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सप्तम् वक्षस्कार नक्षत्रों का अधिष्ठायक देव
प्रधान देवी अन्य सहस्रों देवियों की विकुर्वणा करने में सक्षम होती है। इस प्रकार सोलह सहस्र देवियाँ विकुर्वित होती हैं। अवशिष्ट त्रुटितादि वाद्य, ध्वनि, नृत्य, संगीत नाट्यादि का वर्णन पूर्ववत् है ।
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- हे भगवन्! ज्योतिष्क देवों के स्वामी, इन्द्र, राजा चंद्रावतंसक विमान में, चंद्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में त्रुटित आदि वाद्य, नृत्य गीत प्रभृति यावत् दिव्य भोगोपभोग में क्या विहरणशील है ?
गाहा
हे गौतम! ऐसा नहीं है।
हे भगवन्! वह किस कारण से यावत् भोगानुरंजित क्यों नहीं है ?
हे गौतम! ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज के चंद्रावतंसक विमान में, चंद्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में माणवक संज्ञक चैत्य स्तंभ है। उस पर हीरक निर्मित, गोलाकार पात्रों में जिनेन्द्रों की बहुत-सी अस्थियाँ स्थापित हैं। वे चन्द्र एवं अन्य बहुत से देव एवं देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय है।
: हे गौतम! उनके प्रति बहुमान के कारण आशातना के भय से सुधर्मा सभा में अपने चार सहस्र सामानिक देवों से घिरा हुआ चंद्रमा यावत् दिव्य भोगोपभोग में निरत नहीं होता । वहाँ केवल परिवार ऋद्धि, रूप, वैभव में सुख मानता है, मैथुन सेवन नहीं करता ।
समस्त ग्रहों की विजया, वैजयंती, जयंती तथा अपराजिता नामक चार अग्रमहीषियाँ हैं । इस प्रकार १७६ ग्रहों की ये अग्रमहीषियाँ हैं ।
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गाथाएँ - अंगारक, विकालक, लोहितांक, शनैश्चर, आधुनिक, प्राधुनिक, कण, कणक, कणकणक, कर्णविंतानक, कणसंतानक, सोम, सहित, आश्वासन, कार्योपग, कर्बुरक, अजकरक, दुंदुभक, शंख, शंखनाभ, शंखवर्णाभ इस प्रकार भावकेतु पर्यन्त ग्रहों का उच्चारण करना चाहिए । इन सबकी प्रधान देवियाँ उपर्युक्त नामयुक्त हैं ।
नक्षत्रों का अधिष्ठायक देव
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बम्हा विण्हू य वसू वरुणे अय वुड्डी पूस आस जमे । अग्ग पयावइ सोमे रुद्दे अदिई वहस्सई सप्पे ॥१॥
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