं एक्कियं [१० ८.१ ] इहहं ॥ ६२ पत्तिय कुविओ वि परं सुयणो च्चिय संजणेइ आणंद । जलहरमलो विससी कुमुयवणं किं न बोहेर || जड़ ता जाएज पुणो कम्मविहाणेण माणुसे लोए । raastar चिय मरेज मा मे पिओ होजा ॥ जोइस सह सपरिवारिओ वि घेप्पइ ससी विडप्पेण । बहुपरियणेण वि जए निस्सामन्नाइँ दुक्खाई || सयणे परिभूयाओ दोहग्गकलंकदूसियाओ य । भत्तारदेवयाओ नारीओ होंति लोयम्मि ॥ दिट्ठे तुमम्मि नरवर ! अण्णो हियए ण ठाइ मह पुरिसो । अहिमयरं मोत्तूर्ण को दइओ होइ नलिणीए ॥ ६४ ६५ ६६ ६७ अह वा किं एएणं निरत्थविलव (वि) एण । जेण - जर-मरण-वाहि-रोग-रय-मल - किले सबहुलम्म संसारे । नत्थि सरणं जयम्मि वि एकं मोचूण जि[ण]वयणं ॥ ૬૮ ता एत्थ द्विया चैव पविसियवयं चरमाणी चिट्ठामि उज्जाणे । विमलमईए संपाडियं जहासमीहियं ति । चिंतियं च - असरिसविहंगपयपंति मंडियं पेच्छिऊण कमलवणं । मुकं माणस भरिएहि माणसं रायहंसेहिं || मेल्लिज्ज हंस ! सरं कत्तो वासो परम्मु दे (दे) वे । जाव न ठवे अम्हं कायपयो मत्थर चलणं ॥ ७० जिणयत्तो वि उखाणाओ निग्गंतूणं गओ दहिपुरं नाम नयरं । तत्थ हिंडतो दिट्ठो दरिद्दसत्थवाहेण । तस्स य महाकाओ अणेयवणस्सहसंकुलो आरामो अस्थि । सो न फुल्लति । [ १०८.२ ] सो 'विसिट्ठाकिई' काउं पुच्छिओ सत्थवाहेण - 'भो भो ! जाणसि किं फलोवायं ?' तेण भणियं - 'जाणामि ।' पढियं च तओ रुक्खाउवेयं । तओ दंसिओ जाव विदिना डो (डा) हलगा, फुल्लाविओ फलाविओ य । तुट्ठो य सत्थवाहो गंहिओ पुत्तत्तेणं । नीओ घरम्मि । मजिओ, कराविओ भोयणं (ण) विहिं सिणेहेणं । बहुमाणेणं दियहा वच्चति । अन्नया चिंतियं जिणयत्तेण - " ६९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ [७१-८१) द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । अहलाई [ ताइँ ? ] दुरुढल्लियाई धम्म-ऽत्थ-कामरहियाई । जनकरहयाइँ गयजोवणस्स हियए खुडुकंति ॥ धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्सव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥ तम्हा तावऽम्हाणं धम्मो चिय नत्थि दाणरहियाणं । कामो अत्थेण विणा अत्थो वि न दीसए अम्हं ॥ अत्थस्स उवाया [पुण ] दिसिगमणं होइ चित्तकरणं च । नर वह ]सेवाकुसलत्त[ णं] च माणप्पमाणेसु ॥ धाउचाओ मन्तं देवयआराहणं च केसि च । सायरतरणं तह रोहणम्मि विण्णाण वाणिजं ॥ ७५ नाणाविहं च कम्मं विज्झ(जा)सिप्पाइँ णेगरूवाई। अत्थस्स साहणाई अणिदियाइं च लोयम्मि ॥ एवं चिंतिऊणं भणिओ [सत्थवाहो]- 'ताय ! गच्छामि सिंघलदीवं । अमंच-[५० ९.१] जे चिय भमंति भमरा ते चिय पावंति सुरहिमयरंदं । मन्दपरिसकिराणं होइ रई लिम्बकुसुमेहि ॥ अकमागया वि लच्छी दीसइ भुयणम्मि साहसधणाण । साहसरहियाण पुणो निया वि लच्छी पराहुत्ता ॥ गिरिसुद्धरंति पयरंति सायरं महियलं पि लंघंति । तं नत्थि जए वित्थिण्णसाहसा जं न कुवंति ॥ ~ जिनदत्तस्य सिंहलदेशे प्रयाणम् । - तो तेण वियाणियाहिप्पारण भणियं- 'एवं होउ'त्ति । संजत्तियं पवहणं । पउणीकया आढ(ड)त्तिया । गहियाई इतरतीरजोगाई विविहभंडाई । तओ भंडं घेषण कहाणयविसेसेण पत्ता सिंघलदीवं । आवासिया एकम्मि महापरे । तम्मि य सपुत्ता थेरी परिवसइ । सा य केरीसा सीसं पलियं पलित्तं(वलितं? )थाणंतर (थणंतरं) विगलिया मुहे देता। कंपति दो वि हत्था तह वि मण(णे) जोवणं वहति ॥ चिंतियं जिणयत्तेण ऊसेण विणा विशु पाणिएण संजोयजत्तिरहिएणं । एमेव कहवि जरधोइयाए निकारियं सीसं ॥ 'सयपुत्ता' प्रती। ७७ - - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य सिंहलदेशे प्रयाणम्। [८२-८९] तं जि मुहुल्लड तं जि सिरु, ताई जि लोयणुलाई । नाइ 'बिहीसी संचरइ, दिन्नउ पाउ जराए । भणिया जिणयत्तेण- 'जणणी तुमं मज्झ ।' इओ य तम्मि नयरे महारायकन्ना [प० ९,२] महावाहिगहिया । तीए य सरूवं-जो [ए]ईए आसन्नो सुयति सो य मरति । तओ परिचत्ता लोएहि । राइणा कराविओ बाहिं पासाओ । पडिबद्धं च सवं नयरं 'एक्केणं सोयएणं गंत, तीए समीवे ।' एवं वच्चइ कालो । जावागओ तीए थेरीए पुत्तस्स वारा(र)ओ। कहियं मज्झत्थेणं । तओ रोविउं पयत्ता थेरी । दिट्ठा जिणयत्तेण, पुच्छिया य। कहियं ताए । चिंतियं जिणयत्तेण । अवि य सयलम्मि वि एत्थ जए ते पुरिसा जे परं न पत्थंति । जे य पहु-मित्तकज्जे तणं व मन्नंति अप्पाणं ॥ भदणतरु व सुयणा फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा।। तह वि कुणंति जणाणं उवयारं नियसरीरेणं ॥ सो य(उ)वयार जु अग्गिलउ, चिंति एगमणेणं । जो पुण कियति पडिक्कियति, रिणु छिज्जइ किं तेण ! ॥ हुँति परकजनिरया नियकजपरम्मुहा फुडं सुयणा । चंदो धवलेइ मही न कलंकं अत्तणो फुसति ॥ अन्नं च जस्स न गेहंति गुणा सुयणा गोट्ठीएँ रणमुहे सुहडा। नियजणणिजोवणुल्लूरणेण जाएण किं तेण ॥ ८७ तओ रुयमाणी भणिया जिणयत्तेणं- 'माए ! मा रुयसु, अहं पि ते पुत्तो । ता अहं गच्छिस्सामि त्ति । [प० १०.१] तीए भणियं- 'पुत्तसरिसो तुमं पि, तेण, मम ता दोण्ह अच्छीणं ता कवणं फोडेजा ? ।' तहा वि निबंधेणं बहुप्पयारं भणियं इच्छाविया तेण । तिणलग्गम्मि समदिएण, ओसबिंदुसमेण । जइ जसु लब्भइ जीविएण, तो मुइयह अद्धेण ॥ ८८ तणलग्गम्मि समदिएण पवणाहयउदयविंदुसरिसेण। जइ जीएणं विढप्पइ थिरो जसो किं न पजत्तं ॥ ८९ भणिया वुड्डा- 'करेह संपत्तीफलसमालहणाई। तओ व्हाओ कयबलिकम्मो समालद्धो कुसुमकय...' 'माणो परिहियदिवंसुओ सवालंकारऽलंकिओ वसुणंदखग्गवावडकरो विजाहरकुमारो व पयट्टो नयरमज्झेणं । दिट्ठो राइणा पासा विभीषिका' प्रती टिप्पणी । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९०-९२] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । यदिएण नयरलोएण य । तओ राइणा पुच्छिओ आसन्नपरिवारो-'भो! को एस अउव्वरूवधरो? भयवं कामदेवो कत्थ वा पत्थिओ? त्ति । तओ कहियं लोएहिं- 'कुमारिभवणे वासुगो' ति । तओ चिन्तियं राइणा- 'हा धिरत्थु ! मे जम्मस्स, धिरत्थु ! कन्नगाए, जेण ईइसा लोगदुल्लहा पुरिसा याति । ता देव ! [ कहं ? ] तुमे एवंविहं रयणं उप्पाइयं ति । पढियं च दो पुरिसे धरउ धरा अह प० १०.२] वा दोहिं पि धारिया धरणी। उवयारे जस्स मती उवयरियं जो न संफुसति ॥ अह वा भवियत्वं मज्झ केणावि अउच्चपावफलेणं तेण एवंविहा कन्नग त्ति पादुभूया। ता हे महाणुभाव ! अत्तणो महाणुभावेण रक्खिजउ अत्तणो सरीरं ति । तओ निरूविओ गच्छन्तो य बहुवेलं जाव अदरिसिणीहओ । तओ गओ राया बहुयाई अट्टदुहट्टाइं चिंतमाणो जाव पत्तो सभवणं । तत्थ वि य तस्सेव रूवावयवमणुभावमाणो चिट्ठति । सो वि पत्तो पासायं । चिंतियं च तेण-किं पुण एवं जं रायधूयासगासं सुत्तो मरति ? ता किं एस दिवपओगो ? किं वा एयाए चेव कण्णगाए को वि पओगो ? किं वा घरंगओ को वि एस उवसग्गो ? अहवा जो होउ सो [ हो ] उ। सहसा खयंकरीयं अणत्थदंडस्स अग्गला परमा । अवराहिणं पि सहसा रक्खति अपमत्तया पुरिसं ॥ अप्रमत्त-सुसम्बद्ध-गुणदोषानुयायिनः । दिशो निरीक्षमाणस्य नास्ति जागरतो भयम् ॥ ता अप्पमत्तेण मया अप्पा रक्खियबो, निरुवेमि किंचि उवाय, निरुवेमि घरं । तओ निरूवियं बाहिं गंतूण घरं जाव न किंचि दिळं आसंकाथामं ति । तओ बीयभूमीए चडिओ । तत्थ निरूविया दिवकण्णगा महावाहिगहिया । [प० ११.१] तओ आलत्ता तेण । सो वि य तीए । निसण्णो य तयासण्णे विरइयपल्लंके । आढत्तो बोल्लावेउं । जाओ कुमारीए तस्सुवरि बहुमाणो । निन्दियं च अत्ताणं । आलावसंकहाहि प(य) ठियाई थेववेलं । आढत्तं कुमारेण कहाणयं महुराए हिययपल्हावणीए वायाए, जाव महावाही(हि)पीडियाए वि मणागं वयणमेयं कण्णेहि पलिस्सायमाणीए आगया निद्दा । कुमारेण आणिया हेट्ठाओ खोडी' । मुक्का पल्लंके । पाउरिया पाउरणेण । थिओ अप्पणा अभितरदीवे आयड्डियखग्गो खंभंतरिओ निरूवमाणो चउदिसं ति । जाव महतीए वेलाए सुहपसुत्ताए कन्नगाए निवाइयमुहविवराए घोरमाणाय(ए) दिट्ठाओ , 'सहसा खयंकरी एयं' प्रतौ। २ काटखण्डः। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जिनदत्तस्य सिंहलराजकुमार्याः पाणिग्रहणम् । [१३] तणुयाओ वे जीहाओ पपमाणीओ' । तओ जाया से आसंका, थिओ चैव संकमाणो, जाव दिट्ठ मुहाओ निग्गच्छमाणं सप्पमुहं ति । तओ नायं - एयाओ सयासाओ भयं ति । जाव अवलोइउं आढतो पासेसु पन्नगो, न दिडो छाहिं अंतरिओ जिणयत्तो । तओ ससंको नीसरिउं आढतो जाव निग्गओ सध्वो । अवयरिओ कुमारिपल्लंकाओ । आरूढो कुमारपलंके । आढत्तो सिरपएसे किल दसिउं जाव, ताव करणदक्खयाए कुमारेण कओ अट्ठखंडाई पण्णगो । [ १० ११.२] उवसंहरियं खग्गं । छूढो तीए चेव आभरणकरंडियाए पन्नगो । ओसारिया खोडी । निसन्नो पलंके । परिसमाणियमहासमरभरो व गहिओ वि(वी) सत्थिमाए । नयरयारजणसूयगेण य आनंदिओ वयणेणं । सा वि निग्गयवाही परमनिहुई ( इं ) गया सुविऊण वीसत्थवि सिह महुरगन्धवरवाऊरिमाणसवणविद्धा । जाओ ससंभवं (मं ?) मणम्मि तोसो । आढत्ता चितिउंअहो किमेयं सहसा समुब्भूयं ? जओ 'अयगओ मे वाही सरीराओ, जायं मे लहुयं उयरं, गहियाई उच्छाहेण अंगाई, सो महाणुभावो वि सत्थो चिट्ठति । ता एयस्स एस पहावो, न अन्नो एत्थ वियप्पो ति । ता पुच्छामि एयं 'किमेत्थ तत्तं ?' ति । तओ सविणयं सबहुमाणं समहुरवयणं च पुच्छियं 'सामि । किमेयं ?" ति । कुमारेण भणियं - 'सामिणि! तुमं न जाणसि ' कुमारीए भणियं - 'नाह ! नाम, तह विय विसेसेण नाउमिच्छामि ।' कुमारेण भणियं - 'जइ एयं (वं) ता समलिगाए' तत्तं अच्छइ, निरूवेह एयं ।' ततो ससंभंताए निरूविया य तीए जाव सहसा 'सप्पो सप्पो' त्ति भणमाणीए मुक्का । तओ धीरविया कुमरेण'धीरा धीरा होहि, एस सो सरीरद्रोहगो दुरायारो वाही, कओ विगयपाणो तुज्झ कल्लाणेहिं ।' कुमा [ १० १२.१ ] रीए भणियं - 'कहं चिय ?' तओ कहिओ वृत्तो । तं च सोऊण आनंदिया सुइरं हियएणं । कुमारीए बहुमणिओ'सामि ! को तुमं मोत्तूण अण्णो उवायकुसलो धीरो महाणुभावो परोवयावच्छलो पडिवन्ननिरउ' त्ति । जेण - हियए जाओ तत्थेव वडिओ नेय पयडिओ लोए । ववसायपायषो []पुरिसाण लक्खिजति फलेहिं ॥ ९३ कुमारेण भणियं - 'मुद्धे ! तुज्झ चैव पुन्नप्पहावो' ति । तओ थियाई विसिकाए थेववेलं | - जिनदत्तस्य सिंहलराजकुमार्याः पाणिग्रहणम् । - इओ य राणा महाणुभावदंसणु (णू ) सुएण पेसिया गवेसगा - 'भो भो ! गवेसह को संतो तस्स महाणुभावस्स वट्टति ?' गया य ते । सुओ य जंपंताणं १ प्रकम्पमत्यौ । २ छायायाम् = दीपकपश्चाद्वर्तिनि तमसीत्यर्थः । ३ अपगतः । ४ करण्डिकायाम् । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९४-९७] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । सहो । वद्धाविओ राया- 'जीवइ सो महाणुभावो ।' तओ आगओ सतोसंराया। अन्झुडिओ कुमारेण । निसन्ना दो वि । पुच्छिओ य राइणा शरीरपउत्ती। दिट्ठा य पहट्ठलोयणा कुमारी तणूदरा य । तओ पुच्छिओ कुमारो- 'भो महाणुभाव! सुहं वसिओ रयणीए तुमं?' कुमारेण भणियं- 'तुम्ह पसाएण सुहे' ति । राइणा भणियं- 'भो ! कुमारी अज सोहणच्छाया दीसति. ता नायं मए 'महाणुभावो तुमं. तुम्ह प्पहावेण एवं सवं' तहा वि कोउगेणं विसेसेणं जाणिउं इच्छामि, ता किमेयं ?' ति । कुमारेण भणियं - 'सामि ! कुमारी पुच्छह ।' तओ [प० १२.२ ] पुच्छिया रायपुत्ती । कहिओ असेसवुत्तो तीए. दंसिया 'सामलिगा। तओ आणंदिओ राया । तओ बहुमनिओ कुमारो- अहो! . छंदं जो अणुयत्तइ मम्मं रक्खइ गुणा पयासेइ । सो नवरि माणुसाणं देवाण य वल्लहो होति ॥ ९४ तओ राइणा समइच्छिओ साहुकारेण । समादिटुं नयरे वद्धावणयं । आगओ पउरलोगो । पूइओ य साहुक्कारेण । चिंतियं कुमारीए । अवि य वयणिजं चिय मरणं होइ कुसीलाण सयणमज्झम्मि । जं पुण मरणं सा कालपरिणई लोयसामण्णा ॥ अहं एएण विकमबलेण जिणेऊण गहिया, मज्झं पि एवं वजिय अण्णस्स पुरिसस्स निवित्ती । भणियं च सो चिय कीरति मित्तो जो चिय पत्तम्मि वसणसमयम्मि । न हु होइ पराहुत्तो सेलसिलाघडियपुरिसो व ॥ ९६ राइणा दिणं पारिओसियं ति । पडिच्छियं किं पि सेसमेत्तं कुमारेण । परिक्खिऊण राइणा इंगियाइं, नाऊण कुमारीहिययं जहा 'पडिवन्नो कुमारीए कुमारों । किं च दिढे दइयम्मि जणे निहुयनिरंभंतहासओमीसं । अंतग्गओ वि नेहो नयणपलोए चिय कहेइ ॥ ९७ ता एवं चेव उचियं । उत्तमो सवेसि पि एसो । ता ममावि एवं चेव उचियं' ति । तओ दिना राइणा लोयपचक्खं कुमारी कुमारस्स । तेण विकाऊण बहुमाणं पडिच्छिया । संभोजिया य वेजेहिं जाव जाया पुणण्णवा । तओ पसत्थे हिं] तिहि-करण-मुहुत्तेहिं परिणीया य जहाविहवेणं । अच्छंति [५० १३.