Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 51
________________ जिनदत्तकथिता विजयकुमारफथा। [१९५-२०५] तो तुज्म बोहणत्थं, माया तियसेण निम्मिया एसा। 'ओहावणं अपत्ता, सुहिणो जम्हा न बुझंति ॥ १९७ ॥ अहयं च एत्थ धरिओ, तेणं चिय तुज्झ बोहणढाए । ता कुमर! कुणसु धम्मं, जेण सुही होइ निचं पि ॥ १९८ ॥ एयं सुणमाणो चिय, जाईसरणेण मुणियनियचरिओ। बुद्धो विजयकुमारो, पवइओ तस्समीवम्मि ॥ १९९ ॥ काऊण य पचलं, सारयससिकिरणनिम्मलं विउलं । जाओ तत्थेव सुरो, जिणदासो अच्छई जत्थ ॥ २०॥ इय सुंदरि! जीवाणं, सुहदुक्खं सबमेव कम्मफलं । तम्हा मा उल्लेवं, करेसु तं रोगसंतसा ॥२०१॥ एवं च अमयरससीलएहि वयणेहि पम्हुट्ठसरीरदुक्खाए रायपुयाए 'अहो दयालुओ महासत्तो कोवि एस, जहा जिणदासेण नियमित्तो सुहमायणीको तहा मं पि सुहिणिं करिउकामो लक्खिजइ. । अहवा एयस्स देसणं पि अकल्लाणभाइणो न पाविति'त्ति भावयंतीए समागया निद्दा । ताहे सणियमुट्ठिऊण जिणयत्तो वि पुवगविट्ठ कट्ठखोडिं नियस[य]णिजे पच्छाइऊण दीवयं च तेल्लपूरियं काऊण खंभंतरिओ खग्गं गहाय अपमत्तो अच्छिउं पयत्तो । अवि य रन्ने जलम्मि जलणे, दुजणजणसंकडे व विसमम्मि ।। जीह व दंतमज्झे, नंदइ अपमत्तयाजुत्तो ॥ २०२॥ ताव निवाइयमुहाए रायकण्णाए वयणकुहरे दिवाओ तणुयचंचलाओ दोषि जीहाओ । तओ किमेयं ति संकिएण दिलृ निग(ग्ग)च्छमाणं सप्पवयणं । अवि य रत्तच्छफडामीमो, कजलपुंजप्पहो अइपमाणो । नीहरिओ कुमरीए, क्यणाओ विसहरो घोरो ॥२०३ ।। एचो भयं ति चिंतंतयस्स कुमरस्स सेजमारूढो। सीसपएस डसिउं, पारद्धो कट्ठखोडीए ॥२०४ ॥ अह करणदक्खयाए, खंडाखंडिं कओ कुमारेण । छूढो सण्ण(ण्णि)हियाए, करंडियाए खणद्वेण ॥२०५॥ तओ 'अच्छेरयं माणुससरीरं सप्पवसहिति विम्हिय विसत्थमाणसो निविट्ठो पल्लंके । अणेगसत्तरक्खाकरणेण कयत्थमप्पाणं मन्नमाणो, पन्नगं च १ भपभावनाममाताः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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