________________
जिनदत्तस्य धर्मोपदेशश्रवणम् । [३३६-119) अक्खाओ पुवभवो, गुरुणा दाणं च जह पुरा दिन्नं । जेणऽह संकाविरई,निबंधणं अंतरायस्स ॥ ३३६ ॥ उववूहिओ पहेणयहत्थाहिं तह य चउहिँ कन्नाहिं । अणुमइफलेण ताओ, जायाओं तुज्झ जायाओ ॥ ३३७.॥ एयं सुणमाणाई, पंच वि जाईसराणि जायाणि । संजायपच्चयाई, तह त्ति वंदंति मुणिनाहं ॥ ३३८ ॥ सुणिऊण इमं सवं, संपत्तो विम्हयं नयरलोगो । जंपइ अहो महंतं, माहप्पं दाणधम्मस्स ॥ ३३९ ॥ जिणयत्तो वि विचिंतइ, नूणं अइमूढमाणसो अहयं । जइ दिट्ठपञ्चओ वि हु, धम्मम्मि न उजमं काहं ॥ ३४०॥ अहवा किं बहुएणं, अणवजं लेमि अज्ज पवजं ।
अन्नह जरजजरिओ, होहं सोयस्स आवासो ॥ ३४१ ॥ एवं संपहारिऊण पणमिओ णेण भगवं । भणियं च
भयवं ! संसारसरे, संखुत्तो विसयविसमपंकम्मि । होज निहणं गओ हं, जइ तुह पाए न पेच्छंतो ॥ ३४२ ॥ ता एस जणणि-जणए, अणु जाणाविय करेमि साहल्लं । .. तुह पयमूले मणुयत्तणस्स वरधम्मगहणेण ॥ ३४३॥ तत्तो देवाणुपिया!, अहासुहं मा करेहि पडिबंधं । इय गुरुणा संलत्ते, वंदिय नयरं अणुपविहो ॥ ३४४ ॥ चलणेसु निवडिऊणं, भणियाई तेण जणणि-जणयाई। अणुजाणह लेमि वयं, सुहंकरगुरुस्स पयमूले ॥ ३४५ ॥ सोऊण असुयपुवं, दुम्मियहियएहिँ तेहिँ पडिभणियं । मा लवसु पुत्त ! एयं, दुहावहं अम्ह हिययस्स ॥ ३४६ ॥ अंधलयजटिकप्पो, एको चिय पुत्त ! अम्ह संजाओ।
ता परिवालसु सुंदर !, जावम्हे जीविमो ताव ॥ ३४७ ॥ जिणयत्तेण भणियं
सोऊण नरयवासे, विसयविवागुब्भवाइँ दुक्खाई। न तरामि ताय ! ठाउं, खणं पि खुत्तो विसयपंके ॥ ३४८॥ दुक्खाइँ दुरंताई, असंखसंखासु तिरियजोणीसु । पेच्छंतयस्स तायय!, संसारे मे धिई नत्थि ॥ ३४९ ॥
१ जाताखवायाः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org