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द्वितीय वक्षस्कार - केवल्य : संघ स्थापना
उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जियासहस्सा सिद्धा - सट्ठि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा ।
उसभस्स णं अरहओ बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो - अप्पेगइया मासपरियाया, जहा उववाइए सव्वओ अणगारवण्णओ, जाव उड्डुं जाणू अहोसि झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।
उसभस्स णं अरहओ दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तंजहा - जुगंतकरभूमी य परियायंतकरभूमी य, जुगंतकरभूमी जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई, परियायंतकरभूमी अंतोमुहुत्तपरियाए अंतमकासी ।
शब्दार्थ - चीवरधारी वस्त्र युक्त, णिच्च - नित्य, वोसट्टकाए - दैहिक आसक्ति से विरहित, चिअतदेहे त्यक्तदेह - शरीर के ममत्व से रहित, आउट्टेज्जा - सहने लगा, संगंथ संथुआ - संग्रयितजन - अन्य पारिवारिकजन, अहवा अथवा, वासीत बढ़ई का -वसूला (औजार), लेडु - पत्थर ।
भावार्थ - कौशल देशोत्पन्न अरहंत ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक वस्त्र युक्त रहे । तत्पश्चात् वे निर्वस्त्र रहे। जब से वे गृहस्थ से मुनिधर्म में दीक्षित हुए तब से वे शारीरिक सज्जा, श्रृंगार आदि से रहित, दैहिक ममत्व से अतीत होते हुए, उपसर्ग और परीषहों को ऐसे उपेक्षा भाव से सहते मानो उनके देह हो ही नहीं । देवों द्वारा यावत् तिर्यंच पशु-पक्षियों द्वारा कृत जो भी अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग आते, उन्हें वे निडरता पूर्वक सहते । जैसे कोई उन्हें बेंत से यावत् चमड़े के कौड़े से पीटता, अनुकूल परीषह जैसे कोई उन्हें वंदन करता यावत् उनकी पर्युपासना करता तो भी वे उसे अनासक्त भाव से सहन करते यावत् स्वीकार करते ।
भगवान् ऋषभ ऐसे उच्च कोटि के श्रमण थे कि वे ईर्यासमिति यावत् परिष्ठापना समिति से युक्त थे। मन, वचन एवं काय का नियंत्रण किये रहते थे। वे मनोगुप्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारीनियमोपनियम पूर्वक ब्रह्मचर्य के संरक्षक थे। वे क्रोध रहित यावत् लोभ रहित, शांत, प्रशांत, उपशांत, परिनिर्वृत, छिन्न स्रोत - लोक प्रवाह के छेदक - उसमें नहीं बहने वाले, कर्म लेप रहित, शंख की तरह कालिमा रहित, उच्च जातीय स्वर्ण के समान उत्तम, निर्मल चारित्र युक्त, दर्पणगत प्रतिबिंब की तरह स्पष्ट अभिप्राय युक्त, कच्छप की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त रखने वाले,
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