Book Title: Jindattakhyana Dwaya
Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 40
________________ [८९-९८] जिनदत्ताख्यानम् । तहा मलियम्मि माणकंदे, साहारो नत्थि सयणविडवेण । ता नरपायव संपद, को हेऊ विद्धिबुद्धिए ॥ ८९ ॥ अनंच नियमुयविढत्तदयो, मणोरहे मग्गणाण पूरितो। विलसइ जो न जहिच्छं, चलंतथाणू न सो पुरिसो ॥ ९ ॥ ता सहा भुयडंडसहाओ निग्गंतूण करेमि दबोवजणं, पराणेमि कुलहरें विमलमा त्ति, संपहारिऊण उडिओ ज़्यफराओ । गओ सभवणं । चिंताभारनिमरो दिट्ठो जणएण विमलमईए य । किमयं ? ति गवेसमाणाण दोण्हं पि साहिओ वुत्तंतो भंडागारिएहिं दुवेहिं पि । [ सेट्ठिणा ?] भणियं-'न सुंदरं कयं, इओ परं माऽवमाणेसह त्ति । अण्णया भणिओ जिणयत्तो जणएण- 'वच्छ! किमेइणा पुरिसत्थवाहिरेण ज्यवसणेण ? जइ ता ते चाए कोउगमत्थि ता . कुणसु जिणसाहुपूयं, दीणाईणं जहिच्छियं देसु । वित्थरइ जेण कित्ती, पुण्णं पि हु अक्खयं होइ ॥ ९१॥ धण्णाण दाणधम्मे, लच्छी उवयरइ जा य पुरिसाण । इयरेसि पत्तविलया वारुणि-जूएसु सा जाइ ॥ ९२ ॥ इय जंपियम्मि पिउणा, जिणयत्तो भणइ एवमेयं ति । ता ताय ! इमं कम्म, न मए पुणरवि हु कायई ॥ ९३ ॥ इय तोसिऊण जणयं, जिणयत्तोऽमाणमाणपडहत्थो । दबोवजणकजे, चिट्ठइ चिंताउरो निचं ॥ ९४ ॥ ----- जिनदत्तोगनिवारणार्थं विमलमतिविचारणा । तं च तहा दट्टणं, विमलमई चिंतिउं समारद्धा । उबिग्गो विय दइओ, लक्खिजइ एस किं कजं? ॥ ९५ ॥ जओ तं चिय हसियं विरसं, रुक्खा ते चेव मंजुलुल्लावा । किं बहुणा सर्व चिय, संपइ अन्नारिसं ललियं ॥ ९६ ॥ अहवा मनेमि अहं, मझुइओ एस धणनिवाराए । न सहंति माणभंग, थेवं पि हु माणिणो जम्हा ॥ ९७ ॥ भणियं च थेवं पि माणहाणि, पेच्छंता माणिणो गुणमहग्या । अत्थं पियं सएसं, सुसामियं झत्ति मुचंति ॥ ९८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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