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द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे सालीइ वा, वीहिगोहूमजवजवजवाइ वा, कलायमसूर-मग्गमासतिलकुलत्थणिप्फाव-आलिसंदगअयसिकुसुंभकोद्दवकंगुवरगरालगसणसरिसवमूलगबीआइ वा?
हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरतक्षेत्र में शालि, ब्रीहि संज्ञक उच्च जाति के चावल, गेहूँ, जौ, विशेष जाति के जौ, कलाय-गोलाकार चने, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, कुलथी, निष्पाव, आलिसंदक-चवले, असली, कुसुंभ, कोद्रव, पीतवर्ण के मोटे चावल, वरक, । शलक, संज्ञक छोटे चावल, सण, सरसों, मूली आदि जमीकंदों के बीज ये सब होते हैं?
हाँ गौतम! ये होते तो है, पर उन मनुष्यों के उपयोग-प्रयोग में नहीं आते। __अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गड्डाइ वा, दरीओवायपवायविसमविज्जलाइ वा? ___णो इणढे समढे, तीसे समाए भरहे वासे बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा०।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरतक्षेत्र में गड्ढे, कंदराएं, घोर अंधकाराच्छन्न विशेष खड्डे, प्रपात - ऐसे स्थान जहाँ से व्यक्ति मन में कोई भावी कामना लिए भृगुपतन करे (आत्म हत्या करे) विषम - जिन पर चढ़ना-उतरना कठिन हो, ऐसे दुर्गम स्थान, विज्जलकीचड़ युक्त फिसलन वाले स्थान-ये सब होते हैं?
. गौतम! ऐसा नहीं होता, क्योंकि उस समय भरतक्षेत्र में बहुत ही समतल एवं रमणीय भूमि होती है। वह ढोलक के चर्म निर्मित ऊपरी भाग ज्यों समान होती है।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे खाणूडू वा, कंटगतणयकयवराइ वा, पत्तकयवराइ वा?
णो इणढे समढे, ववगयखाणुकंटगतणकयवरपत्तकयवरा णं सा समा पण्णत्ता।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरतक्षेत्र में सूखे, ऊँचे ढूंठ, कांटे, तृणों का कचरा तथा सूखे पत्तों का कचरा-ये होते हैं?
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