Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 43
________________ जिनदत्तपरदेशगमनवर्णनम् । [१११-१२१] कटिविडिकियसलिलकीलासरसम्मजणेणं ति । एत्थंतरे सिणिद्धसहियणपवत्तियविचित्तवसंतकीलापमत्तं विमलमई पलोइय चिंतिउं पवत्तो जिणयत्तो सम्भावनेहनिब्भरहिययं लायण्णपुण्णसवंगं । थरथरइ मज्झ हिययं, दइयं परिचत्तुकामस्स ॥ १११ ।। किं तु दो तिनि वासराई, सासुरयं होइ सग्गसारिच्छं । पच्छा परिभवदावानलेण सवत्थ पजलइ ॥ ११२ ॥ तहा माणेण पिइघराओ, निग्गंतुं ससुरमंदिरे ठाइ । जो सो तविओ गिम्हायवेण संसेवए जलणं ॥ ११३ ॥ न य जामि निययगेहं, जावइयं हारियं मए रित्थं । तावइयं अट्ठगुणं, न जाव कत्थइ विढत्तं ति ॥ ११४ ॥ ~ जिनदत्तस्य परदेशगमनवर्णनम् ।एवं संपहारिऊण वंचियनीसेसपरियणदिद्विपसरो पुवसंगहियवण्णपरावतिणि गुलियं सरीरमज्झे गोविऊण तुरियमेव निग्गओ उजाणाओ। चलिओ दाहिणदिसाभिमुहं । वच्चइ दोन्नि पयाई, पयमेगं पिट्ठओ पुणो वलइ । अच्छामि जामि जामि त्ति जाइ विगलन्तनयणं व ॥ ११५ ॥ चिंतेइ न जुत्तं चिय, चतुं अणुरत्तियं नियं दइयं । किं तु न तीए सद्धिं, समीहियं सिज्झए मज्झ ॥ ११६ ॥ पभणइ - 'दइए ! मा होसु कायरा एस एमि तुरिओ हैं । न तरामि खणं पि जओ, सोढुं तुह संतियं विरहं ॥ ११७ ॥ अहव किरियाविरुद्धेण एइणा जंपिएण किं सुयणु!। परितप्पसु मा हु तुमं, निडरहिययस्स मज्झ कए ॥२१८॥ भुयडंडसहाएणं, अजेयवं धणं ति मह इच्छा । दवा य विसाला, नाणऽब्भुयभूसिया पुहई ।। ११९ ॥ तं तुमए सह न घडइ, सुंदरि ! मुका सि तेण कजेण । ता परियावविमुक्का, कुणमाणी चिट्ट जिणधम्म ॥१२०॥ एवं विचिंतयंतो, ठावितो धीरिमं तहा हियए। संचल्लो सो तुरियं, लंघतो गाम-नगराई ॥ १२१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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