Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 42
________________ [ १०३-११०] जिनदत्ताख्यानम् । - पढियाणंतरमेव लद्धं विमलमईए "सालंकारा । पुणो जिणयत्तेण पढियं का विण्हुपिया ? रमणीणमप्पिओ को जुवा भण पहाणं । को नाम गिरं महुरं, पि जंपिरो पामरे तवइ ? ॥ १०३॥ ___ ता त तो, वित्थवड्डमाणयं । पुणो पुणो चिंति(त)यंतीए [लद्धं ?] 'सारसो' । एवं विचित्तपण्हुत्तरेहि अक्खरचुएहि बिंदु-मत्ता-वंजणचुएहिं गूढकिरियाकारगुत्तरचउत्थपाएहिं, पहेलियाहिं, हियालियाहिं, बिंदुमइअंतक्खरियाहिं, चित्त]बंधकव्वेहि, पत्तच्छेजेण, अमेहि विविहेहि कीलाविसेसेहि विमलमई तं विणोइउं पवत्त त्ति । अवि य सो जत्थ जत्थ वच्चइ, अणुमग्गं जाइ तत्थ तत्थेव । अगणिय विओयभीया, उवहसमाणं सहीसत्थं ॥ १०४ ॥ अह सरसचूयमंजरिमयरंदुम्मत्तभमरसंगीओ। ... कलयंठबंदिसंदोहघुट्ठउद्दामजयसद्दो ॥ १०५ ॥ नवर्किसुयरत्तच्छो, दूमियलोयस्स सिसिरचरडस्स । उवरि परिकुविओ इव, संपत्तो माहवनरिंदो ॥ १०६॥ पढमाइटेण य मलयपवणजोहेण कंपियसरीरा । जाया झत्ति विवन्ना, तरुभिचा सिसिररायस्स ॥१०७ ॥ काउं आणवडिच्छे, तरुभिच्चे पउरपत्तरिद्धिल्ले । चच्चरिरासंदोलयरम्मं भुवणं महू कुणइ ॥ १०८ ॥ दइयासरणविमुच्छियपहियगणासासणस्थहेउं व । कारावेइ वसंतो, पए पए नीरसालाओ ॥१०९ ॥ सुत्थम्मि कए महुपत्थिवेण भुवणम्मि पमुइओ लोगो । परिकीलिउमारद्धो, पवरुजाणेसु सच्छंदो ॥ ११० ॥ तओ जिणयत्तो वि निग्गमणोवायमग्गणमणो कीलानिमित्तमिव सद्धिं विमलमईए गओ उजाणं । पवत्ता कीला । कहं ? खणं लयतालंगहारहारिविलासिणीजणारभूमणहरचचरीपलोयणेणं, खणं सुहसुहयवंसवीणातंतितालसम्मिलियकायलीगेयाऽऽयन्नणेणं, खणं घणच्छायचूयसाहानिबद्धमंदंदोलणपणञ्चमाणकणयमंजरीभमिरभमरमंडलीमहुरझंकाराभिरामहिडोलयारोहणेणं, खणं विविहभंगुरतरंगरम्ममाणमाणिणीवहलकुंकुमुप्पं(प्पभ?) १ प्रथमप्रभोत्तरः सालं प्राकारम्, द्वितीयप्रश्नोत्तरः लंका-रावणराजधानी, तृतीयप्रभोत्तरः कारा-गुप्तिः, दूर्यप्रश्नोत्तरः सालंकारा-साभरणा । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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