Book Title: Jambudwip Pragnapti Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 497
________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र उपसंहार (२१३) तए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाइक्खड़, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेड़ जम्बूदीवपण्णत्ती णामत्ति अजो! अज्झयणे अहं च हेउं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो २ उवदंसेइ तिबेमि । | सत्तमो वक्खारो समत्तो ॥ ॥ जंबुद्दीवपण्णत्तीसुत्तं समत्तं ॥ ४८० शब्दार्थ - परूवेइ - प्ररूपयति प्ररूपित किया । भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जंबू को संबोधित करते हुए कहा हे जम्बू ! मिथिला नगरी के अंतर्गत, मणिभद्र चैत्य में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों, श्राविकाओं, देवों और देवियों की परिषद् के मध्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक सूत्र का अध्ययन, अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण, व्याकरण विश्लेषण पूर्वक बारबार इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्ररूपण, प्रज्ञापन एवं उपदेश किया। इस प्रकार जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र का समापन होता है । ॥ सातवां वक्षस्कार समाप्त ॥ Jain Education International - || जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 495 496 497 498