Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 54
________________ [२१६-२३०] जिनदत्ताख्यानम् । तहा- लजिजइ जेण जणे, मइलिजइ नियकुलकमो जेण । कंठडिए वि जीए, मा सुंदर ! तं करिजासु ॥ २१६ ॥ जाण परजुवइमणहरभमुहधणुम्मुक्कलोयणसरोहिं । सीलकवयं न भिन्नं, नमो नमो ताण पुरिसाण ॥ २१७ ॥ ते कह न वंदणिजा, जे ते दद्रुण परकलत्ताई । धाराहय व वसहा, वचंति महिं पलोयंता ॥ २१८ ॥ अनं च-ताकः पुरिसो त्ति भवइ, जाव य सीलेण संजुओ होइ । सीलेण विप्पमुक्को, होइ लहू अकतूलं व ॥ २१९॥ देवहिँ परिग्गहिओ, जइ वि समो होइ भरहनाहेण । तह वि अकित्ति पावइ, पुरिसो परनारिसंगेण ॥ २२० । सबहा बप्पतुल्लो तुम मा एवं भणाहिं त्ति । सेट्टिणा भणियं जाणामि अहमकजं, तह वि य मे वम्महो अभिद्दवइ । . . वम्महसरपहरसजजरेण लज्जा मए चत्ता ॥ २२१ ॥ अस्थि य सुई पुराणे, पंचहिँ पुरिसेहिँ दोवई भुत्ता। जाओ भारदाओ, सा एत्थ महासई लोए ॥ २२२ ॥ ता सबहा किसोयरि ! मा कुण चिन्तंतरं तुमं किं पि । जो हसिररोइरीए, वि पाहुणो सो वरं हसिरे ॥ २२३ ॥ तं उज्झियमजायं, दट्टणं सिरिमई वि चिंतेइ । एएणं चिय नजइ, रइओऽणत्थो मह पियस्स ॥ २२४ ॥ अनं पि अकायवं, इमस्स नूणं न विजए किं पि । सामेण सीलरक्खा, कायवा संपयं तम्हा ॥ २२५ ॥ एवं विचिंतिऊणं, भणियं तुह निञ्छओ मए लद्धो । किं को वि अत्थि अनो, तुज्झ समो गुणनिही भुवणे ॥ २२६ ॥ तई समिहिए सुंदर ! विरहो किं काहिई दुरंतो वि । पडिओ महादहम्मी, दज्झइ को वा वणदवेण ॥ २२७ ॥ नवरं एयपसाया, अम्हाणं एस संगमो जाओ। परमोवयारिणो वा, मयकिच्चं तस्स रहयत्वं ॥ २२८ ॥ एएण कारणेणं, परिवालसु सुहय ! जाव छम्मासं । परओ तह साहीणे, विरहस्स जलंजलि दाहं ॥ २२९ ॥ एवं आसावल्लिं, हियए आरोविऊण सेद्विस्स । पियविप्पओगतविया, परिचिंतइ सिरिमई तत्तो ॥ २३०॥ जि० द. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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