१] पंचप्पयारं विसयसुहमणुहवंताणि जाव विणिइयं सत्थवाहसंतियं भंडं ति । चिंतियं जिणयत्तेण१ करण्डिका । २ विनीतं दूरीकृतं विक्रीतमिति यावत् । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य श्रेष्ठिप्रपञ्चेन समुद्रपतनम्। [९८-१०२] नियमंडलं चयंता पडंति तुंगसणं न पार्वति । सयलजणे हसणीया हुंति नरा थेरिथणय छ । ९८ जेण- किं ताएँ सिरीए पीवराएँ जा होइ अन्नदेसम्मि । जा य न मित्तेहिँ समं जा य (जं च) अमित्ता न पेच्छति ॥ ९९ पियमित्तविरहियाणं जा लच्छी होइ अण्णदेसम्मि । अचंतसुंदरा वि हु न कुणइ मणनिव्वुई तह वि ॥ १०० तओ विसज्जाविया राइणो कण्णगा एकवीसकोडीमोल्लालंकारेणालंकियदेहा । पूजिऊण कुमारं, दाऊण य बहुयं दत्वं, दासचेडीजुयलयं च पेसियं । कुमारेण वि कया सा जिणधम्मपरायणा । दंसियं साहुणिनेवच्छं । तओ पुच्छिय महाराय जणणिं च आरोवियसयलदवो सपरिवारो चडिओ कुमारो वणियबोहित्थे । दिण्णो य अग्यो । पुणदंसणं भणियं भणिय नियत्तो राया। ~ जिनदत्तस्य श्रेष्ठिप्रपञ्चेन समुद्रपतनम् । - इयरेहिं पि वाहियं जाणं । जाव पत्तं समुद्दमझे, ताव चंचलत्तणओ इंदियाणं, अनिरूवियकारित्तणओ विसयाणं, उवलुद्धो रायधूयाए उवार सेट्ठी । चिंतियं च तेणं-जाव एस जीवए न ताव मं एया इच्छइ ति, ता उवाएण वावाएमि त्ति । तओ भिन्ना नियपुरिसा- 'जइ कोइ वक्खरो पडति ता मा उत्तारेसह तुम्हे, महग्यो भारमोल्लो वि । तेहिं भणियं- 'एवं' ति । तओ पत्तियं किंचि महग्घमोल्लं भंडं ति । हाहारवो कओ। तओ भणिया कुमारेण [प० १३. २]'भो भो आडत्तिया! उत्तरउ कोवि ।' तीए (तेहिं ) भणियं- 'कोऽभिपलियाए चियाए अत्ताणयं खिवति ?' कुमारेण भणियं - 'अहं ओयरामि, ओयारेह वरतं ।' तओ ओयारिओ वरत्ताए । छिन्ना असिधेणुए वरत्ता सेट्टिणा । गओ महावेगेण बोहित्थो थेवं भूमिभागं । आढत्ता उवलभेउं रायधूया । अक्खिओ वुत्तंतो'मया एसो वावाइओ' त्ति । तीए भणियं- 'तुम्भे चेव पहाणा एत्थ। किंच जं जंपंति सुपुरिसा तं चिय पमुहे करेंति पडिवनं । रयणायर व वेला कालेण वि जं न लंघति ॥ १०१ अन्नं च पडिवन्नं जं च कुलुग्गएहिं, तं जंमह वि न वीसरइ । सब्भाउ समप्पइ तइय पर, जइयहं जीविउ नीसरह ॥ १०२ . १ पुनदर्शनं देयम् इत्येवंरूपां भणिति भणित्वा। २ रहसि भणिताः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३-११५] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । ता तुम ससुरो, अकरणीयं च मिणं सुकुलजायमहिलाणं । भणियं सेडिणा सामिणि ! सुण विण्णत्तिं दासो हं पाययाण ते निचं । तुज्झ चलणप्पसाएण देवि ! मह जीवियं होजा ॥ १०३ जाणामि अहमकजं तह वि य मे वम्महो अहिभवेति । वम्महसरपहा(प्पह ? )रजजरेण लज्जा मए चत्ता॥ १०४ ता मे कुणसु पसायं सुरयं अणुहवसु ता तुमं सययं । पायाण निच्चकालं सुस्सूसकरा (रो?) [तुहं ? ] होह (हं?)॥१०५ अत्थि य सुती पुराणे पंचहिँ पंडवेहिँ दोमती भुत्ता । जाओ रहदीसाओ [प० १४.१ ] सा जाय सहस्सई नाम (१) १०६ भणियं च ताए पावो पुणो इमो धम्मो (?) जइ तुब्भं एरिसाइँ वस॒ति । ससुरो सुहाहि समं अहिरमति अहो अमजायं ॥ पुणरवि भणियं अहह कह ताण सोक्खं न साहसं साहसेकरूयाण । परिणामविरस[ मइ वाहिराण विमुहं मणं जाणं ॥ १०८ जाण परजुवइमणहरभमुहाधणुमोक्कलोयणसरेहिं । सीलकवयं न भिनं नमो नमो ताण पुरिसाण ॥ माय व परकलत्तं जो मन्नइ कंचणं कयारसमं । जीवेसु य कुणइ दयं सो पुरिसो जंगमं तित्थं ॥ लजिजइ जेण जणे मइलिजइ नियकुलक्कमो जेण । कंठट्ठिएण जीए मा सुंदर! तं कुणिजासु ।। जइ वि अहं परिचत्ता सुइणे वि अलंघिया परनरेणं । नत्थि महं अन्नवयं मोत्तूण पइचयाभावं ॥ ११२ 'हा हियय! किं विसरसि रूवं दट्टण परकलत्ताणं ।। पावेण नवरि लिप्पसि पावं पाविहसि तं न [पुणो ?] ॥ ११३ अवि चलइ तियससेलो पायालपवद्धदूरमूलो वि । न वि चलइ सईण मणं मणयं पि हु मरणकालम्मि ॥ ११४ मोत्तूण निययनाहं अन्नं नेच्छामि ताव सुइणे वि । आवइपडिया वि दढं रयणिकरं महइ किं नलिणी ॥ ११५ जि० द०८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जिनदत्तस्य श्रेष्ठिप्रपञ्चेन समुद्रपतनम् । [११६-१२५] -- अन्नं च सीहह केसरु सइहि उरु, [प० १४.२] सरणागउ सुहडस्स । : मणि मत्थइ आसीविसह, न वि छिप्पति अमुयस्स ॥ ११६ ता मा एवंविहं भणेह, बप्पतुल्लो तुमं । तहा वि लग्गो निबन्धेण । पुणो वि भणइ ताव पुरिसो त्ति [वुञ्चति ? ] जाव य सीलम्मि संजुओ होइ । सीलेण विप्पमुक्को तणाउ लहुयत्तणमुवेति ॥ ११७ देवेहिं परिगरिओ जइ वि समो होइ भरहनाहेण । तह वि अकित्तिं पावइ पुरिसो परनारिसंगेण ॥ ११८ नियकित्तिविणासेणं जं सोक्खं होइ होउ किं तेण । लब्भति पुणो वि सोक्खं कित्ती पुण मइलिया कत्तो॥ ११९ तीए वि चिंतियं-विसयाभिभूयो एस । मोहमहग्गहगहिओ वम्महवाणेहिँ वाधियसरीरो । सुरयग्गहाभिभूओ जायइ निचेयणो पुरिसो॥ न गणेइ पञ्चवायं धम्मं न सुणेति उज्झए लजं । विसयविमोहियहियओ मन्नइ सुन्नं व अप्पाणं ॥ अयसं च सवलोए अत्थविणासं च जीयनासं च। जाणतो वि न जाणति परदाररतिप्पिओ पुरिसो॥ १२२ जणणि-जणयाण सुकयं न गणेन्ति य मित्त-बंधु-सामीणं । विसयविसमोहियमणा पुरिसा परलोयमग्गं च ॥ १२३ तीए पुणो पढियं जे किर वि रक्खगा ते विलुपगा कत्थ रक्खिउं सका । जस्थ जलं पि पलित्तं । प० १५. १]भण सरणं कं पवजामि ॥ १२४ ता एएण कयमकजं, ता कयाइ अन्नं पि कुणयति सुमरिया' रायकनगाए . नीती माधुर्य प्रमदाजने सुललितं दाक्षिण्यमार्ये जने, __ शौर्य शत्रुषु मार्दवं गुरुजने धर्मिष्ठता साधुषु । मर्मज्ञेष्वनुवर्तनं बहुविधं मानं जने गर्विते, शाठ्यं पापजने नरस्य कथितं प्रर्याप्तमष्टौ गुणाः ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६-१३०] . द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । ता काऊण सादं छम्मेण केणावि ओयरेयई । ततो बहुविहं आलोइऊण भणियं-'ता जइ एवं तुह निबंधो, को तुमं मोत्तण मम सरणं ? किंतु पडिक्खसु जाव छम्मासं, जाव तस्सेव नामेण करणगाइं करेमि ।' तओ तेण भणियं- 'एवं ति । इओ य उत्तरदिणेसु पयडियं तीए पुप्फवइत्तणं । ताव पत्तो तीरं बोहित्थो । उत्तरिया य समुद्दाओ । आढत्तं वद्धावणयं जाव गओ सेट्टी कोसिल्लियादि घेत्तूण राइणो दंसणत्थं । दिन्नं च कम्माराणं पि य नियनियं तओ दवं । पमत्तमत्ताणं सबाण वि न्हाणच्छलेण निययदासचेडीसहिया निययाहरणं पहाणयरं च महारायदिन्नं दविणं च घेत्तूण निग्गया सणियसणियं । गया गामतरं । दिट्ठो तत्थ आवासिओ सत्थो । ठिया [प० १५. २ ] तत्थ सत्थवाहं पुच्छिय । पयट्टा तेण समं, जाव पत्ता चंपं ति । जाव कम्मधम्मसंजोएण दिट्ठा । विहरमाणसाहुणीओ । तओ ताओ पेच्छिऊण चिंतियं- एयाओ ताओ जाण संतियं नेवच्छं अअउत्तेण दंसियं आसि, बहुमयाओ अजउत्तस्स, ता एयाण सगासं वच्चामि । तओ गया ताण पिट्ठओ । काऊण य निसीहियं पविट्ठा पडिस्सयम्मि । इओ य तत्थ तीए विमलमतीए सुओ निसीहियासहो । तओ ससंभंताए सागयं निसीहियाए उठ्ठिया । दिट्ठा य अउवलावण्णधारिणी जक्खिणि व पडिहारीहिं समेया । गहियं चेडीहिं किलप्पलंय(१) दिन्नाई आसणाई । तीए वि बंदियाओ साहुणीओ । कयं वंदणयं साविगाए । निसन्नाओ, पमदियाओ जंघाओ पुच्छिया सरीरपउत्ती । तओ समासत्था समाणा पुच्छिया विमलमतीए - 'कओ तुम्हेहिं ? ति । तीए वि सया( बा )हमंथरवयणाए भणियं- 'पियसहि! महल्ला कह' त्ति, वयंसि! जत्तियमेत्तो राओ संतावो होति तत्तिओ चेव । उज्झियरायं न हुकुंकुमं पि ताविजइ जणेण ॥ [ ५० १६. १ ] १२६ कम्ममओ संसारो कम्मं पुण नेहबंधणं जाण । नेहनियलेण बद्धा भमंति भवसायरे जीवा ॥ १२७ इन्दत्तं पत्तस्स वि जय(ण ?)स्स विसएसु नत्थि संतोसो। अणुसरिसपरियणस्स वि जस्स सहीणाइँ सोक्खाई ॥ १२८ विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ १२९ एवं सुणिऊण समासासिया विमलमतीए - एवं विहो एस संसारो । जओ सइ रोग-सोग-पिय-विप्पयोग-बहुदुक्खजलणसंतत्ते । नडपेच्छणयसमाणे संसारे रे सुहं कत्तो?॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ जिनदत्तस्य श्रेष्ठिप्रपञ्चेन समुद्रपतनम् । [१३१-१३०] दीणत्त दुहसयाई सोगो मणसंतावया, सत्तूण समागमो दारिद उव्वेवया, पुवन्जियवसएण एए होति अविराहया । संसारम्मि अणंते जाइ -जरा - मरण-रोगपउरम्मि । मणुयाणं पि य पियसहि! एयाइँ हवंति दुक्खाई॥ १३१ संगलति पुणो वियलति पुणो वि संगलति वियलणं होति । पुरिसाणं पि य तच्चिय धणरिद्धी चंदजोण्ह व ॥ १३२ मणुयाणं ज(जि?)यलोए अन्नाण वि एत्थ किं तुह अउवं । संसारम्मि अणंते न(त?)न्नत्थि च्छेरयं किं पि॥[५० १६.२ ] १३३ ता सहि ! चय उच्वेयं संसारासारयं वियाणंती'। जिणवयणभावियाणं न होंति उल्वेवया पायं ॥ १३४ जं एइ अवसरेणं अणुपरिवाडी सुहं व दुक्खं वा । तं सहह अदीणमणा जाव पसायं विही कुणति ॥ वारिगमायं सच्छन्दगामिणी अन्नमन्त्रमणुरत्ता । नारि व चलसहावा चिंता पुरिसं विणासेइ ॥ चिन्ता डहति सरीरं डहति अणाहत्तणं परविएसे । डहइ य अब्भक्खाणं डहइ अकजं कयं पच्छा ॥ पुणो वि भणियं विणओ वेयावच्चं सज्झायं निच्चमेव कुणमाणी । धम्मज्झाणोवगया चिट्ठ तुमं निचकालं पि ॥ १३८ एवं समासासिया, कहिओ असेसवुत्तं तो] अत्तणो वि, कहिया भत्तुणो गुणा, कहियं च सरीरसंठाणं । तओ से जाव बोहित्थे वि य एस मे व (१) भत्तारो। जाव वण्णेण सामो, तओ विण्णायं 'अण्णो को वि एस जओ अणेगरयणभरिया वसुन्धरा । तओ तीए पुणो वि समासासिय कहिओ य अत्तणो वुत्तंतो । मज्झ वि एवं विहं समालं(णं?) जायं । जेण समाणदुक्खा तुमं मम, समाणसाविया य, ता तुमं मम भइणी । पडिच्छामि चेव एत्थ ठियाओ कइचि वरिसाणि । पुण सरिसाओ चेव कुसलाणुट्ठाणं काहामो । [ प० १७.१ ] नीया य सगिहं । कयं व्हाणाइयं कम्मं, अच्छंति य जिणाययणे सुस्सूस(सं) कुणमाणीओ पढ़तीओ वायंतीओ य । कुणइ य अणवरयं महापूयं जिणाण । सिरिमती पयच्छइ य साहुणीणं फासुयदाणाई । एवं च ताव एवं । इओ य सो जिणयत्तो उब्बुड्डो समाणो पेच्छिय विगयबोहित्थं पएसं आढतो बाहाहि तरिउं । पावियं च तेण फलहयं । तं च केरिसं १ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । कोमलदइया लिंगण फास सुहासायजायसोक्खाहिं । वाहाहिं तेण फलहं अवगूढं दइयदेहं व ॥ १३९ कहिंचि जंघाहिं कहिंचि कडीओ कहिंचि पट्टीओ कहिंचि बाहाहिं, एवं अविसाइणो' तरंतस्स समुई । एवं च ताव एवं । जिनदत्तस्य अङ्गारवत्याः पाणिग्रहणम् । [ १३९ - १४५] ओ य वेयपar दाहिणपवसेदीए असोयसिरि(री) विजाहरचकवट्टी | तस्स अंगारिणी नाम धूया । सा य अणोवमा रूवेणं कलाहिं य । न य इच्छइ सामन्नपुरिसं ति । दंसिया य सधे विज्जाहरकुमारा । न एगो वि से चित्तं रमइति । तओ पेसिया दिसोदिसिं विज्जाहरा पुरिसरयणअन्नेसणनिमित्तं । तओ हिंडतेहिं दोहिं विजाहरेहिं दिट्ठो जिणयत्तो महुमहो' इव समुदं तरंतो । तओ चिंतियं ' को पुण एस समुदं बाहाहिं तरइ ?' आसन्नेहिं होऊण निरूविओ रूवेण कामदेवो व, वीरो व [ १० १७.२ ] धीरिमाए । तओ भणियं परोप्परं'भो भो ! पिच्छ पिच्छ, अच्छरियं ईईसा रूवसंपया होऊण केरिसं अवत्थं पत्तो ?' त्ति । परिहरिय साहुसाई ('हसाई १) जुत्तिविह (हा ) णाइ जाइँ लोयस्स । जाइँ मणोहरवाहिराइँ वीरा समाणंति ॥ अवि य - गरुय च्चिय गरुए भीसणे वि मुज्झति नवर बहुवीरा । सूरो विडम्पग हिओ वि तह वि जोन्हं पयासेह || जो विसमे वि [ ? ] कजे कजारंभं न मुंचए धीरो । अहिसार व लच्छी निवड वच्छत्थले तस्स || जइ होइ निरारंभो वयं लच्छी पहुंचए हरी वि । फरिओ वि य आरंभो लच्छी पयटोसिया हिड्डी | तं किं पि कम्मरयणं धीरा वर सं (विरचं ) ति साहससहाया । जे बंभ - हरि-हराण वि लग्गइ चित्ते चमुकारो ॥ मा [मा] जाणह तुंगत्तणेण पुरिसाण होइ सोंडीरं । [r] दो करिवराण कुंभत्थलं दलइ ॥ १ अविषादवतः । २ कृष्णः । ६१ १४० १४४ तओ तेहिं भणियं विजाहरेहिं परोप्परं - पेच्छामो अन्तरसत्तं ति । तओ efer एकेण विजाहरेण जिणयत्तो । जिणयत्तो वि एगेण हत्थेण तरिउमादत्तो, अवरो लाइओ कुरियाए मुट्ठीए - भो भो ! आगच्छह किं मे बाहिं सुनपोकाराहिं ? १४१ १४२ १४३ १४५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्याः पाणिग्रहणम्। [१४६-१४९] इयरेहिं चिंतियं-अहो महाणुभावया एयस्स । भणियं च-'मा अम्हाणं उवरि को करेह, एयं परिक्खणत्थमेव कयं तुम्ह। अम्हेहिं ! प० १८.