Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 55
________________ जिनदत्तस्य सिंहलदेशीयराजकुमारीपाणिग्रहणम् । [ २३१-२३९] 'एही कवि दस परिणमइ, गिरिकंदरदलणस्स । जेण सियालु वि अहिलसइ, गुह केसरीसीहस्स ॥ २३१॥ मा सो सुहाई पावउ, निचं दुक्खाण भायणं होउ । काऊण मेलयं वल्लहाण विरहो कओ जेण ॥ २३२ ॥ मोत्तूण हिययनाहं, अन्नं नेच्छामि ताव सुमिणे वि। आवइपडिया वि दढं, रयणियरं महइ किं नलिणी ॥ २३३ ॥ नेमित्तिएण तइया, सिलु तुह पुत्ति ! नत्थि वेहई । - .... जाणामि तेण मज्झं, मिलिही दइओ न संदेहो ॥ २३४ ॥ एवं संमइच्छिया छम्मासा । तओ 'पञ्चासण्णं कूलं ति पयडियं पुप्फवइत्तं, समुत्तिण्णाण य. कम्मयराण मइरं पइच्छिय विसत्थहियओ गओ रायदंसणत्थं सेट्ठी । तओ सिरिमई नियचेडीहि सहिया निययाभरणं गहाय सरीरचिंतानिमित्तमिव पत्थिया, तुरियं च वच्चमाणी मिलिया चंपाउरिगामिणो सत्थस्स । सस्थवाहं विनविय पयट्टा तेण समं । पत्ता चंपाबाहिरियं चिंतिउं पयत्ता साहेमि कस्स दुक्खं, कस्स व वच्चामि संपयं सरणं । दइयय ! तुज्झ विओए, न याणिमो किं पि पाविस्सं? ॥२३५॥ "नियसयणविउत्ताए, पियविरहं दूसहं कुणंतेण । गंडस्स उवरि फोडी, विणिम्मिया मे कयंतेण ॥ २३६ ॥ न जलंति धगंति न सिमिसिमिति न मुयंति धूमवत्तीओ। निहुयाइँ मामि पियविरहियाण अंगाई डझंति ॥ २३७ ॥ आसासिजइ चक्को, जलगयपडिबिंबदंसणसुहेण ।। तं पि हरंति तरंगा, पिच्छह निउणत्तणं विहिणो ॥ २३८ ॥ इमाइ बहुपयारं चिंतयंतीए दिट्ठाओ दोन्नि समणीओ । 'एयाओ ताओ अजउत्तगुरुणीओ सबसत्तवच्छलाओ' त्ति तुट्ठमाणसा गया ताण पिढओ । निसीहियं काऊण पविट्ठा पडिस्सयं । 'अउबा साहम्मिणि त्ति पुवागयाए अन्भुट्ठिया विमलमईए । कयउचिओवयाराए कयसमत्थसाहुणिवंदणा वंदिऊण पुच्छिया य 'कत्तो साहम्मिणि ?' त्ति । तओ बाहजलपञ्चालियगंडयला मबुभरनिरुद्धकंठा परुण्णा सिरिमई । कहिओ वुत्तंतो चेडीहिं । ताहे महुरवयणेहिं संठविऊण भणिया विमलमईए- . जेत्तियमेत्तो नेहों, संतावो सुयणु ! तेत्तिओ चेव । उज्झियनेहं न हु कुंकुमं पि ताविजइ जणेण ॥ २३९ ॥ तेन मध्यम् षण्मासान्तरम् । २ समतिकान्ताः । ३ "बेडामूल्यम्" प्रती टिप्पमकम् । ४ निजस्वजनवियुक्तायाः।.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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