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________________ किंचित् प्रास्ताविक सिंघी जैन ग्रन्थमालामां गुम्फित करवा माटे पाटणना जैन भण्डारोमाथी जे केटलांक प्रन्थरूप पुष्पो में सन् १९३२-३३ मां चूंटी काढ्यां हतां तेमांनी ज प्रस्तुत प्रन्यांकमां प्रकट थती 'जिनदत्ताख्यान' नामनी बे पुष्पकलिकाओ पण छे. मात्र पाटण अने जेसलमेरना भण्डारोमां प्राचीन ताडपत्र उपर ज लिखितरूपे उपलब्ध थती आ बन्ने कृतिओनी प्रतिलिपि करवाने काम भाई अमृतलाल पण्डितने सोंप्यु. ताडपत्रीय लिपिना वाचनमां निष्णात बनेला अने साथे साथे प्राकृत भाषाना अभ्यासमां पण सुप्रविष्ट थएला पं. अमृतलालनी सुवाच्य अने सुपाठ्य प्रतिलिपिओ जोई, प्रस्तुत कृतिओनुं संपादनकार्य पण एमना ज द्वारा कराववानो में विचार को अने प्रेसकॉपी प्रेसमां छापवा आपी. परंतु ग्रन्थमालाना बीजा अनेकानेक प्रन्थोनू संशोधन - संपादन - मुद्रण कार्य आदि एक साथे चालतुं रहेतुं होवाथी तेम ज विश्वव्यापी द्वितीय महायुद्ध अने भारतव्यापी खराज्य प्राप्तिविषयक आन्तरिक अहिंसक-विग्रह आदिना व्याघातोने लीधे, ग्रन्थमालाना प्रस्तुत ग्रन्थांकनुं मुद्रणकार्य बहु ज अनियमित अने अव्यवस्थितरूपे चालतुं रह्यं. युद्धजन्य परिस्थितिने लईने प्रेसनी कार्यशिथिलता तेम ज कागळोनी दुर्लभताने लीधे ६-८ महिनामा एकाध फार्म छपाईने तैयार थतो. आ रीते सन् १९४० मां प्रारंभेला आ नानकडा प्रन्यांकनु मुद्रणकार्य १९५० मां लगभग पूर्ण थयुं अने आजे हवे १९५३ ना जून मासमां आ ग्रन्थ आ रीते पूर्ण थई-मुद्रित थईने, विज्ञ वाचकोना करकमलमां उपस्थित थाय छे. सिंघी जैन ग्रन्थमालामा प्रकाशित करवा माटे ग्रन्थोनुं चयन अने निर्धारण एक खास आदर्शने लक्ष्यमां राखीने करवामां आवे छे. जे प्रकारना ग्रन्थोना प्रकाशनथी जैन संप्रदाय अने जैन संस्कारनी विद्वत्समाजमां विशेष प्रतिष्ठा थाय अने जैन विद्वानोए भारतीय संस्कृतिना सात्त्विक खरूपने सुसंस्कृत, सर्वोपयोगी अने सुसमृद्ध बनाववा माटे केवी जातनी साहित्यिक सुन्दर रचनाओ करी छे अने ए रीते भारतीय वाङ्मयनी केवी आदर्शभूत उपासना करी छे तेनु उत्तम चित्र, संस्कारप्रिय शिक्षित समाजने दृष्टिगोचर थाय एवा विशिष्ट हेतुने लक्ष्यमां राखीने ग्रन्थोनुं गुम्फन करवामां आवे छे. प्रस्तुत जिनदत्ताख्यान नामक कृति बे दृष्टिए विशेषत्ववाली छे. एक तो जैनकथानकनी दृष्टिए अने बीजुं प्राकृत भाषा साहित्यनी दृष्टिए. कथानकगत वस्तुनो संक्षिप्त सार, पं. अमृतलाले पोतानी प्रस्तावनामां आप्यो छे, ते परथी कथा घटना, खरूप वाचकोना लक्ष्यमां सरलताथी आवी शकशे. प्राकृत भाषाना अभ्यासिओनी दृष्टिए आ बंने कृतिओ बहु ज सरल अने सुबोध रीते रचाएली छे तेथी ए भाषानो सामान्य परिचय धरावनार व्यक्ति पण, ए कथाओ सारी पेठे समजी शके तेम छे. तुलनात्मक भाषा विज्ञानना अभ्यासिओने पण एमांथी अनेक नवा शब्दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002776
Book TitleJindattakhyana Dwaya
Original Sutra AuthorSumtisuri
AuthorAmrutlal Bhojak
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1953
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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