Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 41
________________ जिनदत्तविमलमतिविचारणा । [९९-१०२] किं च___ उझंति निययजीयं, तणं व माणसिणो न उण माणं । लब्भइ पुणो वि जीयं, माणो पुण मइलिओ कत्तो॥ ९९ ॥ ता कहं चि नियनयरिंगमणविक्खेवेण वीसारेमि माणं ति, संपहारिऊण विमलमईए भणिया नियमहंतया- 'दढमुकंठिय म्हि नियअम्म-तायाणं ता अजउत्तसहियं में विसजावेह' ति । तेहि 'एवं'ति पडिवन्ने, भणिओ भत्ता'विनवेमि अजउत्तं जइ पत्थणावियत्थं न होइ।' इयरेण भणियं- 'विन्नत्ति विणा वि मम संतियस्स जीवियस्सावि जइ पुण दूरत्थवत्थुणा केणइ पओयणं ता विन्नवेसु' ति । तीए भणियं - 'अजउत्त! उकंठिय म्हि दढं जणय-जणणीणं, न य सकुणोमि निमेसद्धमत्तं पि तुहादसणम्मि पाणे धारेउं, ता करेहि मे एगपत्थर्ण-बच्चामो चंपाउरिति ।' तओ 'मम मणोरहाणुरूवं जंपत्ति हरिसिएण भणिया जिणयत्तेण - 'पिए ! तुह वयणेण दुक्करं पि कीरइ, किमंग पुण एत्तियं" ति । तओ किं बहुणा ? विमलमईमहंतएहि पडिवपम्भने(१) कए, सेटिणाऽणुण्णायाणि पत्ताणि दो वि चंपाउरि । बहुमाणपुरस्सरं पविठ्ठाणि विमलसेट्ठिमंदिरं । तत्थ वि उबिग्गमाणसं दइयं ददृण भणियं विमलमईए - 'अजउत्त! करेमो के पि विणोयं ।' जिणयत्तेण भणियं - 'पढेहि कखाइपन्होत्तराणि । तओ हरिसियमणाए पढियं विमलमईए किं मरुथलीसु दुलहं १, का वा भवणस्स भूसणी भणिया। कं कामइ सेलसुया ?, कं पियइ जुवाणओ तुट्ठो? ॥१०॥ तं ता ततं । पढियाणंतरमेव लद्धं जिणयत्तेण 'कंता हर । पुणो 'पिए! पढसु' त्ति वुत्ते भुजो वि पढियं संबोहिऊण बंभण चलणं चलणनिजियगइंद । किं जिणनाहस्स सिरे, आरूढं पावए सोहं ॥ १०१॥ त त तं, वद्धमाणयं । लद्धं जिणयत्तेण 'कमलं' । तओ 'अहो कोसलं पिययमस्स' ति जंपिरीए भणिओ 'संपयं तुमं पढसु' त्ति । पढियं जिणयत्तेण किं कारेइ अहंगं, पुरसामी ? का पुरी दहमुहस्स। का दुन्नएण लब्भइ ?, विरायए केरिसा तरुणी ? ॥ १०२ ॥ तातं ता ता, गहियमुत्तयं । १ प्रथमप्रश्नोत्तरः कं-उदकम् , द्वितीयप्रश्नोत्तरः कता-कान्ता, तृतीयप्रभोत्तरः हरं-शिवम्, चतुर्थप्रश्नोत्तरः कंताहरं-कान्ताधरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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