Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 32
________________ जिनदत्ताख्यानम् | अ किं नाम मए, विच्छोहो कस्सई पुरा रहओ । पडिया जेणायंडे, दुक्खचडका मह सिरम्मि ॥ २५ ॥ ariगो किं व कओ, रंडी होसु त्ति किं व परिसविया । हा हा केरिसपावस्स एरिसं घोरमाहप्पं ॥ २६ ॥ किं वा कयंत निग्विण !, अवरद्धं किं पि तुज्झ मे पुवं । इय दुस्सहाइँ जेणं, कोव फलाई पयंसेसि ॥ २७ ॥ [ १५-३४] तओ एवं झायमाणी बिलवमाणी य कहकह वि कारुणियपुरपुरंधीहिं संठविया संत तं बालयं परिवालिडं पयत्त चि । एत्थंतरम्मि तीसे बिहवो विहवो अहं ति भीओ व । वदिवसाण मज्झे न हि नजर कत्थई पय ( उ ) त्थो ॥ २८ ॥ तओ तीए चिंतियं - दिणमिव पञ्चहेणं, नहं धणिएण सह धणं मज्झ । दालिद्देण तमेण व, अहयं स्यणि व ओसत्ता ॥ २९ ॥ पुनेहिं होइ अत्थो, ताइं दइएण सह पउत्थाई | ता मह निब्भग्गाए, को संपइ जीवणोवाओ ॥ ३० ॥ नत्थ परकम्मकरणं, मोतुं अन्नो त्ति निच्छियं एयं । तापेच्छ केरिस किर, माहप्पं विहिविलासाणं ॥ ३१ ॥ जे थिय जोडियहत्था, कम्मंकरियाइया मह गिहम्मि । सिं चेव गिहेसुं, कम्मं काहामि कहमहयं ॥ ३२ ॥ को वा वि एत्थ माणो, कयंतदंतग्गभग्गमाणाए । जह जह वाह विही, तह तह निचेमि एत्ताहे ॥ ३३ ॥ वह वि हु न एत्थ जुजइ, ठाउं सहितपुचवत्थाए । aara ar are य, जत्थ न पेच्छामि नियलोयं ॥ ३४ ॥ एवं संपहारिऊण सिवदेवेण सहिया निग्गया दसपुराओ । कहाणयविसेसेण व संपता उजेणिं । समासइया एगं कुलप्पसूयं वाणियगं । तेणावि महणिपतिवचिपु दिन्ननिलया किंचि निव्वुयमणा खंडण - कत्तणाइणा वद्विडं पयता । लिवदेवो विनिउत्तो वच्छवालत्ते । एवमइकंतो कोइ कालो । अण्णया वच्छरुयाणं गएण दिडो पण धम्मज्झाणट्ठिओ एगो महातवस्सी । लहुकम्मयाए समुप्पन्नबहुमाणेण वंदिओ गंतूण, सम्मद्दियाओ जंघाओ, परिओसनिब्भरो ठिओ कंचि कालं तस्समी । आगएण सिहं जणणीए । बहुमन्निओ तीए । भणियं च - 'वच्छ ! art सो महाणुभावो परलोकजे तवं तप्पेइ । सो वि धन्नो जो वस्स अन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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