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द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी : सुषमा काल
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हे भगवन्! उस आरक के अंतिम-तीसरे भाग में भरत क्षेत्र का स्वरूप कैसा होता है?
हे गौतम! इसका भूमिभाग बहुत ही समतल तथा रम्य होता है। वह ढोलक के ऊपर मढे हुए चमड़े के पुट जैसा समतल होता है यावत् कृत्रिम-मनुष्य निर्मित तथा अकृत्रिम-नैसर्गिक मणियों से शोभायमान होता है।
हे भगवन्! उस आरक के आखिरी-तीसरे भाग में भरत क्षेत्र के मनुष्यों का स्वरूप कैसा होता है?
हे गौतम! मनुष्य छओं प्रकार के संहनन धारण करते हैं। छओं ही प्रकार के उनके संस्थान होते हैं। उनका शरीर सैकड़ों धनुष परिमित ऊँचा होता है। उनकी आयु जघन्य रूप में संख्यात वर्षों की तथा उत्कृष्ट रूप में असंख्यात वर्षों की होती है। आयु पूरी होने पर उनमें से कई नरक गति में उत्पन्न होते हैं तथा कतिपय सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का नाश करते हैं।
. (३५) तीसे णं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्ठभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जित्था, तंजहा - सुमई १, पडिस्सुई २, सीमंकरे ३, सीमंधरे ४, खेमंकरे ५, खेमंधरे ६, विमलवाहणे ७, चक्खुमं ८, जसमं ६, अभिचंदे १०, चंदाभे ११, पसेणई १२, मरुदेवे १३, णाभी १४, उसभे १५, त्ति।
भावार्थ - उस आरक के अन्तिम भाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का अष्टमांश (-) अवशिष्ट रहता है तो पन्द्रह कुलकर - विशिष्ट प्रतिभाशील, कुल-समुदाय नियामक पुरुष उत्पन्न होते हैं -
१. सुमति २. प्रतिश्रुति ३. सीमंकर ४. सीमंधर ५. क्षेमंकर ६. क्षेमंधर ७. विमलवाहन ८. चक्षुष्मान् ६. यशस्वान् १०. अभिचंद्र ११. चन्द्राभ १२. प्रसेनजित् १३. मरूदेव १४. नाभि १५. ऋषभ।
- तत्थ णं सुमई १, पडिस्सुई २, सीमंकरे ३, सीमंधरे ४, खेमंकरे ५ - णं एएसिं पंचण्हं कुलगराणं हक्कारे णामं दंडणीई होत्था।
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