१] गवेसयंतेहिं तुमं दिट्ठो, न य तुम्हमंतरेण पुरिसरयणं अस्थि अण्णं, ता कुण पसायं, देह आएसं जेण उत्तारिमो।' कुमारेण भणियं - 'अहं उत्तरामि सयमेव । . अण्णो कह पत्थिजइ हियए माणं समुबहतेणं । सुरए वि पियामुहचुंबणस्स अब्भत्थणा हलुई॥ १४६ तहा वि जइ निबन्धो ता एह ।' तओ उत्तारिओ तेहिं । नीओ महुरजलासन, कयं अंगपक्खालणं, अप्पियाणि दिववत्थाणि, नीओ असोगसिरिसगासं । विम्हिओ रूयाइसयदंसणेणं चकवट्टी, हरिसिओ हियएणं, पुजिया विजाहरा । सा वि अंगारमई तं पेच्छिऊण लद्धावसरेण गलेण गहिया मयणेणं, आढत्ता मयणवियारे काउंति । अवि य न जलंति न धगधगंति न सिमिसिमंतिन मुयंति धूमवट्टीओ। अंगाई माइ पियविरहियं इन्हि हुयाइ डझ(झं)ति ॥ १४७ नीसाससरसदोवल्लिमाए नच्चइ नडो व हयलोओ। विरहे मरणेण विणा सणेहरेहा न निविडई ॥ १४८ तओ आणंदेण दिण्णा तस्स । परिणीया य तेणं । आगासगामिणीए विजाए आगच्छति(अच्छंति ?) य विसयसुहमणुहवंताई । अइसंधिया विजाहरा परक्कमकलाहि । दिण्णाओ विजाओ असोगसिरेण(रिणा?) । दसिउं यंउथुउवास (१) गरुयत्तणं जिणयत्तेणें । कुणइ य धम्मकहा। अंगा [प० १८.२ ] रमइ(ई)ए नियडिवजए दवउ, तग्गोहंसए(?) सासयाइं जिणाययणाई । ताव भणियं कुमारेणं- 'सुयणु! बुद्धो अम्हाण कुल परंपरागओ देवो, तहा वि तुज्झ नेहेणं पडिवन्नो मए एस, गहिओ धम्मो ।' तओ जाओ विसेसओ तीए तस्स उवरि पडिबंधो । अण्णया समुद्दवेइयाभिमुहं गच्छंतेणं दिहाओ नियभारियाओ। 'एगत्थ मिलियाओ' ति गहिओ हरिसेणं । उ(न ?) संभासियाओ तेणं । चिंतियं च जिणयत्तेणं सो मित्तो सो सयणो सो चिय परमत्थवन्धवो होइ। . जो जिणवराण आणा धरेइ माल व सीसेणं ॥ १४९ तओ भणिया अंगारमई- 'भद्दे ! वच्चामो सायर' ति । तओ चलियाई पुप्फविमाणरूढाई वसंतपुराहिमुहं ति । वट्टए मज्झरत्तं । पत्ताई चंपं । तओ भणियं जिणयत्तेणं- 'एत्थ अवयरिय सुयामो थेवलं ।' तीए भणियं- 'एवं' १ 'परककमलाहि' इति प्रतौ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५०-१६२ ] . द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । ति । तओ अवयरियाई जत्थ ताओ अच्छति । तो [तेण] वि भणिया अंगारमई - 'अहं सुयामि, तुम पि जागरमाणी चिट्ठ।' तीए भणियं - 'एवं' ति । तओ पसुत्तओ थेववेलं ति । उडिओ, भणिया य अंगारमई - 'भद्दे ! सुयसु थेववेलं, अहं अच्छामि ।' तओ पसुत्ता। जिणयत्तो वि न(तं) पसुत्ति परिचइय अवगओ । पक्खित्ता गुलिया जंघाहिं । जाओ वामणो । सा वि उट्ठिया संता सहसा अपेच्छमाणी रोविउमाढत्ता । किह ? जं कइयवेण [प० १९.१]कीरइ चाडं विणयं च दाणधम्मो य । दासो कजसमुल्लो नेहेण विणा विसंवयइ ॥ सब्भावनेहरहिओ जइ वि नरो देइ धणस्स कोडिं पि । तह वि न करेइ पीई(इं) तिसियस्स महासमुद्दो व ॥ १५१ जं जम्मह वि न चिंतियं, सुविणंतरण मणेण । सज्जणविहडण पियविरहु, तं विहि करइ खणेण || १५२ अकंदंती कलुणं मोभयरोननिय (सोयभरोनमिय ?) मउलियच्छिजुया । अणवस्यवाहसलिलुच्छलंतधोयंतगंडयला ॥ १५३ आसासिजइ चक्को जलगयपडिबिंबदसणसुहेण । तं पि हरंति तरंगा पिच्छह निउणत्तणं विहिणो ॥ १५४ सा ई(पी)ई सो पणओ अणुराओ तारिसा(सो) मम पियस्स। हा जह खणेण झीणो धिरत्थु संसारवासस्स ॥ १५५ हा नाह ! कत्थऽसि या(ग)ओ, एगुम( एग अ)डवीए उज्झिऊण ममं । सा पीई सो पणओ सणु(सो अणु )राओ कहिं बु(तु)ज्झ १॥ १५६ हा च(द)इय ! सुसामिय ! गुणनिहाण ! हा जीयनाह ! ति(?)। कत्थ गओ कत्थ गओ में मोत्तुं णिकियं(व) रण्णे ॥ १५७ आणेउं नयराओ रण्णे मोत्तूण एकियं रहइ। मा दइय! वच्चसु तुमं अहव घरं चेव मे(मं?) नेसु ।। १५८ ता जह तुमं परोक्खे पडिही मे अयसपवओ उवरि । चुण्णंतो हियय [प० १९.२] घरं जुण्णदुगं विजपुंजो व ॥ १५९ गु(तु)ह दोसस्स महायस्स(स)! थेवस्स वि एत्थ एथि(णस्थि!) संबंधो । अइ दारुणाण सामिय! मह दोसो पुवकम्माणं ॥ १६० अहवा वि अन्नजम्मे घेत्तूण वयं पुणो य मे भग्गं । तस्स उदएण एवं दुक्खं अइदारुणं जायं ॥ १६१ अहवा पउमसरत्थं चक्काण जुयं सुपाएसंजुयं भिन्न (?)। - पाषए परो, तस्स फलं आगयं विउलं (१) ॥ १६२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्याः पाणिग्रहणम् । [१६३-१७३ ] किं वा वि कमलसंडे विओइयं हंसजुवलयं पुधि । अइमिमि(निधि)णाएँ संपइ तस्स दलं च मोत्तवं (१) ॥ १६३ अहवा किमिहारन्ने निरत्थयं विलविलेण एएण। किं पुण अणुहवितवं जं पुवकयं मए कम्मं ॥ . १६४ जइ पइससि पायालं महासमुदं च लंघिमो जइ वि। मेरुम्मि आरुहामो तहवि कयंतो पलोएइ ॥ पुणो पढियं अंगारमईए सुर-मणुयरिद्धिसंपय-बंधव-धण-रयण-कणयपरिभोगा। लायण्ण-रूय-जोयण-बलं च जीयं चणिचाई ॥ १६६ विसयाणं सिवियाणं सुड्ड वि प[3]राण हियय [प० २०.१ ]हारीणं । अयच्छ(पत्थ)भोयणाणं परिणामो दारुणो होइ ॥ १६७ अइवल्लहम्मि रोसो माणो ईसा य तामसो होइ । पियमूलियं च दुक्खं अलाहि अम्हं पियजणेण ॥ १६८ सुओ अभितरत्थाहिं विमलमइ-सिरिमईहिं सहो । निग्गयाओ ताओ 'हा किमेयं ? ति । तीय वि उग्धाडिए समाणे दिडं वीयरागाण देहरयणं । 'हा मिच्छा दुकडं' ति कुणमाणीए उवसंहरियं विमाणं । पविट्ठा निसीहियं कुणमाणी । वंदिया देवा । पुच्छिया य वुत्तंतो ताहि । कहिओ जहाविहो अवगओ सिरिम[ई]ए मम भत्तार ति जाव कहियं ईईसो त्ति, मम उवरि पडिबंधो आसि जेण कुलक्कमागयं पि बुद्धधम्म परिचइय पडिवन्नो जिणधम्मो त्ति । संपयं पुण एवंविहं कयं ति जेण परिचइय गओ त्ति । पुणो वि पढियं अंगारमईए अचंतमणहरस्स वि सहि दोसा उवरि दड्डपेम्मस्स । जं तणतणुएण वि विपि(प्पि)एण गिरिस[प० २०२.] निहं दुक्खं ॥ १६९ असरिसजणम्मि नेहो जइ कीरइ कहवि विहिनिओएण । नवनलिणीदलठियपाणिय व किं सो थिरो होइ । १७० जो घडइ दुजणो सजणो य कहकह वि जइ सुलग्गेणं । तो तक्खणं विरजइ तावेण हलिद्दरागो छ । १७१ सब्भावनेहमइए रत्ते रचिजइ त्ति रमणीयं । अणहियए पुणु हिययं जं दिजइ तं जणो हसह ॥ १७२ जो पुण सिणेहस( सं ? )ताणमलणपायडियविप्पिओ निसय(१)। यम्मिकरेतो (2) पणयं भूयाणं वायए वंसो॥ १७३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७४-१७५] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । ता एवं विहा नेहा पुरिसाणं । सिरिमईए भणियं किं काही सो पुरिसो सव्वत्थामेसु उज्जमंतो वि । पुषि(विं) कयंतमल्लेण जस्स वग्गाइ (वंगाई ?)भग्गाई॥ १७४ नणु सो महासावओ आसि, जेण अहं पि साविगा कय त्ति । ता अन्नो को वि एस, जेण अणेयरूयभरिया वसुंधरा ।' तओ परिसंथवणिया ताए कहिओ निययवुत्तंतो। भणिया ताहिं- 'साहम्मिणी समाणदुक्खा य, ता भगिणी तुमं अम्हाण, अच्छामो ताव एत्थ, पडिच्छामो कयवयदियहे, पुणो कुसलाणुट्ठाणं काहामो। अन च पियविप्पओगमइयं कोवसमुत्थं व परिहववासवो(वसं वा)। जे चिय सहति दुक्खं सुहाइँ ते [प० २१.१] चेव पावंति ॥ १७५ · ता एत्थेव द्विया चेव पडिगा(च्छा)हि ताव, एगागिणीए कुलहरगमणं न बहुमयं ति । तीए भणियं- 'एवं' ति। ~ जिनदत्तस्य वामनकरूपेण स्वचरितकथनम् ।तओ सो वि जिणयत्तो अणेगवयंसयपरिवारिओ गायमाणो य कहाणयाई कहेमाणो चिट्टइ जाव कओ सबो नयरलोओ हयहियओ । गया राइणो वत्ता । हक्कारिओ राइणा, दिण्णं च से जीवणं, अच्छए य राइणो सयासे गंधवाइविणोएण । जाया य नयरे वत्ता राइणो सयासे- भो! एत्थ नयरे तिनि सोयासिणीओ अपडिरूवदंसणाओ सिरि-हिरि-लच्छीणं उच्वहमाणीओ उ(रू?)यं अच्छंति, न ताओ को वि देवो वि हसाविउं बोलाविउं वा सक्कइ । राइणा भणियं- 'अणेगरयणभरिया नयरी।' एत्थंतरम्मि जिणयत्तेण भणियं- 'भो भो! एवंविहाओ तुम्मे जेण माणुसमेत्तेसु एवं एयविहासि(हि ?)गारं आरोवेह ।' रायलोगेहि भणियं'एवं विहाओ चेव ताओ ।' तओ तेण भणियं- 'भो भो ! पेच्छंतु भवन्तो, पेसउ अप्पयारए पुंसंरा(पुरिसे?)य राया जेण ताण पुरओ बोल्लावेमि सा(ताओ?)। तओ राइणा पेसिया पहाणपुरिसा। जिणयत्तेण वि निययवसं(य)सया भणिया- 'तत्थ गया में कहाणयं पुच्छे [प० २१. २] जह । एवं ति । पुणो वि भणिया- 'चरियं कप्पियंति चरियं पुच्छेजह । भणिऊण गया तत्थ। ताओ विचं(चिट्ठ)ति । आढत्तो जिणयत्तो खलियारे- 'भो भो वाम]णय! ता किं पि कहाणयं कहेहि, जाव राउले वेला भवइ । तेण भणियं- 'भो! ताव किं चरियं कहामो अहो कप्पियं? इयरेहि भणियं - 'चरियं' ति । तओ आढतं चरियं अत्तणो, आबल्लप्पमी कहिउं जाव गओ चंपं, उजाणा निग्गओ य पणट्ठो। तओ १ आवाल्यप्रभूतिकथितम् । जि००९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य चम्पाराजपुत्र्याः पाणिग्रहणम् । [ १७४-१७५ ] भणियं तेहि- 'उस्स(स्सूर वट्टए, अइकमइ य राउले वेला, गच्छामो ताव ।' तओ विमलमईए संजायपचयाए सहसा भणिओ वामणगो- 'भो वामणग! तओ पुण कहिं गओ? ति, ता कहसु मणागं सोहणयं ति ।' वामणगेण भणियं-'किं तुज्झ गच्छए हत्थाओ? मम राउले वेला उपगच्छइ ।' तओ गओ। बीयदियहम्मि आगओ । पुणो भणियं वयंसएहिं तहेव जाव आढत्तो अत्तणो चेव यवलंभोओ (?) जाव समुहपडणं ति । तओ बीयाए तहेव सहासं जंपियं ति । तइयदियहे चंपगमणपजन्तं कहियं । तओ सइयाए तहेव सहासं जंपियं ति । तओ तहेव बहु(पण्हु)त्तरं [प० २२.१] दाऊण अवगओ । कहिया राइणो वत्ता । विम्हिओ राया । पूइओ वामणगो। - -- जिनदत्तस्य चम्पाराजपुत्र्याः पाणिग्रहणम् । इओ य छुट्टो रायहत्थी, गओ उम्मूलिय खंभो, भंजमाणो घराई, धिणासेमाणो लोगअट्टारित्ति । निवेइयं राइणो । दवाविओ राइणा पडहगो- 'भो भो ! जो हत्थी गिण्हइ तस्स रजं दिजइ दिक्करिगा य ।' एवं हिंडेमाणो छित्तो पडहगो वावणगेण । धाविओ गयाभिमुहं । हकारिओ हत्थी, नियसिकाए नियत्तो वेगेण । तओ महंतं चेव वेलं खेलाविओ हत्थी, करणदक्खयाए गहिओ त्ति । अट्ठालिओ कुंभे, आढत्तं गवव(गंधवं ?), ठिओ निचलकुणो (कण्णो ?), लोगेहिं [कओ] साहुक्कारी । आणीओ य हत्थी आलाणखंभं । आरोविओ मिठो, अंदुइयओ । गओ रायसगासं । जाओ राया चिंतावरो न याणिमो किं पिक (करि?) हामो, मया एवं पडिवण्णं । एसो अणण्णसरीरो विण्णाणं च एवंविहं जेण हत्थी अकंतो त्ति ! ता एएण कि (के) णावि पच्छण्णरूविणा सिद्धउत्तेण होयवं ति । एयं चिंतिउं भणिओ कुमारो- 'भो! नाओ मए तुमं जहा 'पच्छन्नरूवधारी को वि सिद्धउत्तो तुमं' ति तो संपयं उवसंहर एयं; जेण महया विभूईए करेमो विवाहो, केण वा पओगेण एवं परिवकं (त्तणं?) ति एवं च कोउयं [ प. २२.२ ] मम फेडेह, अहं गुरू तुज्झ, अणइक्कमणीयवयणो हवति गुरू । तओ 'अहो हं नाओ एएणं' [ति चिंतेऊणं ? ] सविणयं कहिओ सबो वुत्तंतो जिणयत्तेण- 'एयाओ मम मारियाओ भवन्ति ता हकारेह ताओ, जेण ताण पुरओ फेडेमि एवं रूवं ति । तओ पेसिया महंतया ताण सयासे । भणियाओ- 'राया भणइ तुम्हं भत्ता आगओ ता आगच्छह एत्तियं भूमि पचिहाणह (पञ्चहिण्णाह ?) त्ति । तओ ताओ सपरिवाराओ समहल्लगाओ आगयाओ। दिन्नाई आसणाई । भणियाओ राइणा- 'भयवतीओ! एस वामणगो एयं भणति 'मम एयाओ भारियाओ हवंति' ता एत्थ पमाणं तुम्हे ।' ताहि भणियं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७६] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । 'जाणेइ अम्ह भत्तुणो चरियाई, न उण एस' त्ति । तओ फेडिया जिणयत्तेण एगा गुलिया । अवगयं से वामणत्तणयं । जायं सिरिमति-अंगारमती [@] पथमित्राणं । उठ्ठियाओ ससंभंताओ, निवडियाओ चलणेसु । भणियं च'सामि! अम्ह एस भत्तारो।' तओ हरिसिओ राया। समवसरियाओ कुमारीजो पडिवभाओ तेणं । निसण्णाओ तस्सासण्णे। विमलमतीए भणियं - 'ममावि भत्तुणो घडइ सबमेयस्स. सत्ति (किं तु ?) वण्णेण विसंवओ' त्ति । तओ कहिओ बुरंतो । समप्पिया सिरिमती-विमलमतीओ राइणा (णो)। उप्पइयाइं दो वि [प० २३.१] जिणयत्तो अंगारवती आगासेणं वेयड्ढे । कहिओ वुत्तंतो असोगसिरिणो अंगारवतीए। ता संस(प?)यं फेडेह एस(य)वनपरावत्तं । ता पञ्चक्खी हो (हू) ओ । तओ हरिसवसुभिन्नपुलइओ उढिओ आसणाओ। पयट्टो पहाणपरियणसमेओ । सिंघलनयराओ मज्झेण पुहविसेहरं गयणेणं घेत्तूण आगओ चंपं । अन्भुडिओ राइणा । कओ महंतो यारो असोगसिरी-पुहविसेहरमहारायाणं । फेडिय(या) वण्णपरावत्तिणी जिणयत्तेण गुलिया। तओ तं उत्तत्तकणयसप्पहं उइयमिव सहस्सकिरणं रविं, कामदेवं व स्वगुणगारवग्यवियं विभिया सवे विजाहरा राया का(रा)यकुमारा य । पडिवनो सओसं विमलमईए । चिंतियं च तुह विरहतावियंगं सुसह य जलवजियं व आरोप्पं । दंसणजलेण सिंचह ओहुंचइ जेण संतावं ॥ इ(त?)