Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 36
________________ [81-६१] जिनदत्ताख्यानम् । .. सधी तदसणेगग्गं दट्टण मुणियतयहिप्पाया अन्नस्थ गंतूण पिरस्स समागया बयंसया, दिट्ठो तहेव जिणयत्तो । तओ संपुन्नमणोरहेहिं नीओ गिहं । सो विचिंताभारनीसहो णुवनी गिहेगदेससंठिए पल्लंके चिंतिउं च पयत्तो। अमयमयाई मन्त्रे, तीसे नयणाई पंकयच्छीए । जाइं पलोयमाणं, हिययं न हु पावए तित्तिं ॥५९ ॥ तम्बाहुलयाबद्धो, थणवढे को वि धन्नओ रमिही। . पाही को वि सउन्नो, अहररसं विहुमच्छायं ॥६॥ किंबहुगा ? जइ कलत्तेण अप्पा विनडिजइ ता तारिसेण चेव । अओ कत्थ जामि ? के पुच्छामि ? कं पेच्छेमि ? कस्स साहेमि ? कहिं तारिसं बालियारयणं लहिस्सामि ? ति चिंतयंतो गरुयं गरुययरं विरहवियणं अणुभविउमारदो। अवि य पढम महुरासायं, पच्छा हिययं रसेण भावेति । मारेइ विसं वि णु ओसहेण पेमं परायत्तं ॥ ६१ ॥ एत्थंतरे भोयणसमओ त्ति गविट्ठो सेट्टिणा, दिट्ठो तहावत्थो । तओ पुच्छिओ'वच्छ! कि वे बाहइ ?' तेण भणियं-'न किंचि' । 'कहं न किंचि?' 'आम। एमाइसु(प)ण्हुत्तरेहि मुणिओ अभिप्पाओ सेहिणा । तह वि गंतूण पुच्छिया वयंसया । कहिया तेहिं दिवत्ता । तओ परितुढेण सेटिणा-अहो सुंदरं जायं, ताहे पेच्छामि ताव केरिसे आलम्बणे विलग्गो त्ति । अहषा होउ केरिसं पि, मए ताव संपाडेयव-चि संपहारिऊण भणिया वयंसया- 'कारेह कुमारं पाणवित्ति, जेणारं विसत्थचित्तो समीहियं संपाएमि' त्ति । तेहि वि तहेव कए भोयणाणंतरमेव उवायमग्गणसयोहो गओ तमेव देवयाययणं जीवदेवो । पलोइया पुतलिया, चिंतियं च- अहो सुंदरं आलंबणं. ता कहिं पुण एरिसरूवा कण्णया अत्थि ? तमेव चित्तयरं पुच्छेमि-ति संपहारयंतो गओ चित्तगरसमीवं । तेण वि ससंभमं कयविणयपडिवत्तिणा विहियासणपरिग्गहो भणिओ- 'अणुग्गिहीओ म्हि भवंतेहि नियपयपंतीए पंगेणमक्कमंतेहिं. ता आणवेह पओयणं' ति । सेहिणा भणियं- 'अमुगम्मि देवयाययणे तुम्ह विनाणपगरिसेण दढमावजियं मे हिययं. विसेसओ दुवारदेसहिएण देवयारूवेण । ता कहेहि मे किंनामधेया सा परमेसरि' त्ति । सिप्पिएण भणियं-'ताय ! न होइ सा देवया, अवि य माणुसी। कहं ? ति सुण - 'मए हि चंपाउरि गएणं विमलसेट्टिधूया विमलमई नाम कन्नया दिवा. सा कोउयमेत्तमिहालिहिया. न उणो तीए 1 उपायमार्गणसतृष्णा । २ प्राङ्गणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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