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________________ जिनदत्ताख्यान जिनदत्त परदेश जवानी अनुकूलता साधवामाटे ज विमलमतिनी साथे आवेलो होई प्रसंग मेळघवानी प्रतीक्षा करे छे. एक दिवस जिनदत्त अने विमलमति उद्यानमा फरवा गया. त्यां प्रसंग जोई जिनदत्ते विमलमतिनी नजर चूकवी नजीकमां जई वर्णपरावर्तिनी गुटिकाथी पोतार्नु रूप बदली दक्षिण दिशा तरफ प्रयाण कयु. थोडा समयमां ज पोताना पतिने न जोवाथी विह्वळ बनीने मूछित थएली विमलमतिने जोई, सखीओ तेने स्वस्थ करे छे, तेम ज तेनां माता-पिताने खबर आपे छे. बधां जिनदत्तनी शोध करे छे पण क्याई पत्तो लागतो नथी. माता-पिताना सान्त्वनथी विमलमति कंईक दृढ थई भोजन सिवायनो पोतानो सर्व समय साध्वीओनी वसतिमां धर्मानुष्ठानमां गाळे छे. जिनदत्तनुं पर्यटन तथा श्रीमतीपरिणयन __ जिनदत्त चालता चालतां दधिपुर नगरनी बहार एक दरिद्र सार्थवाहना सुकायेला बगीचामा बेसे छे. विशिष्ट आकृतिवाळा जिनदत्तने जोईने दरिद्र सार्थवाहे विनंति करतां वनस्पत्यायुवेदना ज्ञानथी जिनदत्ते ते बाग फळ-फूलयुक्त-नवपल्लवित कर्यो. दरिद्र सार्थवाह पोताने पुत्र न होवाथी जिनदत्तने पुत्रवत् मानी खगृहे लई जाय छे. थोडा दिवस पछी 'तात ! समुद्र पासे होवा छतां आवी दरिद्र अवस्था शामाटे भोगववी' विगेरे जिनदत्तना वचनोथी प्रेराई दरिद्र सार्थवाह व्यापार माटे जिनदत्तनी साथे वहाण भरी सिंहलद्वीप गयो. त्यांना पृथ्वीशेखर राजाने मळी ते बन्ने एक कुलपुत्रने त्यां रह्या. ते कुलपुत्रनी माता जिनदत्तने पुत्रनी पेठे ज राखे छे. एक दिवस वृद्धाने रडती जोई जिनदत्ते रोदननुं कारण पूछतां वृद्धाए कह्यु-'आ नगरना राजानी श्रीमती नामनी कन्या महाव्याधिथी पीडित छे. तेनी पासे रात्रीए सुनार माणसनुं मरण थतुं होवाथी राजाए नगरमाथी प्रतिदिन एक माणस कुमारी पासे सुवा माटे मोकलवा आज्ञा करी छे. आजे मारा पुत्रनो वारो आववाथी हुँ असहाय रडुं छु' वृद्धानी आनाकानी होवा छतां तेना पुत्रनी रक्षा करवा माटे जिनदत्त संध्यासमये स्नानविलेपनादि करी हाथमां खड्ग लई राजा-प्रजाने विषाद पमाडतो वृद्धापुत्रनी बदलीमा सुवा माटे राजकुमारीना महेले जाय छे. क्याथी भय हशे ? एनुं अन्वेषण करवा माटे भोंयतळीयुं चोकसाईथी तपासी मेडा उपर जई उदरव्याधिथी पीडित राजकन्याने विश्वस्तचित्ते जोई जिनदत्त मधुरवाणीथी पूछ्यु-'सुंदरि ! तने कया प्रकारनी पीडा छे ?' श्रीमतीए पोतानुं उदर बतावी 'मारे आवा तेजस्वी पुरुषने बचाववो जोईए' एम विचारी कह्यु-'तमे राजानो आदेश पाळ्यो, जरा अंधकार थाय एटले आ महेलनी नजीकमां क्यांक सूई रहेजो, कारण उंध्या पछी ज्यारे हुं जागं छं त्यारे नजीकमां सुनार माणसने मरण पामेलो जोउं छं.' जिनदत्त तेना सौम्य खभावथी आकर्षाई 'सुंदर ! तने एकाकी छोडीने मारे जीव बचाववो नथी' एम कही तेनी नजीकना पलंगमां बेसे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002776
Book TitleJindattakhyana Dwaya
Original Sutra AuthorSumtisuri
AuthorAmrutlal Bhojak
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1953
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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