Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 69
________________ जिनदत्तस्य दीक्षाग्रहणपूर्वकं स्वर्गमनम् । [३६१-२०१ वसिऊण सुही तहियं, चुओ समाणो महाविदेहम्मि । लण कुले जम्मं, कयधम्मो पाविही सिद्धिं ॥ ३६३ ॥ जिणयत्तचरियमेयं, नियमइविहवेण तुम्ह वजरियं । संखेव - वित्थरेणं, जह कहियं पुरीहिं ॥ ३६४ ॥ पुलिया विसेसो, दीसह जो एत्थ कत्थई कोइ । तस्सइओ च्चिय भाओ, पयासिओ वित्थरेणेत्थ ॥ ३६५ ॥ अहवा मइदोबल्ला, ऊण-हियं किं पि जं मए भणियं । खमियां विउसेहिं, सोहेयवं च निउणेहिं ॥ ३६६ ॥ F आसी असेसमेइणिअस्संतभमंत कित्तिपब्भारो । सिरिनेमिचंदसूरी, पाडिच्छयगच्छकप्पदुम ॥ ३६७ ॥ चंदो व अमयमुत्ती, सूरो इव सत्तपी संपन्नो | सिंधु व विविहरयणोवसो हिओ नीरसहिओ य ॥ ३६८ ॥ जो सो उत्तमगुणरयणविलनिद्दोसको सभ्रएहि । सिरिसवदेवसूरीहि ठाविओ उत्तमपम्मि ।। ३६९ ॥ तस्स विएण इमं, बहुभव विबोहकरणतिसिएण । सुमइगणिणा विरइयं, जिणयत्त महारिसीचरियं ॥ ३७० ॥ जाव जिणवीर तित्थं, वित्थरउ इमं पि ताव भरहम्मि | उपाय सुयणाणं, आणंदं वीरवयणं व ।। ३७१ ॥ कहिऊण इमं चरियं, पुनं जमुवज्जियं मए किंपि । लहु पुन - पावमुका, सोयारगणा तओ हुतु ॥ ३७२ ॥ छ ॥ ॥ जिनदत्ताख्यानकं समाप्तम् ॥ ॥ ग्रंथाग्रं ॥ ७५० ॥ छ || मंगलं भवतु पाठकस्य ॥ छ ॥ संवत् १२४६ वर्षे श्रावणवदि ६ गुरावद्येह श्रीमदणहिलपाटके श्रावकरांवदेवेन निजपितृव्यः (व्य ) श्रेयोर्थ श्रीमदरिष्टनेमिचरितं जिनदत्तकथासमं लिखापितं पुस्तकं ॥ छ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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