Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 59
________________ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्या सह परिणयनम् । [२६६-२७.] सीहो व वणयराणं, गिरीण मेरू गहाण चंदो छ । रेहइ उत्तमफलओ, जिणधम्मो सबधम्माणं ॥ २६६ ॥ जिणयत्तेण हसिऊण भणियं- 'सुंदरासुंदरं वियारेण नअइ, ता कहेहि सुंदरि! तुह धम्मे केत्तियाई तत्ताई?' तीए भणियं- 'सत्त जीवाइयाइं ।' इयरेण भणियं'थेवमेयं, अम्ह धम्मे पंचवीसतत्ताई सत्त-रय-तमाइयाई ।' तीए भणियं'अजउत्त! अविचलाई सत्त तत्ताई, परिगप्पणा चेव अहिया । जओ अम्ह धम्मे पंच इंदियाई पंचविसयगाहित्तेण भन्नति, न य अन्नसंतियं विसयं अण्णं गिण्हइ । तुम्मे पुण हत्थ-पाय-उवत्था-हिट्ठाण-ऽवाया(णा १)हि सद्धिं दस परिगप्पह । तं जइ पाया इंदियं तो सीस-पट्टि-पोट्ट-बाह-जंघाओ किं न इंदियाणि भमंति ? किंच पंचवीसहि वि तत्तेहिं एगं जीवतत्तं न सिज्झइ, न य तेण विणा धम्मासेवणसाहल्लं होइ । एवं पुवावरविरुद्धं सवं तुम्ह परिगप्पणं । अण्णं च महापासंडिओ इव अजउत्तो लक्खिजइ । जओ उवासगचरिओ संखदरिसणतत्तेहि मं वेलवइ । बुद्धदरिसणे हि दुविहाई तत्ताई । अलं च तुम्हं जाणगाणं पुरओ तदुच्चरणेण, न य तेसु वि को वि परमत्थो' त्ति । तओ 'अहो कोसल्लं' ति तुडेण भणियं जिणयत्तेण- 'पिए ! मा रूस तुह परिच्छा मए एवं कया । जं पुण तुज्झ पियं तं मए कायवं, ता कुलकमागयं पि बुद्धधम्मं मोत्तूण पडिवनो मए तुह संतिओ धम्मो ति । ताहे हरिसिया अंगारवई । तस्स थिरीकरणहेउं दावेह नंदीसराईसु सासयचेइयाई । चिंतइ य सो मित्तो सो सुयणो, सो चिय परमत्थबंधवो होइ। जो जिणवराणमाणा, धरेइ मालं व सीसेण ॥ २६७ ॥ अण्णया चिंतियं जिणयत्तेण जणणी-जणयविउत्ता, मज्झ विओयम्मि सिरिमई बाला । एत्तियमित्तं कालं, न याणिमो जीवइ न व त्ति ॥ २६८ ॥ .. चारं वारं तइया, भणिओ हं पुहइसेहरनिवेण । मम पाणपियं एयं, बालं जत्तेण रक्खेज ॥ २६९ ॥ वाएण समं पत्ता, सा होही दहिपुरम्मि नयरम्मि । संजोइजउ तुरियं, पडिवण्णसुहावहा सुयणा ॥ २७० ॥ - एवं संपहारिऊण भणिया अंगारवई - 'दइए ! वच्चामो अज दाहिणसमुद्दकूले कीलानिमित्तं । तीए 'एवं' ति भणिए, वेउवियविमाणारूढाई पत्ताई चंपाए उवरि । तओ 'विमलमई दइया किं करेइ ? त्ति पवित्तो सविसेसं पलोइडं। जाव दिट्ठाओ भुवणुजाणे साहुणीसमीवे पढमाणीओ दो वि विमलमइसिरिमईओ । 'सोहणं जाय' ति तुट्टो गओ कीलिउँ । तओ य चिरं कीलिऊण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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