Book Title: Jambudwip Pragnapti Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 426
________________ सप्तम् वक्षस्कार - चन्द्र मंडल ४०६ भावार्थ - हे भगवन्! उन ज्योतिष्क देवों का, इन्द जब च्युत-कालगत हो जाता है तब देव किस प्रकार काम चलाते हैं? हे गौतम! जब तक दूसरा इन्द्र उत्पन्न नहीं होता यावत् तब तक चार या पांच सामानिक देव मिलकर इन्द्र के स्थान का कार्य निर्वाह करते हैं। हे भगवन्! इन्द्र का स्थान दूसरे इन्द्र के उत्पन्न होने तक कितने समय रिक्त (विरहित) रहता है? हे गौतम! वह कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह मास पर्यन्त इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है। हे भगवन्! मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती चन्द्र यावत् तारे आदि ज्योतिष्क देवों का वर्णन वैसा ही जानना चाहिए। इतना अन्तर है-वे विमानोत्पन्न होते हैं किन्तु चारोपपन्न-गति युक्त नहीं होते। वे चारस्थितिक होते हैं, गतिरतिक तथा गतिसमापन्न नहीं होते। वे पकी हुई ईंट की आकृति में संस्थित चन्द्र एवं सूर्य की अपेक्षा लाखों योजन विस्तीर्ण ताप-क्षेत्र युक्त, लाखों विक्रिया जनित रूप धारण करने में समर्थ बाह्य परिषदों से युक्त अत्यधिक वाद्य संगीत की ध्वनि के साथ यावत् विविध सुखोपभोग करते हुए सुखलेश्या युक्त मंद लेश्या - तीव्र शीतलता आदि रहित, मंदातप लेश्या - अधिक शीत आदि से रहित, चित्रातर लेश्या - चित्र विचित्र लेश्यायुक्त, परस्पर अपनी-अपनी लेश्याओं के अवगाह-मिलने से युक्त, पर्वत शिखरों की तरह स्व-स्वस्थितिक सब ओर के अपने प्रदेशों को अवभासित, उद्योतित एवं प्रभासित करते हैं। - हे भगवन्! जब मानुषोत्तर पर्वत के बाहर स्थित देवों के इन्द्र का च्यवन हो जाता है तो वे यहाँ कैसी व्यवस्था करते हैं यावत् हे गौतम! जब तक नया इन्द्र उत्पन्न नहीं होता, पूर्ववत् कम से कम एक समय तक तथा अधिक से अधिक छह मास तक व्यवस्था होती है। चन्द्र मंडल (१७५) कइ णं भंते! चन्दमण्डला पण्णत्ता? गोयमा! पण्णरस चंदमण्डला पण्णत्ता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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