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________________ जिनदत्ताख्यान राजानी रजा लई चार पत्नी अने परिवार साथे अतिवैभवथी वसंतपुर जाय छे. त्या जई पिताजीने पायवंदन करी, चार पत्नीओ साथे हर्षाश्रुवाळी माताने पगे पडी, खजनोने सन्मान आपी, देवमंदिरोमां पूजा करावी, कायम माटे त्यां ज रहे छे. काळक्रमे चारे स्त्रीओने पुत्र थाय छे. जिनदत्तनो त्याग अने सद्गति । __ अन्यदा वसंतपुर नगरना उद्यानमां शुभंकर नामना अतिज्ञानी आचार्य आवतां नगरजनोनी साथे जिनदत्त पण पोतानी पत्नीओ अने मित्रोनी साथे तेमनुं वंदन करवा जाय छे. त्यां जई वंदन करी धर्मकथा सांभळी 'मने वैभवप्राप्ति केम थई ? एम जिनदत्ते पूछतां आचार्यश्रीए तेनो पूर्वभव कही, 'चार पत्नीओ ते, पूर्वभवमां तारा दाननी प्रशंसा करनार चार कन्याओना जीव छे' एवो निर्देश कर्यो. आ सांभळी जिनदत्त अने तेनी स्त्रीओने पूर्व भवनुं ज्ञान थयु, त्यांथी घेर जई माता-पितानी रजा लई पोताना मित्रो अने पत्नीओ साथे जिनदत्ते श्रमणदीक्षा लीधी. जिनदत्त श्रमण थया पछी विविधशास्त्राभ्यास करी अनेक प्रकारना तपनी आराधना करी अनुक्रमे आयुष्य पूर्ण थतां देवगति पामे छे. भविष्यमा त्यांथी मृत्यु पामी महाविदेह क्षेत्रमा सारा कुळमां जन्मी मोक्ष पामशे. ऋणस्वीकार पूर्वाचार्योए संक्षेए अने विस्तारथी जिनदत्त चरित्र कयुं छे तेने में म्हारी बुद्धीए कह्यं छे. पूर्वनी कथाओथी म्हारी कथामां कंई विशेष होय तो ते प्राचीन कथाना भावने में विस्तारथी प्रकाश्यो छे एम जाणवू. अथवा अल्पबुद्धिना कारणे कई पण ओछु वधतुं कर्तुं होय तो ते निपुण जनोए दरगुजर कर जोईए. पूज्यपाद मुनि श्रीजिनविजयजीए सिंघी जैन ग्रन्थमालामा प्रकाशित करवा माटे जे अनेकानेक संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश भाषा प्रथित प्राचीन ग्रन्थरत्नो निर्धारित कयों छे अने जेमांना अनेक अपूर्व रत्नोए अत्यारसुधीमां प्रकट थईने विद्वज्जगत्ने आनन्दित अने अनुप्रेरित क्यु छे, तेमाना केटलांक नानां मोटा ग्रन्थरत्नोनी प्रतिलिपिओ के प्रेसकॉपिओ विगेरे करवा रूप द्रव्य अने भाव बन्ने रीतिए लाभदायक एवं साहित्यिक पुण्य कार्य करवानुं मने पण सद्: भाग्य प्राप्त थतुं रा छे. परंतु आ प्रन्थमालामां आ रीते एक प्राचीन सुन्दर जैन कथानक ग्रन्थनुं स्वतंत्र संपादन कार्य करवानुं अहोभाग्य पण मने क्यारेक प्राप्त थशे एनी तो कल्पना पण क्यारेय न होती थई. ग्रन्थमालाना प्रधान संपादक, प्रतिष्ठापक अने प्राणदायक पूज्य श्री जिनविजयजीए आ रीते पोतानी आ विश्वविख्यात जैन ग्रन्थमालामां आवा एक स्वल्प श्रमने स्थान आफी मारा जेवा अल्पज्ञ जन उपर जे वत्सलभाव प्रदर्शित कर्यो छे ते माटे हुं तेमना प्रत्ये कया शब्दोमां अल्प-खल्प पण हृदयनो आभारभाव प्रदर्शित करूं ? प्रस्तुत संपादनकार्यमां उद्भवेली केटलीक शंकाओनुं निराकरण करवा माटे, विद्वद्विभूषण पूज्यपाद श्रीपुण्यविजयजी महाराजे जे अनुग्रह बतान्यो छे ते बदल हुँ अहिं तेओश्रीप्रत्ये पण मारो विनम्न कृतज्ञभाव प्रकट करूं छु. वागोळनो पाडो-पाटण, भणहिलपुर विद्वजनविनेय वैशाखी पूर्णिमा वि. सं. २००९ । अमृतलाल मोहनलाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002776
Book TitleJindattakhyana Dwaya
Original Sutra AuthorSumtisuri
AuthorAmrutlal Bhojak
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1953
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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