Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 50
________________ जिनदत्ताख्यानम् । सरणागए न रक्ख, विजयकुमारो ति किं न पञ्जतं । जुवईहरणकलंको, जेण कओ मज्झ रे देव ! ।। १८२ ॥ इय गुरुकलंकपंकंकियस्स को मज्झ पेच्छिही वयणं । भमिही तहा जुगतं, भमरउलसमप्पो अयसो ॥ १८३ ॥ अयसेण दूसिएणं, परिभवदङ्केण पियविउत्तेण । जं जीवि लोए, मरणं खु तओ वरं मने ।। १८४ ॥ इय चितिरस्स सहसा, केणइ अद्दिस्समुत्तिणा भणियं । तं विजय ! किं पि कीरह, न होइ एयारिसं जेण ॥ १८५ ॥ को एसो किं च तयं, 'जिन्नासाए त भर्मणं । सज्झायझाणनिरओ, दिट्ठो एगो मुणिवरोति ॥ १८६ ॥ गंतूण पणमिऊण य, उवविट्ठो तस्स पायमूलम्मि | मुणिणा वियतो भणियं, निसुणसु जिन्नासियं कुमर ! ॥ १८७ ॥ वीरउरे जिणदासो, नामेणं सावगी मुणियतत्तो । मित्तो य तस्स अचतवल्लहो ईसरो वणिओ ॥ १८८ ॥ सो अनया कयाई, निक्खतो तावसाण मज्झम्मि । ताहे जिणदासो वि हु, विचितिउं एवमारो ॥ १८९ ॥ अन्नाणिणो वि जड़ ता एवं उज्झति विसयसोक्खाई । विनायभवसरूवो, अहयं ता किं न उज्झामि ॥ १९० ॥ इय चिंतिय पवइओ, सुघोस रिस्स पायमूलम्मि | परिवालियसामत्रो, सोहम्मे सुरवरो जाओ ।। १९१ ॥ मिचो वि वंतरेसुं, उववन्नो तेण ओहिणा दिट्टो | गंतूण निययरिद्धी, निदंसिया बोहणत्थं से ।। १९२ ॥ चितेइ वंतरो सो, अधो लहिऊण माणुस जम्मं । जई जिधम्मं सेविrsहं तया तो सुही हुंतो ॥ १९३॥ एमाइ बहुपयारं, परितप्पिय सुरवरस्स वयणेण । पवित्र सम्मत्तं, सिवसोक्खनिबंधणं परमं ॥ १९४ ॥ दसवास सहस्साइं आउपमाणं च अप्पणो मुणिउं । विभवर सुरं मणुअत्तणम्मि बोहिज मं मित्त ! ॥ १९५ ॥ तियसेण वि पडिवने, उवडिय वंतरो तुम जाओ । एकतवीररसिओ, न मुणसि नामं पि धम्मस्स ।। १९६ ॥ [ १८२-१९६ ] १ जिज्ञासया । २ परिपालितश्रामण्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only २१ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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