ओ य राइणा कभाए कओ महापमोएणं विवाहो । पूजिऊण विजाहरचकवट्टी गओ सनयरं । बहुमभिओ पुहतिसेहरो राइणा । पराणीओ कुमारेणं, पच्छा कइवि दियहेहि अंगारवतीए सह नयरं । राइणा कओ महासामंतो । पसाहियाई रजंतराइं । अच्छए ताण समं अउच्चविसयसुहमणुहवंतो । [प० २३.२] वद्धाविओ जीवदेवसेट्ठी । पेसियाओ छप्पनकोडीओ कुमारेण । - जिनदत्तस्य खगृहे पुनर्गमनम् । - पच्छा कइवयदियहेहिं चउभारियासमेओ महया पड(रि ?)यरेणं गओ वसंतपुरम्मि जिणयत्तो । तओ महाविभूईए पविट्ठो सगिहं । समाइच्छिओ पिउणा बहुमनिओ । निग्गया गिहाभिंतराओ जणणी । तओ सुयसिणेहेण पभूयकालदसणेण य रोविउं पयत्ता । समासासिया जिणयत्तेण । तओ ताए समाइच्छिऊण अग्घाइओ उचमंता(गे)। कयं च वद्धावणयं जीवदेवेण । पवत्तियं महादाणं । कारावियाओ पूयाओ जिणाययणेसु । एवं सुहंसुहेण वच्चए कालो। समुप्पन्ना जिणयत्तस्स चउण्हं पि भारियाणं पुत्ता । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तस्य स्वगृहे पुनर्गमनम्। [१७७-१८६ ] अभया पसंतउरउआणवरें समागओ सुहंकरो नाम आयरिओ। सो य चउनाणी भयवं । गच्छन्ति धन्दणवतियाए नागरलोगा । कहियं उवरोहिएण जिणयसस्स जहा-समागओ उजाणम्मि भयवं सुहंकरायरिओ। चिंतियं जिण[५० २४.१ यत्तेण-गच्छामि भयवओ समीवं, पुच्छामि पुवभववइयरं, केणेरिसं दुक्खं अणुहवियं पुणो पत्ता महारिद्धी । तओ [निग्गओ] विमलमती-सिरिमती-अंगारवती-विलासवतीसमेओ बहुपरियणेण । दिह्रो भयवं ससि वसाहुगणपरियरिओ साहहिं । तओ पाहिणी काउं सबेहिं वंदिओ, पच्छा कयं सयलसाहूणं वंदणयं । उवविट्ठाई रिसिपुरओ । पारद्धा भयवया धम्मकहा भूएसु जंगमत्तं तम्मि य पचिंदियत्तमुक्कोसं । तत्तो वि य माणुस्सं माणुस्से आरिओ देसो॥ १७७ आरियदेसे वि कुलं' कुले पहाणम्मि जाति मुकोसा। तीए स्यसमिद्धी रूए वि बलं पहाणयरं ॥ १७८ होति बले वि य जीयं जीए वि पहाणयरं विण्णाणं । विण्णाणे सम्मत्तं सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥ १७९ सीले खाइयभावो खाइयभावे वि केवलं नाणं । केवलिए पडिपुग्ने पत्ते परमक्खरे मोक्खो ॥ ता दुलहाणि एयाणि पन्नरस ठाणाणि । अपरं जातिविसुद्धं भुवणम्मि पाय २४.२ ]डं गुणसएसु सुमहग्धं । माणिकं पि व लब्भति कहिं पि मणुयत्तणं दुलहं ॥ १८१ मणुयसणे वि दुलहा धम्मायरिया । जेण न हि तत् कुरुते माता न पिता न कलत्र-बन्धुजनवर्गाः(गः)। यत् कुर्वन्त्याचार्याः हितोपदेशेन सत्त्वानाम् ॥ ता तुम्हेहि पत्ता एस सामग्गी । तथा चोक्तम्सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जीव ! किं प्रमादाद् न चेष्टसे शान्तये सततम् ॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिप्रपतितं(जलनिधौ पतितं !)। मानुष्यं खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिभम् ॥ १८४ आहार-संज्ञा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो नराणामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिश्च तुल्याः ॥ १८५ धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ॥ १८६ .वरेण समा प्रतौ। २ 'कुलं पहाणं कुले' प्रतौ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ . १९० [१८७-१९८] द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । खणभंगुरे असारे मणुयत्ते चवलअब्भसारिच्छे । सारं एत्तियमेत्तं जं कीरति सोहणो धम्मो ॥ १८७ सो य दाण-सील-तव-भावणामइओ। सत्पात्रं महती श्रद्धा काले देयं यथोचितम् । धर्मसाधनसामग्री धन्या सेयं प्रजायते ॥ शील-चारित्रयुक्तानां दीक्षितानां तपखिनाम् । . गृहारम्भनिवृत्तानां यतीनां दत्तमक्षयम् ॥ सर्षपत्रिभागमानं वटस्य बीजं महीतले न्यस्तम् । आपःहितमूलं जनयति विपुलान् महास्कन्धम् (न्धान :) ॥ तद्वत् कडच्छुभिक्षा नियोजिता[ २५.१ ब्रह्मचारिणः पात्रे । श्रद्धानेहितमूले जनयति विपुलान् महाभोगान् ॥ १९१ अपि तद् वटस्य बीजं वाता-ऽऽतपशोषितं विनश्येत् (त!)। न हि दक्षिणा विनश्यति नियोजिता ब्रह्मचारिभ्यः ॥ काले सुपत्तदाणं सम्मत्तविसुद्धि बोहिलाभं च । अंते समाहिमरणं अभवजीवा न पावंति ॥ १९३ दिण्णं सुहं पि दाणं होइ कुहम्मेण असुहफलमेव । सप्पे वि दिण्णखीरं तं चेव विसत्तणमुवेइ ॥ १९४ तुच्छंमि(पि) सुपत्तम्मि उ दाणं नियमेण बहुगुणं होति । जह गावीए दिन्नं तणं पि खीरत्तणमुवेति ॥ १९५ मा मा मारेह जिए अलियं पर(रि)हरह मुहि] परदा । बंभवयं च धारह परिग्गहे मुयह अणुबन्धं ॥ अयसाभिओयसंतावियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स । होइ वहंतस्स फुडं चंदणरससीयलो अग्गी॥ अलियं न भासियवं अत्थि हु सच्चं वयं न वत्तई। सच्चं पि होइ अलियं जं परपीडाकरं वयणं ॥ १९८ ता भो! न हिंसियवा पाणिणों, न भासियचं अलियं, न गेण्हियवं परधणं, परिहरियई परदारं, संवरियको परिग्गहो, न भोयत्वं रयणीए, दारुणो एएर्सि विवागो त्ति । कायद्यो महातवो। वरमरसविरसकयसणगोयरविहिविहिए(य)सुद्धभावेण । अप्पाणेण य कवलो गहिओ छुहवेयणासमणो॥ . १९९ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ जिनदत्तस्य स्वगृहे पुनर्गमनम् । [२००-२१२ मा नरयवालविहियं संडासविडिं चवियं वयणे[ग]। [५० २५,२] उक्कत्तिऊण सयलं मा मे मांसं रसंतस्स ॥ २०० वरमुसिरखारतित्तयकडुयंबिलअरसविरसपाणेहिं। अप्पाणेण य अप्पा खविओ अवि यप्पणो चेव ॥ २०१ मा नायवालविहियं आवत्थियकढकटेंतकढयंतं । जाल-फुलिंगमुयंतं नरयजलं मा हु या(पा?)इयसि ॥ २०२ वरमायंबिल-छट-ऽट्टमोह मासद्ध-मासखवणेहिँ । अप्पाणेण य अप्पा खविओ अवि यप्पणो चेव ॥ २०३ मा पिडि-खंधदव(वह ?)णं ताडण कसघाय अंकुसनिरोहो । तुह खलण नासबन्धण डहणंकणवेयणसयाई ॥ २०४ धम्मेण य धम्मंतं ताविजंतं तवेण विउलेण । जीवस्स गलति पावं जह किट्ट काललोहस्स ॥ भावियवाओ भावणाओ एकोऽहं न मे कश्चिद् नाहमन्यस्य कस्यचित् ।। . न तं पश्यामि यस्याहं ना[ सौ ] यो मम विद्यते ॥ तओ भणियं जिणयत्तेण- 'भयवं! इमं भावयंतस्स किं हवति ?' भयवया भणियं एगग्गया य नाणे इंदियमलणं कसायमलणं च । जयणापरो य सावय! सज्झायसमो तवो नत्थि ॥ २०७ जावइयं सज्झाये कालं चिट्ठति सुहेण भावेण । ताव खवेति पुराणं नवयं [५० २५.१] कम्मं न संचिणति ॥२०८ ता भो ! एस चउरंगे धम्मे आयरो कायद्यो । दीहयरवाससहपंथिएण धम्मेण कुणह संसग्गी(ग्गी)। सबो जणो नियत्तति तुमए सह तेण गंतवं ॥ धम्मेण धणं विउलं आउं दीहं सुहं च सोहग्गं । दालिदं दोहग्गं अकालमरणं अहम्मेण ॥ आरंभाण सयाई करेति रिद्धीए हारणे मूढो। " . एकं न कुणति धम्मं जेण पलोएं(?)ति रिद्धीओ॥ २११ धम्मु करेजह एक पर, किं आन्निं वहुएण । जं जं चंघउ एत्थु जगि, होइ असेसु वि तेण ॥ तओ भणियं सवेहिं- 'भयवं न कुणति धम्मं, एवमेयं ।' २०९ ____२१० २१२ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । जिनदत्तस्य पूर्वभवकथाश्रवणम् । तओ कहाणयावसाणे सविणयं जिणयत्तेण भणियं - 'भयवं । किं मे अन्नभवे समायरियं ति, जेण एरिसा रिद्धी, अवंतराले य तुच्छदुक्खं ? ति केणावि ( केण य १ ) चत्तारि भारियाओ ?" ति । भयवया भणियं - 'सुदाणफलं' ति । जिणयचेण भणियं - 'कहिं सुदाणं ?' तओ साहिओ बभववइयरो - दस उरनयराओ जाव गयाणि उजेणिं । तत्थ तुमं वच्छवालो आसि सिवदेवो नाम । वच्छगएणं दिट्ठो तए रिसी उज्जाणे । जाओ तस्सुवरि बहुमाणो । तओ मासपारण धम्मकम्मजोएण पविट्ठो तुज्झ गेहे । तम्मि दियहे ऊस वो बहुमनिओ तए अत्ताणयं । तओ उवाइयं भत्तनूपमल्लयं । तओ अणुमनिओ जैंणणीए । दिन्नं जाव साहुणा निसिद्धं । तओ उवज्जियं सुहकम्मं ति । एयाओ पुण विमलमई सिरिमई अंगारवई विलासवई तम्मिकाले तत्थेव आसि इन्भकन्नगाओ । तओ पहेणयमा गया हिं पसंसिओ रिसिं पारावयंतो तुमं । तओ एयाहिं पि बद्धं सुहकम्मं ति । तओ आउक्खएणं तुमं मरिऊण उप्पन्नो वसंतउरे । एयाओ पुण दुवे चंपाए, एगा सिंघलदीवे, अवरा वेयड्ढे असोगपुरम्मि । ता भो एयाओ तर पुन्नोदणं परिणीयाओ । [ २१३-२१५] तओ संवेगपराणं पंचह वि जायं जाईसरणं । दिट्ठो सयमेव पुत्र [भव ! ] वइयरो | तओ संजायसंवेगेणं भणियं जिणयत्तेण - भयवं ! अनित्यं यौवनं रूपं, जीवितं द्रव्यसञ्चयम् । अनित्या प्रियसंवासा, वरं सुचरितं तपः ॥ अहवासेव गतो जम्मो असारसंसारकारणरयाण । परमत्थकारणं कारणाण न हु सिक्खियं किं पि ॥ ७१ २१४ ता भयवं ! एवं भावेमाणस्स उद्विग्गं मे चित्तं संसारवासाओ, ता जणणिजण अणुष्णविय गिहामि भगवओ सयासे वयं ति । भयवया भणियं - भो सुकुमालसरीराणं दुक्करं वयधारणं ति, जेण भक्खियवो निरासाओ वालुयाकवलो, तरियो बाहाहिं समुद्दो, तोलेयवो महागिरी, संचरियव्वं खग्गधाराए, पढममेव सिक्खियन्वो किरियाकलावो, उप्पाडिया ससोणिया केसा, भुंजियां परगिहे लद्भावलद्धं कयसणं, सोयव्वं च ककसपुढवीए, सहियवा बावीसपरीसहा, धारियवाणि पंचमहवयाणि, साहियवाणि इंदियाणि, १ * * एतचिह्नान्तर्वर्ती पाठो व संज्ञकप्रतेरवगन्तव्यः । जि० द० १० २१३ रक्तः शब्दे हरिणः, स्पर्शे नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे, भुजगो गन्धेन तु विनष्टः ॥ ता भो ! २१५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ २१८ २२० जिनदत्तस्य पूर्वभवकथाश्रवणम् । [२१६-२२६] पञ्चसु रक्ता पश्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकस्तु पञ्चसु सक्तः प्रयाति भस्मान्ततां मूढः॥ २१६ अपरं च तिगुत्तिगुत्तेण होयव्वं, निवारियवा चत्तारि कसाया, होयव्वं च पंचसमिइसमिएणं, रक्खियव्वो छव्विहो जीवनिकाओ, न कायव्यो सयणाइएसु अणुबंधो, एवमाति, किं बहुणा ? वुभंति नाम भारा, ते चिय वुभंति वीसमंतेहिं । सीलभरो वोढव्वो जावजीवं अविस्सामो॥ .. २१७ अहवा न दुकरं इमं भावमाणस्स, नरएसु सायणाए तिरिएसु कुमाणुसेसु दुक्खाणि । देवेसु य दोगच्चं लहंति विसयाउरा जीवा ॥ पेक्खंतो ऊरुत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरगंडूसे । करवत्तुकत्तदुहा विरिकविवइन्नदेहद्धा ॥ जंतंतरमिजंतुच्छलंतसंसदभरियदिसिविवरे । मुक्ककंदकडाहुक्कदंतसंसददिसिविवरे ॥ किं बहुणा ? अच्छिनिमीलियमित्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव संतत्तं । नरए नेरइयाणं अहोनिसिं पञ्चमाणाणं ॥ २२१ नरएसु जाई अइकक्खडाई दुक्खाइं परमतिक्खाई। को वनेही ताई जीवंतो वासकोडि पि ॥ ता भो सोहणमभिलसियं, यावञ्चित्तं च वित्तं च, यावन स्खलते मनः। तावदात्महितं कुर्याद्, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ २२३ ता भो ! करेहि सिग्धमेव अत्तणो समीहियं ति। तओ वंदिऊण भयवंतं सह वयंसएहिं भारियाहिं च चलिओ गिम्हाभिमुहो जिणयत्तो। गच्छंते भणिया वयंसया- 'भो सोहणो एस आयरिओ। तं पेच्छिऊण चिंता जाया अम्हाण एस लोयम्मि । सफलो जीवइ एको चत्तो जेणं घरावासो ॥ २२४ घरिणी यत्थो सयणो माया य पिया य जीवलोयम्मि । मायिंदजालसरिसं तह वि जणो पावमायरति ॥ २२५ जा य उवयारबुद्धी परिणीपमुहेसु सा वि मोहफला । मोत्तूण जओ धम्मं न मरणधम्मीण उवयारो॥ २२६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं जिनदत्ताख्यानम् । सो पुण संपाडेउं न तीरए आसवाऽनियत्तेहिं । आसवविणियत्ती न य गिहासमं आसमंतेहिं || नियमा तत्थारंभेण बडूई पावबंधणा हिंसा । हिंसावओ य धम्म उद्दिट्ठो सत्थयारेहिं || वज्रंतो चिय एसो सव्वेणं चैव जीवलोयम्मि । नियमेण उज्झियच्चो ता अलमेएण पावेण || २२९ एयं च चिंतयंतो संजायचरणकरणपरिणामो गुरुपामूला सवयंसो पत्तो नियघरं कुमारो । तओ चलणेसु निवडिऊगं जणणि-जणयाणं साहिओ पुवभवइरो | संविग्गाणि एयाणि । तओ भणियं जिणयत्तेण [प० २७. १]- 'करेमि अहं परलोयहियं ।' जणणि जण एहिं भणियं - 'वच्छ ! तया विणा अम्हाणं पाणधारणं पि न होई' कुमारेण भणियं अनाद्यनन्तसंसारे कस्य केन न सङ्गमः । सम्बद्धो जन्तुना जन्तुः केयं खपरकल्पना ॥ २३० aa जाणिओ निबन्ध, अणुण्णाओ माया - वित्तेहिं । तओ सोहणे तिहिवारनक्खत्तकरण [पत्र ६९ ] जोए पवत्तियं महादाणं, कारावियाओ जिणाय य णेसु पूयाओ । तओ आरुहिऊण सिबियं गओ आयरियसयासे । तओ समं भारियाहिं वयंसेहिं य महाविभूईए पवइओ एसो । तओ करेs उग्गतवच्चरणाइं । जेण [ २२७-२३० ] १ स्वस्तिकद्विकमध्यगः पाठो वसंज्ञकप्रतेर्ज्ञेयः । ७३ जाव न सोसहि निययदेहु विविहिहिं तवचरणिहिं, छ- म 'चंदायणेहिं ता (मा) सिय- छम्मा सिहिं । ता किं पाविहि सिद्धिसोक्खु जरमरणविवज्जिउ, सासर अल अणंतु जीव कम्मक्खय वज्जिउ । तत्र न जन्म न मृत्युर्न जरा न व्याधयो नेष्टवियोगो नानिष्टसंयोगो न च क्षुत्तृष्णे न कामरोषौ तत् सुखमव्याबाधं सर्वज्ञानां त्रिलोकमूर्द्धस्थितानां आत्यन्तिकमेकान्तिकमनित्यसंसारकं भवति सिद्धानाम् । तओ काऊण महातवं आराहिऊण मरणयालं गओ सुरलोयं । तओ पारंपरेण निव्वाणं ति जिणयत्तो ॥ ॥ इति जिनदत्ताख्यानं समाप्तम् ॥ संवत् १९८६ अद्येह श्रीचित्रकूटे | लिखितं माणिभद्रेण यतिना यतिहेतवे । साधवे वरनागाय स्वस्य च श्रेयः कारणम् ॥ मंगलमस्तु वाचकजनानाम् ॥ २२७ २२८ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितआत्मानन्दजैन ज्ञानमन्दिर वडोदरा स्थ' व' संकज्ञप्रतेः पाठभेदाः । पत्रस्य पङ्कौ मुद्रितपाठः१३ अणुपालंताई व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पङ्क्तौ मुद्रितपाठःअणुपालेमाणा ४१ ४२ १५ वोलेंति १४- १६ सिवधणो सिवधम्मो १७ दिक्करगं " ލ, " "" "" " " 33 " " 2 2 " " ४२ " 2 2 2 2 १५ " नाम भारिया” अनन्तरम् - ताणं पुत्तो सिवदेवो नाम । 'ताव य' स्थाने जाव १७ १८ लच्छीए खयंति । न य एत्थ साहवासाण २० तथा च पढियं च २२ अहं पु [ ण...] अम्हं [...]इमाई | घेत्तू विव २४ अणुहरइ विओओ अणुहवइ विओओ रोरवरस २५ सगू (ग्ग) णरया समप्र्पति " लच्छीण खयं । [...]ताह वासाण २६ भायणं २७ मेलयं "" ६° पयाव[य] स ८ व (वि) ९ चतुर्थगाथापश्चादियमधिका गाथापंडियए दारिद्द, वेहव्वं तरुणियाण देंतेण । किं ते कयंत लद्धं, अमर्यंव (मिम) विसं छुहंतेण ! ॥ 'पयावइस्स रवरवस्स सग्गनिरया वि 'अन्नं च ' स्थाने 'पुणो वि पढियं' सयणं सरणं पहुपति भायणो मेलणं " १० अष्टमगाथापश्चादिममधिकं पद्यम् सत्थु ॥ कंतु विहरि कंतु कंतारे कंतु पुण आवहिं कंतु होइ विरहे विसहिज्जउ । विणु कंति सोक्ख क...... सयणमज्झे कह होंति लजउ । जावहिं विहुरि समावडिए मज्झि एइ अणत्थु । तावहिं क...... . ण्णु विडाविड छणु " १२ कंतिं ... दीसइ धणु विणु कंतिं एकंगउंदीराइ " ވ " " " ވ " "" "" "" "> २० २२ २३ २४ समासाइऊण "" १८ वच्छवालत्तण ए (ते) तस्स गेहे कम्मं वच्छगएणं जाव... अहो निवन्नो निसन्नो एकादशमीगाथापश्चात् - 'जेण' इति अधिकः पाठः । व० प्रतिपाठः वोलीणा डिक्करगं समासासिऊ वच्छवालत्तणेणं २७ चोलियाखप्पड एण तस्सेव किकम्मं वच्छवाले गएणं अहो २६ द्वादशाङ्कपद्यपश्चादयमधिकः पाठःतथा चोक्तम्- वेत्यङ्गारसमं विकाशि कुमुदं पश्यत्यलातं बिसं चन्द्रं वहिमिवेक्षते ग्रहगणं तद्वत् फुलिङ्गोपमम् । उन्निद्रो निशि चक्रवाकविहगस्तोयेऽपि सन्दह्यते, . . गदग्धमनसां वहे (ह्रये) करूपं जगत् ॥ बहुमाण खण्डितमुज्झ कथमपि त्यक्तं ग्रहीतं पुनः कण्ठं नो विशति प्र....... स्वादितं जिह्वया । चक्राङ्गस्य सुचा मृणालसकलं प्राणैः समं ध्यायतो, नानादुःखशतानि चेह लभते प्रेमाचेतो जनः ॥ तीरात् तीरमुपैति रौति करुणं चिन्तां समालम्बते, किश्विद्ध्यायति निश्चलेन मनसा योगीव युक्तेक्षणः । स्वां छायामवलोक्य कूजति पुनः कान्तेति मुग्धः खगो धन्यास्ते भुवि ये निवृत्तमदना धिग् दुःखिताः कामिनः ॥ चोलिया फरक एर्ण चलणा । थिओ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , पइट्ठो० पाठमेदाः परख पक्को मुद्रितपाठः- ३० प्रतिपाठ:- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व. प्रतिपाठः। १ महाकल्लाण.. महापुनवतो [सुक- ४३ ३० द्वाविंशतितमीगाथापश्चादयमधिकः पाठयभायणो अत्यि ता अहवा-उवभुंजिउं न याणइ, अवस्सं वंदणीओत्ति, सिद्धिं पत्तो वि पुन्नपरिहीणो। जेण पउरं पि जलं तिसिओ, वि मंडलो लिहइ जीहाए॥ " ६ सुपत्तेहिं. सुपत्तह देहु जण बहु° ४४ १ जेण. जेण अज मम गेहं सोतासिणीणं सोवासिणीणं महातवस्सिरिसिच, बहुएहिं बहुताहिं लणेहिं अकंतं । सोयासिणीहिं सोवासिणीहिं , २ दाणं विभवो० दाणविभवो ता मंडओ वंदूओ पडिलाहेमि एवं पविट्ठो अपुव्वपुन्न सविभवेणं याए विसुद्धकम्मसु- ३ विविहरिद्धिल्लो विहवरिद्धिल्लो हबीयपाउब्भवाओ , ४ दुक्खिओ दुग्गओ य वणिय त्रयोविंशतितमीगाथापश्चादियमधिका , १३ दिट्ठो य० एतदने इदमधिकम् गाथादिट्ठो य पह?लोयणेण सिवदेवेणं । सो दियहो जत्थ सुहं, पढियं च सा राई जा गया सह पिएण । उत्तमस्य च वर्णस्य, सो अत्थो जो दिन्नो नीचोऽपि गृहमागतः । तं जिमियं जं न एक्केण ॥ बालो वा यदि वा वृद्धो, ९ सकरापगब्भा सक्करोयगब्भा सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥ जेण न किंचि , १० सव्वरसपुन्ना थाली सव्वरससंपुन्नथाली' , धन्नया! धन्नयाए। , १९ अष्टादशमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः , ११ देह देहि उटुंति मणोरहकं १२ भणियं च-अणु पढियं च तीए-अणु' दलीउ सरसाउ विविहरेहाओ। १३ खिजइ झिजइ असमत्तकजदालि १५ गहाविओ गिण्हाविओ यस्स हियए समप्पंति ॥ १८ पडिलाभिओ उप्पजति तहिं चिय पडिलाभिओ त्ति विहसंति तहिं तहिं समप्पंति । , १९ जिणचलण [कमल] जिणचलणजुयलरनसरे कमलाई व सेवा सेवा मणोरहा रोरहिययम्मि ॥ चिंतियं च- , २० पाविज्जहिं पाविजडू , २० जाणं 'धेजाणं ! अहो मे , पूइंति २१ पूयंति सुहकम्मपरिणई। " २२ ताणं च तेसिं च अहो जम्मस्स! , , सप्तविंशतितमीगाथापश्चादियमधिका अहो मे लाभसंपा गाथावणत्थं खीणो दे देह धणं पूए" २४ साहुस्स० साहूण य आगमर्ण ह गुरुअणं मा करेह रे गव्वं । " २५ बहुं(बहुयय)पि बहुविहं पि दंडायविसमभुयं" २६ निप्पजए निप्फज्जए गभंगुरो दिव्वपरिणामो॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जण बहुमन्निय. ३ पाठमेदार पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठ:- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व. प्रतिपाव ४४ २७ वररूय. वररूवसत्तसंपय- ४५ २० 'जम्भेणं' इति पाठस्यान्वयमधिकः पाठ गुणन्नुया पढियं च-जररोग वाहिरयमल, २८ °वासुदेवा० वासुदेवा हवंति किलेसबहुलम्मि नवर संसारे। पत्तप्पयाणेण कत्तो अन्नत्थ सुहं ४५ १ एत्थंतरम्मि० इओ य निग्गओ अव्वो! पियसंगमा रहियं ॥ जेणरिसी। ताओ या २१ न मरइ ? त्ति० न पव्वइओ ? ॥ " , बहुमन्निऊण जइ एरिसरुवावयमओ० मरिऊणं इओ य वसुंदरिं सुंदरिं न पावेमो। " ६ सयाई 'सयपयच्छमाणाणं ता किं निरत्थएणं उववन्नो जीवजसाए इमिणा चवलेण जम्भेण ॥ कुच्छिसि पुत्तत्ताए , २४ व नंदपुरिसेणं ॥... व इहपुरिसेणं ॥ जाव नवह " ९ तओ तओ जायसिणेहेणं धम्मो अत्थो कामो मायावित्तेणं , २६ निरइसयाई निरयासयाई " १० काणणुजाण काणणुजाणवाविवे- " , चतुस्त्रिंशत्तमीगाथान्तेऽयमधिकः पाठः उक्तं च-स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मों साणवरघरेसुं च आययणदीहियति न चीर्णो मया, द्वारापेक्षणधूलिधूसरत्थेसु महापहपहेसु मुखा नैवार्थिनस्तोषिताः। आढत्ता हिंडिर्ड काम चारुविलासिनी मदवसा खानेऽपि , १२ °सिंगारवे(वि) नास्वादिता, हा कष्टं विफलीगतो मम यार सिंगारवियार' भवोऽरण्ये यथा मालती ॥ , १३ पइटेणं पविटेणं २७ कामसेवणं की कामसेवर्ण पि की " , पुराणनिकु. दुवारनिक्कुट्टियं दि8 " , "तह कीरति वो...न चेच्छया" स्थाने पुत्तलियारूवं सह कीरति न अनेणं ति । १४ 'तंच केरिसं' एतत्पाठपश्चादियमाधिका जइ किजइ विद्यालडउं, गाथा गंजिजइ अप्पाणु । समउत्तुंगविसाला, ता वरि गहिलियतेण सहु, उम्मत्थियकणयकलससंकासा। जो दंगडइ पहाणु ॥ कामनिहाणं व ·थणा, इन्द्रियाणि न गुप्तानि पुन्नविहूणाण दुप्पेच्छा ॥ लालितानि न खेच्छया। , १५ भेत्तूण हतूण उत्तरार्धं यथा- दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं , १७ निरूनि (वि)या० निरूवियं च जिण न भुक्तं न च शोषितम् । दत्तेण । तओ ससि- , ३० चिंतेमाणो नि० चिंतेमाणो तं चेव णेह पलोयमाणो नि. ., १९ द्वात्रिंशत्तमीगाथापश्चादियमधिका , 'मयणावत्थाहिं' इत्येतस्य पश्चादयमगाथा धिकः पाठःताव च्चिय गणइ फुडं, अवि य-एक्कण विणा पियसंकुलववएसो(सं?) नरो समत्थो वि। गमेण बहुयाई होति दुक्खाई। जाव न निवडइ हियए, आलस्सं रणरणओं, मयरद्ध[प] मुक्कसरनिवहो॥ नीसासो विन्भमो पुलओ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारो पाठमेदाः पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पत्रौ मुद्रितपाठः- ५० प्रतिपाठःसुपइट्ठिए वि पियमा ४६ १७ ताव...सहिओ, ताव चिय गुरुयणुसेण मा पुत्ति ! वहसु आसंघं । णम्मि आसंका । अमुणियपरमत्थगुणो, जाव य विलासन सुंदरो पेम्मपरिणामो ॥ सहिओ, ४६ १ रसेण वा. रसेण भावितं । " १९ संवासेह समासासेह मारेइ विसं व विणो- " " आवस्सयाइ [यं] आवस्सयाई सहेण पेम्मं " " , २० जीवदेवो...चि- जीवदेवसेट्ठी तमाय त्तएण-'भो। यणं । दिठ्ठा सा , ५ आढत्तोम... आढत्तो मयणविया पुत्तलिया । हरि. रेण गाढं उव्वहिउं, सिओ चित्तेणं-'भो! चिंतियं च- , २१ 'कुमारस्स' इति पाठस्य पश्चादयमधिकः ६ चंदणपंकु० चंदणपंको जलं ज पाठः-'पढियंच सेट्ठिणालद्दाए सीयलो वाओ होइ सुरूवे पेम्मं, तावियस्स य अहितावियाणं अहि होइ विरूवे वि कम्मि वि जणम्मि । , कुणइ सो दाहं हवइ से दाहो मा होइ रूववं ता, ""राग...विसयविमोहिय” स्थाने पेम्मस्स न कारणं रूवं ॥ जत्तो विलोलपम्हल°रागवसओ,पियजणविरहम्मि संतत्तो॥ धवलाई वलंति नवर नयणाई । स चिय रेवा ते सर आयन्नपूरियसरो, सपल्लवा ताई विझगहणाई। तत्तो च्चिय धावइ अणंगो ॥ करिणिविओए जूहा अणुरायतंतुआयहिवस्स न कुणंति परिओसं ॥ ड्डियाइं जणसंकुले वि नवणाई। न चरेइ वर्ण न चरे वलिऊण सणिय सणियं, इ नंदणं पाणियं न पुंड्रे । जत्थ पियं तत्थ वचंति॥ करहो करहिविओए, , २२ एव(यरूव एयरूव मुणि व्व झाणठ्ठिओ नाइ ॥ अत्थक [च] अगम्म, , २३ ता तं...यस्स ता तं चिय सिप्पियं दुग्गम्मं मचुभयविणासं च । पुच्छामि । तओ धम्मविरुद्धं जणहा तस्स सिप्पियस्स सयं च कामी न पिच्छेति ॥ , २५ कारवण...रूवं० कारवणबुद्धी, जं न गणेइ पञ्चवायं, पुण तत्थ तं पुत्तधम्मं न सुणेइ उज्झए लज्ज । लियारूवं तं पुण न विसयविमोहिय नजए सयमेव पया वइणा निम्मियं ति। ॥ १२ गविट्ठो जीव गविट्ठो य जीव , २७ हत्थलक्खणं ति हत्थलक्ख त्ति , १३ सेटिणा...विरहवि सेट्ठिणा-साहिप्पंति , २८ भणियं...सिप्पिएण भणियं-कहं चिय? न कस्स वि वोत्तूर्ण तओ कहियं सिप्पिएण नेय पायडिजति। , २९ चंपागएण चंपं गएण विरहवि. , 'दिट्ठा' इत्येतस्य पश्चादयमधिकः पाठः१६ जहोवलद्धो वुत्तंतो तओवलवुत्ततो अवि य-सा वलइ खलइ वेवह " ., सा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पाठमेदाः पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- २० प्रतिपाठः- पत्रस्य पनी मुद्रितपाठः- २० प्रतिपाठः सेयजलं फुसइ बंधए लक्ख । ४८ १ हारियं ति कहियं ति सुरयपडुय व्व बाला " २ सामी, सामिणी, कंडुयलीलाए वटुंती॥ ३ जावऽत्य कहि० जाव तत्थ वि कहि. ४६ ३१ पुच्छिओ० पुच्छियमसेसं । दाउं , ४ तेण चिंतियं तेण वि चिंतियं च पारिओसियं ५ व(वि)क्खेवं विक्खेवं काऊण पु. ४७ २ चतुर्थचरणस्थाने विप्पियकरणं च काऊण. च्छामि सामिणी। सत्तर्ण तओ , , ३ वुत्तंतो से भारियाए वुत्तंतो नियभारियाए ५ आसन्नट्ठियाए आसन्नत्थाए ६ मयणाए (ण) मयणेण ८ मन्ने मन्ने जणस्स नय णाई होति लोयम्मि। १० झाएइ निययहि- झाएइ हिययमज्झ ययम्मि म्मि १२ पेच्छइ अलद्धलक्खं पेच्छइ य अद्धलक्खं १३ जंपइ य अपुव्वत्थं जह जंपइ अफुडत्थं तह तह १४ पढियं से सक्खियाए पढियं च सयक्खि याए ऊससियंग त्ति. उससियं किं ति कह वि लक्खेहि १६ विलवि(व)उ विलवउ १७ सेट्ठिणा रूवाइसयं, सेट्ठिणा रूवं, १८ रूवाइसएण। कलाइसयाओ १९ जत्थाकिई (इ) अविय-जत्थाकिइ २० अष्टचत्वारिंशत्तमीगाथापश्चादियमधिका गाथासंता वि गुणा गुणवंतयाण दालिद्दतमभरकता। अत्थुज्जोवेण विणा पयडा वि न पायडा होति ॥ २५ ता-उच्छूगामे अवि य-उच्छुग्गामे २७ इट्ठा य एका य २९ अन्नया य इओ य .,. आढत्तो कीलाविणो- आढत्तो पासयकीलाओ। जाया विणोओ। जाव य जाया ३१ वसणं । आढत्तो वसणं। तओ आढत्तो , अणवरयं ति अवि [२] यं ति , ६ भणिउँ निसिद्धो भणिऊण निसिद्ध ताव ताव ७ काले ण जमिह काले जाण न दिजति दिजइ " १० उत्तरार्ध यथा- कालो जाण गमि जइ ते होंति विस जिया पुरिसा। , ११ 'धणं ति' इत्येतस्य पश्चादयमधिक: • पाठः-'पढियं च-मानोपहतचित्तस्य, लाभोऽपि न सुखावहः। पौरुषं मानमूलं हि, माने म्लाने कुतः सुखम् ॥ , १२ पडिवन्नं सुहयं० पडिवनसुहं तं थेवं पि बहुत्तु , १३ तो वि न लेयण तो लेयणह न जुत्तु जुत्त " " द्विपञ्चाशत्तमीगाथापश्चादिमे द्वे गाथे अधिके-'इच्छापडिवनसुहं, काले थोव पि होइ रमणीयं । परिमलियमाणभंगो, पच्छा पुहईण वि न कजं ॥ लक्खं पि तं न बहुयं, जं दिजइ माणिणो परिभवेण । वाया वि ससम्माणा, जा दिजइ सा सुहावे ॥ , १५ त्रिपञ्चाशत्तमीगाथापश्चादयमधिफः श्लोकः गुरुपत्नीवसा ज्ञेया, या श्रीर्वशक्रमागता। स्वभुजोपार्जिता या तु, सा च सत्त्वबतां मता ॥ , १६ कि इमिणा कि मे इमिणा , , खयकरेणं खयंकरेणं , १७ पराणिऊण विमल- पराणेमि विमलमई मई, ता ग० ग० . , , , , " Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठमेदाः पत्रस्य पती मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पतो मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः४८ २० चतुःपञ्चाशत्तमपद्यपश्चादयमधिकः पाठः- ४८ ३० 'इमिणा दव्वेणं यावत् 'दिवो विमणसो' अर्थेन [तु] विहीनस्य, स्थाने-इमिणा दव्वेणं आरामतडागपुरुषस्याल्पमेधसः । देवभवणाइयं करावेहि, देह दीणाणाव्युच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वाः, हाण महादाणं, कारावेह सत्तागारे, प्रीमे कुसरितो यथा ॥ कारावेह जिगाययणाई जिगपडिमाओ अनं च-छहाइ लज्जा परिहर जिणपूयाओ, किमेएणं जूयवसणेणं ? इ पोरसं तह धरेइ मजायं । जिगयत्तेण भणियं-न उणो उवलदीणतणं पवज्जइ, डज्झइ मित्तं कलत्तं च ॥ मिस्ससि त्ति । दिवो विमणसो नीयघरेसु वि भत्तं, ४९ ८ विरहे आरासंघट्टणं विहुरे आरापरियभामइ लंघेइ उचियमायार। दृणं कं कं न करेइ नरो, , , सप्तपञ्चाशत्तमीगाथापश्चादियमधिका लोए उयरग्गिणा तविओ ॥ गाथा-'अहवा मरंति गुरुवय, २१ 'जिणयत्तेण' इत्येतस्य पश्चादियमधिका णलंघिया कड्डिऊग नियजीहं। न वि गंतण खलाण गाथा-'विंझो गएहिं सोहइ, भणति दीणं महासत्ता ॥ विंझो चिय होइ तेहि पामुक्को । अन्नत्थ गया वि गण, " १० यदि तह वि हु लक्खेहिं लब्भंति ॥ , ११ थेवं पि माणमलणं' यावत् गमणव क्खेवेण स्थाने-थेवं पि खुडइ हियए , २३ पञ्चपञ्चाशत्तमीगाथापश्चादिममधिकं अवमाणं सुपुरिसाण विमलाणं । पद्यम्-'ताहई छेयउ वरसरह, वायालीहयरेणुं जे हंसिहि मुंचंति । पि पेच्छ अच्छि दुहावेइ ॥ ते पुणछिल्लरपाणिए वि, अहवा-जत्थगओ तत्थगओ महिमंडंत भमंति ॥ सामणिसीहो न जुप्पइ हलम्मि । , २४ जु(जू)यं यं सप्पुरिसा वि तह चिय , २५ जं निवारियं, जंधरिय, फुसि नयणा किंव रुनेणं॥ , २६ ति। चिन्तियं च ति। भणियं जीव तहा वि ता निययनयरविक्खेवेण सेट्ठिणा-म देवसेट्ठिणा, अवि , १५ तओ विसज्जा तओ तेहिं विसज्जा यन्म , , सेट्ठिणा समालोचि° सेट्ठिणा तमेव , २८ षट्पञ्चाशत्तमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः आलोचि. तथा च-काव्यशास्त्रविनोदेन, , १६ निय पुरिसे सहाए नियपुरिसा दाऊण कालो गच्छति धीमताम् । दाऊण सहाया व्यसनेनतु मूर्खाणां, निद्रया कलहेन च॥ १७ जायं अणुकूलं जायं, अणुकूला गमूर्खत्वं हि सखे ममापि रुचितं तस्यापि तओ (गा)मछड्डि त्ति । चाष्टौ गुणा, निश्चिन्तो बहुभोजनो तओ वठरताभावो दिवा सुप्यते। १९ "उवरोह' यावत् उवरोहसीलया कार्याकार्यविचारणान्धबधिरो मानाप 'एस' एत्तियं काउं पेसेइ माने समः, कृत्वा सर्वजनस्य मूर्ध्नि [व अम्हे एस पदं मूर्खः सुखं जीवति ॥ , २० करेमो काहामो , २९ सिट्ठजणगर सिट्ठलोयगर' , २३ कीलत्थं कीलणत्थं जि० ० ११ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २८ पाठमेदाः पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठ:- व० प्रतिपाठः४९ २४ °णियाए परावत्तिय °णियाए मूलीए ५० १५ “एएणं' यावत् एएणं विलविएण परावत्तिय 'जर-वाहि' निरत्यएणं ? ज होउ , २५ °दुक्खेण पीडिय° °दुक्खपीडिया तं होउ । जर-वाहिँ " २६ किंच पढियं च , १७ जि[ण] वयणं जिणवयणं षष्टितमीगाथाप्रान्ते इमास्तिस्रो गाथा " , एकोनसप्ततितमीगाथापश्चादयमधिकः अधिकाः-'सग्गसरिसो वि देसो पाठः-'जेण-जिणसासणम्मि भत्ती, पियविरहे कुणइ दारुणं दुक्खं । पंडियगोट्ठी विसिट्ठसंसग्गी। रनं पि सग्गसरिसं मुणिवरदाणपसंगो, जायइ पियसंगमो जत्थ ॥ न होइ थेवेहिं पुग्नेहिं ॥ जसु दीवहु रवि उग्गमइ, , १८ 'ता' यावत् 'चर- ताव इत्य ट्ठिया पुणु अत्थमणइ जाइ। माणी' स्थाने- चेव पढमाणी पवतहि विच्चालिहि(2), चंपिजंतु न माइ॥ सियभत्तावयं चर. आरामघरनिवेसा, माणी भमियऽच्छ्यिरमियजंपियुद्देसा। , १९ 'ति। चिंतियं च-असरिसविहंग" स्थानेदीसंति ते पएसा, ति। आगओ विमलसेट्ठी। भणियं च ते चिय पुरिसा न दीसंति ॥ तेण-वच्चामो घर ति । चिंतियं च ताए-एवं च ताव एवं । भणियं च५० १ 'अन्नत्यं यावत्, अन्नत्थ पिया अन्नत्य परतत्तितग्गयमणो, 'बन्धवा' परियणो, बंधवा दुस्सीलो अलियजंपओ चवलो। , २ एकषष्टितमीगाथापश्चादधिकमिदमार्या जत्थ न दीसइ लोओ, चतुष्टयम्-'बहुपक्खसंधिघडिओ, वणं पितं चेव रमणीय ॥ घेप्पइ चंदो वि राहुणा सयलो। असरिसविहंग देव्वम्मि पराहुत्ते, ॥ २१ माणसभरिएहि मारभरिएहि किं कीरइ सयणविहवेहिं ॥ , २२ मेल्लिजउ मेलिज्जइ जइ कारणेहि कुप्पइ, तह वि न छठेइ मोहियं सुयणो। , २३ 'अम्हें यावत् 'दहिपुरं नाम नयर स्थानेन हु राहुमुहग्घत्थो, अम्हं कूडवगो मत्थए चलणं । एवं सोममियंको मुयइ कंति ॥ चिंतेमाणी ठिया अजाण सगासे विमलदुजणदुव्वयणकिला मई । उजाणाओ सो वि जिणयत्तो मिओ वि पयई न सज्जणो मुयइ । . गओ दहिपुरं नयरं। पज्झरइ राहुमुहसंठिओ वि अमयं चिय मियंको ॥ , २६ फुल्लति सो विसिट्ठा फलइ 'एसो अउव्वो सुजनो न याति विकृति, विसिट्ठा , २७ किं फलोवायं? कि पि फलणोवायं? परहितनिरतो विनाशकालेऽपि। , २८ 'दंसिओ' यावत् दसिओ डोहलाइणा छेदेऽपि चन्दनतरुः, 'तुट्ठो स्थाने फलाविओ फुल्लासुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ विओ य । तुट्ठो , ११ कलंकदूसियाओ कलंकदुक्खतवि , २९ पुत्तत्तेणं पुत्तत्तणेणं य। याओ। ३० विहिं सिणेहेणं । विहिं । सिणेहबहुमा' , १३ मह मम दिव्वे बहुमा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठमेदाः पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- .व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः५. ३१ 'जिणयत्तेण' इत्येतस्य पश्चादयमधिकः पुहवी इ होइ नियपाठः-'अवि य-धम्मो अत्थो कामो, पाउय व्व धीरेहिं अकंता ॥ पुरिसत्था तिमि निम्मिया लोए। गुरुबंधवसयणुकंताणं जस्स न एकं, ठिया वि गरुए वि वसणपब्भारे । पि तस्स जीयं अजीयसमं ॥ अगहियववसायफला ५१ १ अहलाई [ताइं] अफलाई जाई दुरु कत्तो धीरा नियत्तंति ॥ दुरुढल्लियाई फुल्लियाई ५१ २२ 'भणियं यावत् भणियमेवं । एवं " २ जनकर' मणकर 'पवहणं । भगंतेण संजत्तियं " , ति॥ धर्मार्थ ति ॥ तथा च वहणं । धर्मार्थ , २३ आढ(ड)त्तिया, आडत्तिया । गहि६ कामो अत्थेण विणा कामो वि अत्थर यावत् 'भंडाई' याई परतीरजोग्गाई अत्यो हिओ अत्यो नाणाविहभंडाई ७ 'अत्थस्स' यावत् अत्थस्स ता उवाया , २४ घेत्तूण गहिऊण "दिसिगमणं' दिसिगमणं " , महाघरे महानयरे " ८ उत्तरार्ध ईदृग्- नरवइसेवा कुसल - , २६ पूर्वार्धं यथात्तणं च माणावमाणेसु॥ सीसं पलियपलितं ठाणंतरवियलिया मुहे दंता। " ११ विज्झ(जा) विजा' , २७ अशीतितमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः, १३ ‘एवं' यावत् 'अन्नं च वंकालोय[ग]सद्धएयं चितिऊण भणिओ सिट्ठी-ताय । च्छिपेच्छ्यिं महुरमम्मणुल्लावं। गच्छामो सिंघलदीवं दव्वोवजणत्यं । आयणसोहहि(?)णवरि अवि य पुत्ति पलिए समुन्भिन्ने ॥ विद्वत्त्वं च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन। गयउ त जोव्वणु बप्पडउ, खदेशे पूज्यते राजा, विद्या सर्वत्र आवासडा डहेवि । पूज्यते ॥ अन्नं च एव्वहि जर आवासिइ, , १६ सप्तसप्ततितमीगाथाप्रान्तेऽयमधिकः धवडा धयवड देवि ॥ पाठःअक्खुडियालउ अंगु , ३० जरधोइयाए जरधोव्वियाए वढघाएहि हुयउ न जस्सु। ५२ २ यशीतितमपद्यस्य पश्चादियमधिका गाथा तसु संपइ लग्गति य वदनं दशनविहीनं वि फेल्लुसि पडइ अवस्सु ॥ वाचो न परिस्फुटा न गतिशक्तिः । अपरं च-उजमंतह धीरे नितरामिन्द्रियवृत्तिः, साहसिए बोल्लंतए साहसिए (1) पुनरपि बाल्यं कृतं जरया ॥ को वि कालु संसए चडतहु । जिह , ३ 'भणिया' यावत् गहिया य सा तेण रामह तह नरहु होइ लच्छि उज्जम 'तम्मि नयरे जणणी। तम्मि य करतहु ॥ पढियं च२० कुव्वंति साहंति सन्नो जो तीए आसन्नो एकोनाशीतिगाथापश्चादयमधिकः पाठः- ६ 'नयरं यावत् नयरं परिवाडीए अनं च-मेरुं तणं व सत्तं (रनं) 'सोयएणं स्थाने एक्केणं सोवएणं घरंगणं गोपयं व मयरहरो। . ७ वारा(र)ओ वारओ नयरे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ° पाठमेदार पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पक्की मुद्रितपाठः- । व० प्रतिपाठ:५२ ८ दिट्ठा जिण दिट्ठा ख्यमाणीजिण° ५३ १७ 'पुरिस' यावत् ‘गुणदोषा" स्थाने- . ९ ताए तीए पुरिसं ॥ अपि च-अप्रमत्तसुसनो ११ 'मन्नति यावत् मन्नति नियजीयं ॥ गुणदोषा 'सुयणा' चंदणतरु व्व सुयणा " २१ बाहिं बाहिरओ १४ य(उ)वयारु उवयारु , २२ निरूविया दिव्वक- निरूविर्य । दिठ्ठा १५ पडिक्कियति पडिकरइ ण्णगा महा° कण्णगा महा पञ्चाशीतितमपद्यस्य पश्चादिमे द्वे गाथे ., २३ आलत्ता तेण । सो आलत्ता सा तेण । अधिके वि य तीए। सो वि य इयरीए । सो उवयारो जो विह बोल्लावेउं । बोल्लालावो। लियाण विहवे वि कुणइ सव्वे वि। °हि प(य) ठियाई हि चिट्ठिय थेव भद्दवयम्मि महायस थेव पवाइ किं करए कजं ॥ . , २६ हिययपल्हावणीए हिययउल्लावणीए पणयागयस्स गुणिणो उवयारं जं कुणंति किं चोज । वायाए, वाणीए, सव्वो वि देइ मिक्खं २८ पाउरणेण णिययपाउरणेण अव्वो सोवन्निए थाले ॥ , अभितरदीवे आ° अभितरदीवासने , २४ 'भणिय' यावत् भणिया इच्छाविया। 'जइ जसु' स्थाने- चिंतियं च तेण- , ३० घोरमाणाय(ए) घोरमाणीए तणलागे वि समटि- ५४ १ 'थिओं यावत् थिओ ताओ चेव एण जलबिंदुयसरि 'जाव' स्थाने- पलोएमाणो, जाव सेण । जइ जसु , ३ छाहिं अंतरिओ छाहतरिओ , २९ संपत्तीफल° संजत्तीफल ९ 'वि(वी)सत्थिमाए वीसत्थिमाए । नय, ३० कुसुमकय...माणो कुसुमकयमुंडमालो यावत् 'सूयगेण रसंरक्खणसूयगेण परिक परि , ११ ससंभव(म) ससंभमं 'नयरमज्झेणं' यावत् 'भो को एस' स्थाने , १३ नयरमज्झेणं । पासायट्टिएहिं दिट्रो , १६ तुमं न जाणसि? तुम जाणसि । साणुराएहिं नायरलोएहिं । दिद्यो य , १७ कुमारेण तओ कुमारेण राइणा अहिमुहमागच्छंतो, पुच्छिओ , , एय(वं) ता सम- एवं ता इत्य समय आसन्नपरियणो-भो को एस लिगाए लिगाए ५३ ४ 'जेण' यावत् 'रयणं स्थाने १८ ससंभंताए ससंभमं ताए जेण एरिसा देवलोगदुल्हयरा महा सो सरीर सो तुह सरीर पुरिसा खयं गच्छंति, तो दिव्व! किं तुमे कओ विगय कओ चिय विगय एवंविहं रयणं २३ 'परोवयार' यावत् 'जेण' १० गच्छंतो य बहुवेलं गच्छंतो बहुयं वेलं परोवयाररओ पडिवनवच्छलो त्ति । जेण १२ तेण , २६ [सु] पुरिसाण सुपरिसाण १३ सगासं °सयासे , ३० °दसणु(णू) दसणू . , १४ घरंगओ घरगओ , ३१ जंपंताणं सद्दो जंपणयसदो , १५ हो]उ होउ ५५ ३ तओ पुच्छिओ तओ संजायहरिससहसा खयंकरीयं सहस्सघायखयंकरी कोउगेणं राइणा अण पुच्छिओ २० जेण अण Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रस्य पङ्क्तौ मुद्रितपाठः ५५ " "" " در ލ " " در ५६ "" " 33 ވ " " " 23 " 33 " ४ तुम्ह पसाएण सुहं तुम्ह चलणाणुभा ति वेण सुि समलिया ९ सामलिगा अहो " ११ सो नवरि य " १९ षण्णवतीतमीगाथापश्वादियमधिका ९ १३ १४ पाठभेदाः व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पङ्क्तौ मुद्रितपाठः २४ २८ जहाविहवेणं २९ विणिइयं २ सयलजणे हसणीया सयलजणहासणिज्जा गाथा उवहासेण व मितो ति जंपियं ताइं दोन्नि वयणाई | टंकुक्किनाई वज्जपत्थरे ताईं सुयणाण ॥ अंतरगओ अंतरगओ अहवा न हुनवरि वि पुच्छिय वाहिय ० ओ विसया, उवलुद्धो १७ १९ २२ ३ ताए ३-५ अन्नदेसम्मि ६ शताङ्कमतीगाथापश्चादियमधिका गाथाविभाणं लच्छी पो रुसं च चाय (इ) त्तर्ण च नियदेसे । जह बंधू विरज्ज न तहा कइया वि परविसए ॥ ७ विसज्जाविया राइणो विसज्जिया राइणा किंचि महम्घ० तीए ( तेहिं ) 'भूमिभागं । भाढत्ता' स्थाने महाविहवेण विणिओइयं तीए अन्नरजम्मि ० • ओ मयणस्स, अइ विसमत्तणओ विसयाणं, लुद्धो १५ ताव मं एया इच्छ ताव इमा ममं इच्छइ त्ति त्ति १६ नियपुरिसा - जइ नियपुरिसा, भणि या य-ज‍ किंचि अश्वतमहग्घ • हिं भूमिभागं । ओ महयाए वेलाए कओ कोलाहलो ज हा - जिणयत्तो गओ ति । तं च सोऊण आढत्ता विलविज आपुच्छिय पवाहिय ५६ ५७ " " "" 33 ވ " " R 23 २३ तुब्भे व १ ४ ५ 'अकरणीयं यावत् अहिभवेति उत्तरार्धं यथा ११ १२ १४ १५ वम्महसरपसरपरा जिएण लज्जा मए चत्ता । ६ पञ्चोत्तरशताकमती गाथेदृशी व० प्रतिपाठः सिरिमई | संठाविया य सेट्टिणा-अहं ते तरस ठाणे होहामि त्ति । तओ आढत्ता ताया चेव 'सामिणि ! सुण' अकत्तव्वं च सुमहिलाणं । भाणियं च ते-सामिणि ! सुण अभिव ता मे कुसु पसायं सायं अणुहोमि ता तुमे समयं । पायाण निश्चकालं सूकरोय ते हो ॥ ९ उत्तरार्धं यथा जाओ भारद्दाओ सा जाय महासई नाम ॥ ८३ प्रथमपादं यथा- पावो हु इमो धम्मो सुहाि साहसेकरूयाण उत्तरार्ध यथा सुण्हाइ साहसिक निरयाण परिणामविरस विसया भिलासविमुहं मणं जाण ॥ १७ नवोत्तरशतगाथापश्चादयमधिकः पाठः अहवा - ते कह न वंदणिज्जा जे ते दद्दूण परकलत्ताईं । धाराहय व्व वसहा वचंति महिं पलोयंता ॥ ता जीवियं गणिज्जइ नरिंद | पुरिसस्स महिलियाए वि । सरयस सिनिम्मलगुणं जाव य सीलं न खंडेइ ॥ १९ दशोत्तरशतगाथापश्वादयमधिकः पाठःजेण-परदारे रूक्गुण निए वि निकामया सकामे वि । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठमेदाः पत्रस्य पङ्गो मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पङ्गो मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठःएयं महव्वयं न उ ५९ ८ निग्गया सणियस- निग्गयाओ सरिण रद्विमुद्दासमुव्वहणं ॥ तथा च- णियं । याओ य । ५७ २३ द्वादशोत्तरशतगाथान्वयमधिकः पाठः- , ११ विहरमाणसाहु- साहुणीओ पुणो वि पढियं णीओ , २५ तं न [पुणो] ॥ तं न पाविहसि ॥ आसि, बहुमयाओ आसि, ता बहुमत्रयोदशोत्तरशतगाथापश्चादयमधिकः अज याओ एयाओ अज पाठः-कत्तो मरुम्मि सलिलं तत्थ तीए विमल- तत्थगयाए विमलहे हरिण! हयास! मूढ! मा वच्च । मतीए सुओ मतीए सुणिओ मायन्नियाय नडिया , १५ भंताए सागयं भताए भणियं तीए अन्ने वि मया मया इत्थ ॥ अहवा सागयं २६ पायालपवद्ध पायालावद्ध अउव्वलावण्ण' अउव्वरूवलावण २७ 'कालम्मि काले वि , १६ ‘पडिहारीहिं यावत् पडिहारिसहिया । ५८ २ उरु थण 'दिन्नाई गहियं कलप्पलयं , ३ तुर्य चरणं यथा- हरइ कु जीवंतस्सु ? (करपलंबं ?) दिनाई , ४ 'निबंधेण' यावत् निबंधेण पयारि। , १७ 'वंदिया' यावत् वैदिया देवा साहु'ताव' भणियं च ताए-ताव 'साविगाए' णीओ। कयं वदणं ६ [वुच्चति ?] वुच्चइ साविगाए ८ आद्यचरणं यथा-देवेहि परिग्गहिओ , १८ सरीरपउत्ती। तओ सरीरपउत्ती सील१३ वाधियसरीरो तावियसरीरो पउत्ती य । तओ २० तृतीयचरणं यथा- विसयविमोहियम- " १९ सया(वा)ह° सवाह णसा नेहो २१ पुणो पढियं पुणो वि पढियं , २१ उज्झियराय उमियनेहं २२ जे किर वि रक्खग्गा जे चेव रक्खगा षड्विंशत्युत्तरशतगाथापश्चादियमधिका २३ चतुर्विंशत्युत्तरशतगाथापश्चादयमधिकः गाथा-ता छेओ पुत्ति ! जणो श्लोकः-जत्थ राया सयं चोरो, जाव न नेहस्स गोयरे पडइ । भंडिओ य पुरोहिओ। नेहेण पुणो छेयत्तणस्स खम्मति मूलाई ॥ विस्संभघायया चोरा, , २३ नेहनियलेण नेहनियलेहि जायं सरणओ भयं ॥ , , सप्तविंशत्युत्तरशतगाथापश्चादियमधिका , २४ कयाइ अन्न पि कयाइ कि पि अवर पि गाथा-तणकटेहि व अग्गी , २८ ध्वनुवर्तनं बहुविधं प्वनुवर्तना बहु लवणजलोहो नईसहस्सेहिं । विधा न इमो जीवो सको तिप्पेठे कामभोगेहिं॥ ५९ १ साढे स, " २४ जय (ण) स्स जियस्स , , केणावि ओयरे- केणावि उव्वरणं , २५ अष्टाविंशत्युत्तरशतगाथापश्चादिमे अधियव्वं । कायव्वं । के गाथे-जित्तियमित्तो कीरइ २ मोत्तूण मम मोत्तूण अन्नो मम मणोरहो नवर अत्थकामेसु । ३ करणगाई करणीयाणि तत्तियमेत्तो पसरइ ओहट्टइ संवरिजंतो॥ , ४ इओ य उत्तर' तओ उत्तर वरि विसु खद्धउ मं विसय , ६ कोसिल्लियादि कोसल्लयाई एकसि विसिण मरंति । , , 'कम्माराण' यावत् कम्माराणं पिय- .. विसयामिस पुणु धारिया 'पमत्त णियं । तओ पमत्त नर नरइहिं निवडंति ॥ " २० राओ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्थप० पाठमेदार पत्रस्य पङ्गो मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- २० प्रतिपाठ:-- ५९ २८ त्रिंशत्युत्तरशतगाथापश्चादियमधिका ६० २६ पडिच्छामि पडिक्खामो गाथा-खणदिट्ठनट्ठविहवे __ " , कइचि वरिसाणि कइवयवरिसे खणपरिय{तविविहसुहदुक्खे। २८ व्ययणे सुस्सुस(सं) ययणेसु सुस्सूसं खणसंजोगविओगे संसारे रे सुहं कत्तो॥ , ३० पेच्छिय विगयबो- पेच्छइ विगयबोहि६० २ समागमो दारिद्द समागमो य दारिद्द हित्थं प० उव्वेवया भवुव्वेवया " ३१ बाहाहिं बाहाहिं समुई , ३ °वसएण दोसएण तरि तरि ४ ०पउरम्मि' यावत् 'संगलति पुणो' स्थाने , , केरिस ?- केरिसं? अवि य पउरम्मि। जे होंति सुहपसंगा अच्छ- ६१ ६ दाहिणपव्वसेढीए दाहिणसेढीए रियमिणं सुधम्मीणं ॥ उक्तं च असोयसिरि(री) असोयसिरी चला विभूतिः क्षणभङ्गि यौवनं, , ७ अंगारमई अंगारवई (एवं सर्वकृतान्तदन्तान्तरवर्ति जीवितम् । त्र. 'मई स्थाने तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने, 'वई) अहो नृणां विस्मयकारि चेष्टितम् ॥ " , रूवेणं कलाहिं य । रूवकलाहिं । मणुयाणमेव पियसहि! ८ चित्तं रमइ ति। चित्तं भरेइ । एयाई होति चडणपडणाई। , ,, तरइ? आसन्नेहिं तरइ? तओ आसन्ने इय जाणिऊण धीरा , 'निरूविओं यावत् निरूविओ जावरूवेण विहुरे वि न कायरा होति ॥ 'भणियं' __ कामदेवो व, होय अवि य-संगला पुणो व्व धीरयाए। तओ ६ संगलति विय संगलगविय तेहिं भणियं ७ पि य त चिय पि तह चिय , १४ त्ति । परि० ति।अवि य-परि० ८ प्रथम चरणं यथा-सामन्नाणि य लोए , १५ साहुसाई(हसाई) साहसाई जुत्तिविही९ न(त)नत्थि च्छेरयं न नत्थि अच्छेरयं जुत्तिविह(ही)णाइ णाइ , १४ आय चरणं यथा वारियवामा १७ नवर बहुवीरा नवर न हु वसणे सच्छंद १८ वि तह वि तह वि हु , १५ षत्रिंशत्युत्तरशतगाथापश्चादयमधिकः , १९ सिमे वि [य] विसमम्मि वि पाठः पसरइ अणिरुब्भंती , मुंचए मुच्चई महिला मइलि व्व माणसे इच्छा। , २२ उत्तरार्धं यथा- फुरिए चिय आरंमे गुणतंतुनिबद्धा पर लच्छीए पेसिया दिट्ठी॥ वयंसि ! दुक्कटिया होइ॥ , २३ वरसं(विरचं)ति ता वर पढमयरं चिय ववसंति अणंतदुक्खुब्भवा महापावा। , २५ पेच्छामो पेच्छामो से इच्छा मणे निरुद्धा २८ 'राहिँ यावत् रोहिं ? पढियं पसरंती दुट्ठमहिल व्व ॥ जेण 'तुंगत्तणेण' च-मा जाणह जह तुंगत्तणेण , १८ पुणो वि भणियं पुणो पढियं ॥ २१ वुत्तं [तो] वुत्तंतो ६२ , १ 'महाणुभावया' यावत् 'अम्हाण' स्थाने , २२ 'तओ' यावत् तओ जाया से अव महाणुभावो को वि एस, अविगला 'सामो गइ सो चेव एस मे सव्वसामग्गी, उचिओ एस अम्हाण भत्ता जाव कहिओ सामिणीए । तओ भणियं-अहो वण्णेण सामो महाणुभाव! मा अम्हाणं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पत्रस्य पङ्कौ मुद्रितपाठः ६२ ३ कुण ४ दे " "" " "3 " "" ލމ " "" 22 23 2 " "3 "" "3 33 ६३ " " 39 " "" ވގ ވ در "" " १० ६ हलुई लहुई ७ एह एवं ९ विम्हिओ रूयाइ विम्हिओ य रुवाई पुजिया पूइया 'तं' यावत् 'गहिया' तप्पेच्छणवावडा उत्तारिमो सयमेव । अण्णो ४ सुयसु धेववेल न(तं) "" ६ " माणी' यावत् 'कीरइ' स्थाने ११ 'अवि य-' इत्येतस्य पश्चादिममधिकं पद्यम् - खणि पासिज्जइ पुलइ य, खणि रोयइ खणि सोयइ । हियइ पट्टउ कामएउ, हरिसविसायहि जाइ ॥ नीसास सरस' ८ पाठभेदाः व० प्रतिपाठः १४ १६ आणंदेण साणंदेण १७ आगच्छेति (अच्छंति ) अच्छंति १८ °सिरेण (रिणा) "सिरिणा २४ उ (न) न ३० अवयरिय सुयामो अवयरामो थोव थेववेल | वेलं । १० ११ १३ कुणसु देसु उत्तारेमो सयमेव । पढियं च - अण्णो १ ' ताओ' यावत् 'तुमं' ताओ दो वि अच्छंति । स्थाने भणिया अंगारवई जिणयत्तेण - अहं सुयामि ताव तुमं सुसु तुमं येववेलं लद्धावसरेणेव खलेणं गहिया सासरो माणी पयत्ता, अवि य जं कइए विन कीरइ तृतीयचरणं यथा- तं कयकज्जस्स पुणो पीई (इं) पीइं चिंतियं सुविणंतरेण चिंतिउं सुविनंतरि वि मोभयरोननिय सोयभरोनमिय ( सोयभरोन मिय ? ) विलविडं पत्रस्य पङ्कौ मुद्रितपाठः ६३ १४ 99 "" "" "" " 223 " "3 = = = = =: 33 "" ६४ در 22 " " " "" ލ १५ १७ "" १८ १९ व• प्रतिपाठः १५३ तमीगाथापश्चादधिकः पाठः पढियं च तीए ऊण २० सुणु ( सो अणु ) सो अणु वु (तु) ज्झ " २१ पूर्वार्ध यथा ވ दंसणसण ई (पी) ई " तारिसा (सो) झीणो ' कत्थसि यावत् 'उज्झिऊण ' गुण निहि! जियनाह! नाह ! नाह ! ति । २२ आद्यं चरणं यथा- आणेऊण घराओ इ तुज्झ तुह महायस नत्थ २८ य मे मए २ अइमिमि (निग्घि) - अइनिग्घिणाए " २४ तुमं २६ गु (तु) ह ३ १० १५ रहइ दसणखणेण पीई तारिसो छिन्नो कत्थसि गओ इहं अयंडम्म उज्झि महायरस (स) एत्थ ( णत्थि ) णाए किमिहारने प[ उ ]राण 'समाणे' यावत् 'दुक्कड' तुज्झ हा हा दइयय ! सामिय ! वि इहारने पवराण कवाडे दिट्टं वीयरा यदेवहर यं 'हा मिच्छामि दुक्क १८ 'सिरिम" यावत् सिरिमईए सो चेव 'उवरि' एस मे भत्तारो ति ta कहिओ रिसो मम उवरि २४ जइ जं २६ सज्जणो य सजणेण २७ तो सो २९ १७२ तमीगाथापश्वादियमधिका गाथा जो अणुकूले रच पडिले विप्पियं समायरइ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठमेवा पत्रस्य पक्की मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पतौ मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठःपडिबिंबह अहाउ ६६ १ उस्स(स्सू उच्छूरं व परजणे सो सुह जियइ ॥ २ सहसा सहासं ६४ ३१. पणयं विनय ३ सोहणयं ति सोहण कहाणयं ति ६५ १ 'पुरिसाणं' यावत् पुरिसाणं विसया य , ४ 'तुज्झ' जाव 'राउले तुज्झ एत्थ हत्थाओ 'भणिय हवंति। सिरिमईए जाइ ? मम पुण पढियं राउले ५ अणेयरूयभरिया अणेयरयणभरिया ६ 'बीयाए यावत् बीयाए वि तहेव , ८ अनंच पढियं च 'तइय” । संजायपञ्चयाए , १० १७५ तमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः संहासं जंपियं ति। अनं च-कुप्पह कुप्पाविजह तओ तइयं जइ इच्छह सासयाई सुक्खाई। " ८ तइयाए दंता वि य णं विणु चूं तइयाए वि , १२ लोगअट्टारिउ ति । लोगं, अवसीइओ डियाए रायं न बंधति ॥ निवेइयं , १२ 'तीए' यावत् 'सो तीए वि एगागिणीए त्ति । तओ निवेइयं , १५ खेलाविओ हत्थी, खेल्लाविऊण करण' वि जिणयत्तो' स्थाने कुलहरगमणं न बहु करण मयं ति। ता एत्थ ठिया चेव परि. " १६ गवव्व(गंधव्व) गंधर्व ,, ,, निचल' यावत् निचलकण्णो दिनो क्खामि त्ति चिंतिऊण भणियं-एवं 'साहु . लोगेहिं साहु हत्थी हत्थी वि च ताव एवं । सो रूविणा स्वधारिणा वि जिणयत्तो १७ सोयासिणीओ सोवासिणीओ २१ 'एयं यावत् एवं चिंतिय एगते १८ उव्यहमाणीओ उ- उवहासमाणीओ 'कुमारो' भणिओ तेण कुमारो (कोयं अच्छति रूपेण अच्छंति - २६ हकारेह हकारावेहर ... २७ भणियाओ- राया भणियाओ ताओ१९ भणिय-भणेग मणियं-आम, अणेग राया एत्यंतरम्मि जिण एत्यंतरम्मि हसिऊण , २८ पचिहाणह(पञ्चहि- पञ्चहिजाणह ति जिण ण्णाह !) त्ति २३ पुंसंरा (पुरिसे) पुरिसे ६७१ उण एस उण स एस ३ चलणेस " बोलावेमि सा(ताओ) बोलावेमि हसावेमि सामिचलणेसु तओ य। तओ . ४ °सरियाओ कुमा- °सरियाओ ताओ वसं(य)सया वयंसया रीओ पडि कुमारं । तओ पडि' पुच्छेजह । पुच्छेजह । तेहिं , ६ सत्तिं (किंतु) किंतु एवं ति भणियं-एवं ति। ___ ७ राइणा (णो) राइणो 'चरियं यावत् चरियकप्पियाणं ८ वती आगासेणं °वती य आगासेणं 'भणिऊण' चरियं पुच्छेजह । वेयर्ल्ड गयाई वेयर्ल्ड एवं ति भणिऊण , ९ संस(प)यं फेडेह संपयं फेडेइ एस , २९ इयरेहि तेहिं एस(य) वन वन , ३० 'आबल्ल" यावत् आइल्लप्पभिइ कहिउँ , १० वसुभिन्नपुलइओ वसबहलपुलइओ . 'जाव' वसंतउराओ जाव , ११ गयणेणं रायाणं जि० द. १२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A८ पाठमेदाः पत्रस्य पनी मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पडौ मुद्रितपाठ:- व० प्रतिपाठः६७ १३ फेडिय(या) फेडिया ६९ ७ १८९ तमपद्यपश्चादिममधिक वृत्तम्१४ कणयसप्पह "कणयसमप्प दत्तं बाहपि नैतदेव सफलं यत् पात्रहीने , १५ विमिया विम्हिया धनं, क्षिप्त वल्वजकष्टकाकुलनले क्षेत्रे " , का(रा)य राय खिले बीजवत् । १७ सुसइ य सूस रागद्वेषतमोमलव्यपगते पात्रे गुणा१७६ तमीगाथापश्चादियमधिका गाथा लाते, दानं खल्पमपि प्रयाति बहुधा तुह सोहम्गगुणिंधण न्यप्रोधवीज यथा ॥ वडियजलणावली महं कामो । , ९ आपःग्नेहित° अधिः स्नेहित तह कुणसु सुयण ! जह सो , १२ विनश्येत् (त) विनश्येत पसमिजइ संगमजलेण ॥ , १३ १९२ तमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः१९ पूजिऊण पुच्छिउण मा मंस्था क्षीयते वितं दीयमानं २२ ताण समं अउव्वं ताहि समं अउव्वं तपखिनाम् । , २३ वद्धाविओ तओ वद्धाविओ कूपारामगवादीनां ददतामेव सम्पदः ॥ , २९ उत्तमंता(गे) उत्तमंगे। अहवा, ३० °सुहेण वच्चए सुहेण अच्छतस्स " १६ कुहम्मेण कुपत्तम्मि ६८ १ 'अन्नया' इत्येतस्य पूर्वमयमधिकः पाठः , १७ उत्तरार्ध यथा- जह सप्पस्स विदिनं खीर पि विसत्तणतओ अणेगाई वरिसलक्खाई रजसुहः मणुहविज(हवंताण) तओ मुवेइ॥ , वसंतउरउजाणवरे वसंतउरवरुखाणे २० पर (लि)हरह परिहरह चयह २ उवरोहिएण च पुरोहिएण मुय[ह] ६ परियणेण । परियणेण गओ। " २११९६ तमीगाथापश्चादयमधिकः पाठः८ वंदणयं जेण-यो यत्र जायते जन्तुः , रिसिपुरओ सूरिपुरओ स तत्र रमते चिरम्। १० वि य यतः सर्वेषु सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः॥ ११ आद्यं चरणं यथा- देसे कुलं पहाणं अपरं च-एकस्स कए नियजी, १७ ठाणाणि । अपरं- पयाणि । अपरं च वियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ। , १८ भुवणम्मि लोयम्मि दुक्खे ठवंति जे के , २० वर्गाः (र्गः) वर्गः वि ताण किं सासयं जीयं? ॥ , २५ जलधिप्रपतितं जलधिविभ्रष्टं । सञ्चवयणस्स इहलोए परलोए य पञ्चओ , २६ प्रतिभम् त्ति । जेण २६ अलियं , २८ "नराणा यावत् नरेष्वभ्यधिको विश " २६ अलियवयर्ण 'पशुमि षस्तस्माच्च भ्रष्टा , २८ महातवो। महातवो । जेणपशुमि , २९ वरमरस परमरस' , २९ प्रोक्तः धर्मः " , विहिए(य) विहिय ६९ १ द्वितीयचरणं यथा- मणुयभवे अब्भप- , ३० वेयणासमणो । वेयणापसमो डलसारिच्छे ७० २ सयलं सवलं , ५ धन्या सेयं धन्यस्येयं , ३ मुसिर' वंदणाइ प्रतिमम् मुसिण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतंबं! पाठमेदाः पत्रस्य पडी मुद्रितपाठः- व० प्रतिपाठः- पत्रस्य पढौ मुद्रितपाठ:- व० प्रतिपाठ:७० ४ अप्पा खविओ ताहा खविया अवि ७० १९ २०७ तमीगाथापश्चादियमधिका गाथाअवि अप्पणो अप्पणा सज्झाएण पसत्थं ५ द्वितीयचरणं यथा-आवट्टियकढकटेंतत. झाणं जाणइ य सव्वपरमत्थं। सज्झाए वटुंतो ६ या(पा)इयसि पाइहिसि खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥ ८ यप्पणो यप्पणा " . २१ संचिणति अजिणति ९ ताडण कसघाय तोत्तयकसघायभंकु- , २२ 'कायव्वो।' इत्येतस्य पश्चादयमधिकः अंकुसनिरोहो सनिरोह पाठः-जेण-जीयं जलबिंदुसम 'वेयण 'छेयण संपत्तीओ तरंगलोलाओ । सुमिणयसमं च पेम्म २०४ तमीगाथापश्चादयमधिक:पाठ: धम्मम्मि य आयरं कुणह ॥ अहवा-परि मे अप्पा देतो संजमेण , २४ 'गंतव्वं ॥' इत्येतस्य पश्चादधिकम्तवेण य। मऽहं परेहि दम्मतो बंधणेहि वहेहि तथा च , २७ प्रथमचरणं यथा- आरंभसयाई जणो य ॥ भणियं च किंपि , , विउलेण नियमेण , ३१ 'भयवं!' यावत् भयवं ! एवमेयं । , १५ ना[सौ] नासौ . "मेयं ।' . , २०६ तमश्लोकपश्चादयमधिकः श्लोकः- ७१ २ कहाणयावसाणे कहावसाणे एको मे सासओ अप्पा नाणदसणसंजुओ। ७२ ३१ मरणधम्मीण ठाणधम्मीण सेसा मे बाहिरा भावा १६ आयरियसयासे आयरियसमीवं सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १८ जेण पढियं च१६ जिणयत्तेण- जिणयतेण सविणयं , २० 'छ?' यावत् छहमदसमदुवाल,, १८-१९ द्वितीयतृतीयचरणे इंदियमलणं कसाय सेहिं मासिहि यथा- — दंडाणः । मंजइ छम्मासिहिं । ता कि पसरो सावय! पावइ सिद्धि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धविशुद्धफलकम् संसारे " २८ पत्रस्य पनी अशुद्धं विशोध्यम् पत्रस्य पङ्की अशुद्ध विशोध्यम् २ १८ पायारोरमणीओ पायारो रमणीओ ४५ १८ वियसिरि सरायमु- वियसिरीए अणुरा३ ५ कयंत कयंत! हो(?)पसंत यमुहोपसंत , १५ जीवणोवाओ जीवणोवाओ? , २० हियय(य) हियय " १९ कहमहयं कहमयं। ४७ १५ सि ४ ७ मलिएहि म(मि)लिएहि ४८ ५ सामी। सामिणी। , १० य सोवासिणि यऽसोवासिणि , ७ कालेग काले ण १२ ४ कहं चि कहंचि ४९ ८ वि रहे विरहे , २२ बंभण वंभण (के भण्णइ.) ५. , १८ जर-मरण-वाहि , गइंद जर-वाहि 'गइंद!? , २३ सोहं सोहं ? " , बहुलम्मि संसारे बहुलम्मि नबरि १३ ६ 'सारसों' इत्येतस्यावगन्तव्येयं टिप्पणी"प्रथमप्रश्नोत्तरः सालक्ष्मीः, द्वितीय , २० पविसिय' पवासिय प्रश्नोत्तरः अरसा रसविकलः, तृतीय मए प्रश्नोत्तरः सारसः पक्षिविशेषः। . ५२ १४ चिंति , २९ कुंकुमुप्पं (प्पभ) 'कुंकुमुप्पं (मप्पभ). , २७ तणलागम्मि सम- तणलग्गविसमसहित १९ २२ सिवा सत्था सिवासस्था दिएण पवणा' यपवणा २० ३ किं काय किंकायव २८ जीएणं जीएण २४ ७ राजकुमार राजकमारी . ५३ १० अदरिसिणी अदरिसणी " १७-१८ धूयाविओ य विसं- धूयाविओयविसं " ११ चिंतमाणो चिंतेमाणो २७ वयणमेयं वयणामय २६ ३१ १ तेन मध्यं षण्मा १० वीसत्य वीसत्वं सान्तरम् १ तेन मह्यम्। ११ °सवणविउद्धा 'सवणा विउद्धा ३४ १२ भारद्धो मारद्धो (?) , १३ वि सत्यो वीसत्यो ३६ २७ लद्धा धण्णा लद्धा(ड)धण्णा' ५५ १४ कुसीलाण कुलीणाण ३८ १६ अणु जाणाविय अणुजाणाविय , २९ °प्पयारे विसय 'प्पयारविसय ३९ १९ मायामित्तहिँ मायामि(वि)त्तहिँ ५६ १७ भारमोल्लो सारमोल्लो ४१ १८ खयं । [...ताह खयं ति । न य एत्य ५७ ८ पंडवेहि पत्यहि वासाण साहवासाण , २१ कंठट्ठिएण कंठदिए वि ४२ २ दप्पणछायं सम दप्पणछायासमं ५८ २२ रक्खिउं वञ्चित्रं , १२ नारि , २४ कुणयति कुणइ ति , ३१ निचंसुति निचं सुति ५९ ६ कोसिल्लियादि कोसलियादि ४३ ९ जसवतीए जसमतीए , १० दिट्ठा दिट्ठाओ ४४ ७ उवाइयं उच्चाइयं प्रथमपङ्केः पूर्व 'पियविप्पओगदुव्विसह, २२ सुलद्धी सुलद्धो बहुकिलेसया' इत्यात्मकं प्रथम चरणम४५ १ गया गयाओ धिक वाच्यम्, ततश्च चतुष्पादात्मकं ८ गहिया गहियाओ पर्व जातम् । नाइ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र पत्रस्य पढौ अशुद्ध विशोध्यम् .. पत्रस्य पनौ अशुद्धं विशोध्यम् . ६. १ वीणत्त वीणत्तण ६२ २८ ति । तओ ति। तीए भणियं , २६ पउिच्छामि पडिच्छामि(मो) एवं ति । तओ फलयं , २९ पुप्फविमाण पुप्फगविमाण है ३ कडीओ कहिंचि कडीए कहिंचि ६३ २ तुमं वि तुमं पुण पट्टीओ पट्टीए , अंगारमई अंगारवई ७ अंगारिणी अंगारवई , ३ पसुत्तओ पसुत्तो १३ ईईसा ईइसा , ९ जइ वि नरो देइ जइ देइ नरो बाहिराई १६ वाहिराई , २१ मोत्तुं गिकिय(वं) मोत्तूणिक्कियं सूरो २२ रहइ इहई २१ लच्छी पमुंचए लच्छीए मुंचए हरी- , " २५ जुण्णदुर्ग जुण्णदुमं हरी (रि) ,३०-३१ द्वितीय-तृतीयचरणे यथा चक्काण जुयं सुपीइसंजुत्तं । भिन्नं पावाए , २७ कुरियाए छुरियाए पुरा वि [य] मईदो वि मइंदो २ दलं च मोत्तव्वं (१) फलं चेव भोक्तव्वं 'तुम्ह' इत्येतस्य पश्चादयं पाठोऽधिको । ३ विलविलेण विलविएण वाच्यःअम्हेहिं ति । आइट्ठा अम्हे असोगसिरि , १० विसयाणं सिवियाणं विसयाण सेवियाणं णामेण विज्जाहरचक्वट्टिणा नियधूयाव- , ११ अयच्छ(पत्थ) अप्पत्थ रणनिमित्तं पुरिसरयणगवेसणनिमित्तं । __, " १६ कुणमाणाए। १६ कुणमाणीए भणमाणीए , १० अंगारमई भंगारवई , १७ वुत्ततो वुत्तंतं , २२ सहि सहि! , १२ १४७ तमी गायेडशी वाच्या ,३०-३१ निसिय(१)। न जलंति धगंति न मिसिमिसंति न निसियं । तम्मि " यम्मिकरेतो करेंतो मुयति धूमवट्टीओ। निहुयाई मामि पियविरहियाण अंगाई ६५ ३ वग्गाइ(वंगाई)भग्गाई डझंति ॥ भग्गाई भग्गाई " , ५ परिसंथवणिया ताए परिसंथविया सा १८ दंसिउं यं उ दसियं च तत्य ताहिं थुउवास (?) उवासगरूयत्तणं , ७ पडिच्छामो पडिक्खामो गरूयत्तणं , ९ परिहववासओ(वसं वा) " १९ धम्मकहा धम्मकहाणयं परिहवकयं वा , भंगारमइ(ई)ए अंगारवईए , २० एवंविहाओ एवंविहा , २० नियडिवजए दवड, , २१ एयविहासि(हि)गारं एवंविहं सिंगारं तग्गोहंसए (१) न य पडिवजए। , २६ तत्थ । ताओ जत्थ ताओ दव्वओ, तओ दसए ६६ ४ उवगच्छह अवगच्छद , २२ पडिवो मए एस, परिचत्तो मए एस, ६ यवलंभोओ(१) बिइओ लंभओ गहिओ धम्मो गहिओ तुज्झ ९ वहु(पण्हु)त्तरं पडुत्तरं संतिओ धम्मो , ११ उम्मूलिय खंभो उम्मूलियखंभो २४ 'एगत्थ 'दो वि एगत्य , १४ वावणगेण वामणगेण , २८ अंगारमई अंगारवई १६ अट्टालिओ अप्फालिओ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशोष्यम् शुद्धिपत्र पत्रस्य पतो . अशुद्धं विशोध्यम्, पत्रस्य पछी अशुद्ध ६६ १९ पिक(करि)हामो पिकाहामो ६९ ११ भूले 'सूले(ला) २० कि (के) णावि केणावि , १६ सुई विवाहो विवाह , २४ वयं पिज परिवकं(त्तणं?) पडिवनं ७. १ संडासविडि चवियं संडासविरिंचिवि. अंगारमती[f] अंगारवतीणं वयणे [ग] त्यए वयणे ६ विसंवओ विसंवाओ , २ मांस रस मामारसं ९ पच्चक्खी हो(हू)ओ पञ्चक्खीहओ . ठमोह ऽढमेहि , २५ पड(रि)यरेणं चडयरेणं १० तुह खलण नासब- मुहखलण-नासर्व. ६८ ७ साहगण उडुगण न्धण डहण धण-डहर्ण , , पाहिणी काउं पयाहिणीकाउं एकोऽहं अहमेको . पिव एस चउरंगे . ६९ ९ विपुलान् महास्क- विपुलं महास्कन्धम् , २३ बीहयरवास दोहरपवास न्धम् (न्धान्) २७ हारणे कारणे , १० ब्रह्मचारिणः पात्रे ब्रह्मचारिसत्पात्रे , ३० चंघउ चंगउ * . . . .... सचउरेंगे . .: - - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES Works in the Series already out. अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि 1 मेरुतुङ्गाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि 15 हरिभद्रसूरिषिरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) मूल संस्कृत ग्रन्थ. 16 दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. " 2 पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतिद्यतथ्यपरिपूर्ण 17 मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. अनेक निबन्ध संचय. 18 कवि अब्दल रहमानकत सन्देशरासक. 3 राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. 4 जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. 19 भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. 5 मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. 20 शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, 6 यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. 21 कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरिउ. (अप०) 7 हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. 22 महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्राकृ०) 8 भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. 23 भद्रबाहुसंहिता. 9 प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषान्तर. 24 जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा.) 10 प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. 25 उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. 11 सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित, 12 यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. 26 जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. 13 हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. 27 कोऊहलविरचित लीलावई कहा (प्रा.) 14 जेनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. 28 जिनदत्ताख्यानद्वय. Dr.G. H. Buhler's the Life of Hemachandracharya. Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. Works in the Press. संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावलि 1 खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि. 9 महामुनिगुणपालविरचित जंबूचरित्र (प्राकृत) 2 कुमारपालचरित्रसंग्रह. 10 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्र, (प्राकृत) 3 विविधगच्छीयपट्टावलिसंग्रह. 11 गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. 4 जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, भाग 2. 12 नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य. 5 विज्ञप्तिसंग्रह-विज्ञप्ति महालेख - विज्ञप्ति त्रिवेणी 13 महेन्द्रसरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. (प्रा०) आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. 114 स्वयंभूविरचित पउमचरिउ ( अपभ्रंश) 6 उद्द्योतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा. . 15 सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन, 7 कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह... 16 कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र-सटीक 8 दामोदरकृत उक्तिव्यक्ति प्रकरण. 17 गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र.