Book Title: Jambudwip Pragnapti Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 380
________________ पंचम वक्षस्कार अभिषेक द्रव्यों का आनयन रुप्पमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं अट्ठसहस्सं भोमिज्जाणं अट्ठसहस्सं चंदणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयंसाणं थालाणं पाईणं सुपइट्ठगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरियाभस्स सव्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसियतराई भाणियव्वाइं सीहासणछत्तचामर - तेल्लसमुग्गा जाव सरिसवसमुग्गा तालियंटा जाव अट्ठसहस्सं कडुच्छुयाणं विउव्वंति विउव्वित्ता साहाविए वेउव्विए य कलसे जाव कडुच्छुए य गिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति २ त्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताइं ताइं गिण्हंति, एवं पुक्खरोदाओ जाव भरहेरवयाणं मागहाइ-तित्थाणं उदगं मट्टियं च गिण्हंति २ त्ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुल्लहिम-वंताओ सव्वतुवरे सव्वपुप्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले जाव सव्वोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हंति २ त्ता पउमद्दहाओ दहोदगं उप्पलाईणि य०, एवं सव्वकुलपव्वएसु वट्टवेयढेसु सव्वंमहद्दहेसु सव्ववासेसु सव्वचक्कवट्टिविजएसु वक्खारपव्वएसु अंतरणईसु विभासिज्जा जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभद्दसालवणे सव्वतुवरे जाव सिद्धत्थए य गिति, एवं णंदणवणाओ सव्वतुवरे जाव सिद्धत्थए य सरसं च गोसीचंदणं “दिव्वं च सुमणदामं गेण्हंति, एवं सोमणसपंडगवणाओ य सव्वतुवरे जाव सुमणदामं दद्दरमलयसुगंधे य गिण्हंति २ त्ता एगओ मिलति २ त्ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंत २ त्ता महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेंतित्ति । - Jain Education International - शब्दार्थ महत्थ महार्थ-मणि, स्वर्ण रत्नादिमय, महग्घं - महार्घ - बहुमूल्य सामग्री, महरिहं - महार्ह - विराट उत्सवोपयोगी, आगम्म आकर, तुवर आंवला आदि कषैले पदार्थ, सिद्धत्थए - सफेद सरसों । - - ३६३ 100-00 भावार्थ - देवेन्द्र, देवराज, महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, आदेश देता है - हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उत्सवोपयोगी महत्त्वपूर्ण, बहुमूल्य, विपुल, तीर्थंकराभिषेक योग्य सामग्री लाओ। यह सुनकर आभियोगिक देव बड़े हर्षित, परितुष्ट होते हैं यावत् आज्ञा शिरोधार्य कर उत्तर-पूर्व दिशा भाग में जाते हैं, वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को प्रतिनिष्कांत करते हैं यावत् १००८ स्वर्ण के, १००८ चांदी के, १००८ रत्नों के, १००८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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