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[१५४-१६५] जिनदत्ताख्यानम् । सयासाओ इह भयं ? सा भणइ - 'न याणामि केवलं सुत्तविउद्धा पासवत्तिणं विगयजीयं पेच्छामि ।' जिणयत्तो वि 'अहो. सोमसहावा एस' ति चिंतिऊण 'सुंदरि ! तुमं एगागिणिं पमोत्तूण न मे जीवरक्खाए पओयणं' ति भणमाणो निविडो तयासन्नपल्लंके । जाव तचिंताए सा निदं न पावइ ताहे णेण पारद्धं कहाणय।
जिनदत्तकथिता विजयकुमारकथा ।सुंदरि ! अवन्तिदेसे, उजेणी नाम पुरवरी रम्मा । दरियारिदप्पदलणो, जयतुंगो तत्थ वरराया ॥ १५४ ॥ चंदवई से भजा, विक्कम-अहिमाण-चायगुणनिलओ। परकजसाहणरई, विजओ ताणं च वरपुत्तो ॥१५५ ॥ सो अण्णया कयाई, केणावि नरेण पंजलिउडेण । अब्भत्थिओ किर म्हं, कुण साहेजं वरकुमार! ॥ १५६ ॥ अन्ज कसिणहमीए, रत्तिं इच्छामि साहिउं मंतं ।
अमेण सहाएणं, न तीरए साहिउं सो उ॥ १५७ ॥ अवि य
दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहिं पि धारिया एसा । उबयारे जस्स मई, उपयरियं जो न पम्हुसइ ॥ १५८ ॥ एवं ति तओ मणियं, संझाए खग्गपोरुससहाओ। पत्तो ते[हिटुं, मसाणभूमि विजयकुमरो ॥ १५९ ॥ जत्थ पिसाया दीसंति मीसणा मंसकत्तिया हत्था । भीमट्टहासदुप्पेच्छमुत्तिणो रक्खसा तह य ॥१६०॥ फेकंति सिवा सत्था, डाइणिओ किलिकिलिंति सहयो। कीलंति कवालकरा, भूयसमूहा जहिं विविहा ॥ १६१ ॥ अह साहगेण तुरियं, मंडलयं पूइयं अइविसालं । काऊण बलिविहाणं, उवविट्ठो तस्स मज्झम्मि ॥१६२॥ भणिओ विजयकुमारो, अपमत्तेणं तु रक्खियको है। उहिस्सति सुमीमा, विभीसियाओ धुवं एत्थ ॥ १६३ ॥ वा खम्गवग्गपाणी, चिट्टइ एगग्गमाणसो कुमरो। इयरो वि मंडलत्थो, पारद्धो साहिउं मंतं ॥१६४ ॥ अनो वि गयणचारी, कुमरं अह भणइ पायसंलग्गो। किर अन्भत्थियसारो, सरणागयवच्छलो तं सि ॥ १६५ ॥
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