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जिनदत्तकथिता विजयकुमारकथा ।
[ १६६-१८१ ]
ता एसा पाणपिया, भजा जत्तेण रक्खियता मे । जेऊण वेरिखयरं, अहयं जा एमि अचिरेण ॥ १६६ ॥ किं कायद्यविमूढो, विजयकुमारो वि चिट्ठई जाव । उप्पहऊणं खयरो, ताहे अहंसणं पत्तो ॥ १६७ ॥ एत्थंतरम्मि कयघोरविग्गहो गरुयरोसदुप्पेच्छो । उग्गीरियकरवालो, समुट्ठिओ रक्खसो घोरो ॥ १६८ ॥ पण रे रे तुम्हं, एत्थ महं संतिए मसाणम्मि । को अहिगारो ठाउं, सवं रयणि निरासकं ॥ १६९ ॥ ता भयह किं पि सरणं, अहवा तं कुमर ! निरवराहो सि । पहणेमि इमं खुद्द जंपतो तम्मुहो चलिओ ॥ १७० ॥ ता सुंदरि ! मा बीहसु त्ति भणिऊण धाविओ कुमरो । पारद्धो तेण समं, जुज्झेउं साहसेकरसो ॥ १७१ ॥ अनोनं पहणंता, अक्कोसंता य फरुसवयणेहिं । संपत्ता जा दूरं, तिरोहिओ रक्खसो ताव ॥ १७२ ॥ पडियागओ कुमारो, पिच्छइ तं साहगं विगयजीयं । ताहे विसायविहुरो, पलोयए खेयरिं तेण ॥ १७३ ॥ तंपि हु न जाव पेच्छइ, ताहे अत्ताणयं बहुपयारं । निंदर अहो अणत्थो, रहओ सरणागयाण मए ।। १७४ ॥ धी ! मज्झ वीरवित्ती, गिजइ पडिवन्नपालणं जं च । हा हा की सुववन्नो, अहयं कुलफंसणो पुत्तो ॥ १७५ ॥ एत्थंतरम्मि सहसा, पत्तो विजाहरो भणइ कुमर ! | अप्पिञ्जउ मम दइया, कुलभूसण सुंदरसहाव ! ॥ १७६ ॥ नत्थि परकजतिसिओ, तुह बीओ एत्थ जीवलोगम्मि । जयतुंगरायवंसो, पयासिओ तुज्झ जम्मेण ॥ १७७ ॥ जह जह थुबइ कुमरो, तह तह लोणओ दर्द होइ । न तरह उद्विग्गमणो, किंचि वि पडिउत्तरं दाउ || १७८ ॥ वारं वारं पुच्छंतयस्स कुमरो न जाव पडिभणइ । सो आह तुज्झ कजं, तीए जइ जामि तो अहयं ॥ १७९ ॥ तुम्हारिसस्स पुरिसस्स मह पिया जइ वि जाइ उवओगं । लद्धं जं लहियवं, माकुणसु तुमं विसायं ति ॥ १८० ॥ वोत्तूर्ण उप्पइओ, खयरो कुमरो वि चिंतए ताव । ही ! धिरत्थु पावो, निम्मलकुलदं (कं) सणो अहयं ॥ १८१ ॥
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