Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 52
________________ [२०६-२१०] जिनदत्ताख्यानम् । २३ सोअमाणो डियो स्यणिसेसं । इयरी वि रोगावहारनिया सुविसत्थं सुविऊण रायंगणुच्छलियतरगंधवनिनाएण विबुद्धा जिणयत्तं पल्लंकनिसनं दट्टण चिंतिउं पवत्ता 'जा पुचि दुक्खेणं, तल्लोवेल्लीए मज्झ वचंती । सा कह निमिसद्धेणं, वोलीणा अज मे रयणी ॥ २०६ ॥ लहुईभूयं उदरं, उच्छाहेणं व संगयं अंग। एसो महाणुभावो, चिट्टइ एवं सुवीसत्थो ॥२०७॥ ता किं पुण एवं ? ति । हुं, जाणिओ परमत्थो. को वि महाणुभावो एसों-ति तुहाए भणिओ जिणयत्तो 'हियए जाओ तत्थेव वडिओ नेय पयडिओ लोए । घवसायपाययो सुपुरिसाण लक्खिजहि फलेहिं ॥ २०८ ॥ तह वि अजउत्तो काऊण पसायं कहेउ मे कुसलकारणं । दढं विम्हिय म्हि असंभावणिजावत्थंतरसंपत्तीए ति । इयरेण भणियं- 'तुह पुनपरिणई एसा. तह वि परमत्थं सिम्वलिगाए निरूवेहि ।' तओ निरूवेमाणीए दिट्ठो सप्पो । संभताए सिम्वलिगं मोत्तूण पुणो विसेसेण पुच्छमाणीए कहिओ सब्भावो । तीए भणियं- 'सामि ! कहं पुण एयारिसस्स उयरमज्झे संभवो होइ ?' जिणयत्तेण भणियं-'आहारवेगुनेण वा पचणीयपउत्तचुनेण वा संभवइ । सुबइ यरामहंसनामो रायपुत्तो पेत्तियभजाए चुण्णं दाऊण दडुरवाहिणा गिहाविओ। पलक्खा य आहारवेगुनसंभवा गंडोक्याइणो । तहा एवं पि संभवह । परमत्थं पुण सब जाणई' ति । अवि य कालम्मि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मभरियाणं । तं नस्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥ २०९ ॥ एत्यंतरे मडयागरिसणनिउत्तेहि विसत्थाणं दुण्हं पि समुल्लावं सोऊण जिणयत्ताकुसलवत्तासवणभीयस्स राइणो निवेइयं जहा- 'देव ! अज जो पसुत्तो कुमरीए समीचे सो जीवई' त्ति । तओ 'अहो सुंदरं' ति भणमाणो गओ तत्थ राया । अछुट्टिओ जिणयत्तेण । तओ सत्थसरीरं कुमरिं दट्टण तुट्ठमाणसेण राइणा समीवे निवेसिऊण भणिओ जिणयत्तो मुणिओ महाणुभावो, सुंदरचरिएहिँ दूरओ तं सि । तह वि हु कहेहि मज्झं, कह अप्पा रक्खिओ तुमए ॥ २१० ॥ . माहारवैगुण्येन वा प्रत्यनीकप्रयुकचूर्णेन वा। २ पैतृकभार्यया। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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