Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 38
________________ [७०-७९) जिनदत्ताख्यानम् । अनाए भणियं लग्गो वि य को वि गहो, ऊसलियंगि ति किं न लक्खेह । मा विलवउ अनिबद्धं, वेजघरे निजउ वराई ॥ ७० ॥ . तओ विमलेणावि वियाणियहिययाहिप्पारण दिना सा तेसिं । ते वि तल्लाभपमुइया लद्धसम्माणा पडिगया वसंतउरं । वद्धाविओ जीवदेवो जिणयत्तो य । तओ वि पसत्थे मुहुत्ते बहुसयणपरिवुडो गओ चंपाउरिं जिणदत्तो । सम्माणिओ विमलेण । तओ वि संचारिया पओगा, साउल्ले वट्टिए वहु-वराणं । आसणं पि हु किच्छेण आगयं पाणिगहलग्गं ॥ ७१ ॥ तत्तो पमक्खणाई, मंगलकोऊहलेसु रइएसु । पत्तो विवाहमंडवमुकंठियमाणसो कुमरो ॥ ७२ ॥ किं बहुणा ? विलसिरहारतालसुवियक्खणनचिरजुवइसत्थयं, ___ वजिरसंख-तूरसदाउलमंगलझुणिपसत्थयं । बहुविहगंधपुप्फ-तंबोल-विलेवणदाणसोहणं, वित्तं पाणिगहणमुद्दामकुऊहलहिययमोहणं ॥७३॥ वित्ते पाणिग्गहणे, संपुण्णमणोरहो तओ कुमरो । ठाऊण के वि दियहे, दइयं मिल्लावए विहिणा ॥ ७४ ॥ विमलेण विमलमाणिक्कमुत्तपमुहं धणं बहुं दाउं । मुक्का बाला तत्तो, जिणयंत्तो पडिगओ नयरं ॥ ७५ ॥ तत्थ वि मंगलपउरे, बद्धावणयम्मि कारिए पिउणा । देवो व देवलोए, निश्चिंतो भुंजए भोए ॥ ७६ ॥ जिनदत्तद्यूतप्रसक्तिवर्णना।इय सोक्खसमुदएणं, समइकंतेसु केसु वि दिणेसु । दारुणसिरवियणाए, गहिओ सहस त्ति जिणयत्तो ।। ७७ ॥ मंतोसहिपडियारा, जाहे अचंतनिष्फला जाया । सारीज्यविणोओ, पारद्धो ताव मेत्तेहि ॥ ७८ ॥ परियाणियजयरसो, जाओ तत्थेव निचमुजुत्तो । खेल्लइ य सइच्छाए, अंधिय-नल्लचमाईणि ॥ ७९ ॥ जि० द० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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