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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
रत्न से नीचे उतरा। सेनापति सुषेण उपहार में प्राप्त उत्तम, श्रेष्ठ रत्न लेकर राजा भरत के समक्ष उपस्थित हुआ। दोनों हाथ जोड़े हुए यावत् अंजलिबद्ध होकर राजा को जय-विजय से वर्धापित किया, उपहार रूप में प्राप्त उत्तम, श्रेष्ठ रत्न उपहत किए। राजा ने सेनापति सुषेण से उन्हें स्वीकार किया। राजा ने उसका सत्कार-सम्मान कर उसे विदा किया। आगे का वर्णन सांसारिक सुखोपभोग में निरत रहने पर्यन्त पूर्ववत् है।
तत्पश्चात् राजा भरत ने किसी एक दिन सेनापति रत्न को आहूत किया और कहादेवानुप्रिय! जाओ, खंडप्रपात गुहा के उत्तरीद्वार का कपाटोद्घाटन करो। आगे का वर्णन तमिस्रा गुहा की ज्यों यहाँ योजनीय है यावत् आपका प्रिय हो, पर्यन्त ऐसा ही वर्णन है, फिर आगे यावत् राजा भरत उत्तरवर्ती द्वार के पास गया। बादलों के समूह से जनित अंधकार को चीर कर निकलते हुए चंद्र की ज्यों राजा गुफा में प्रविष्ट हुआ, मंडलों का आलेखन किया। उस खंडप्रपात गुफा के ठीक मध्य स्थान में यावत् उन्मग्नजला तथा निमग्नजला दो महानदियाँ निकलती हैं से आगे का वर्णन पूर्ववत् है। केवल इतनी विशेषता है कि ये नदियाँ खंडप्रपात गुफा के पश्चिमी भाग से निकलती है तथा आगे चलकर पूर्व दिशा में गंगा महानदी, में मिल जाती हैं। अवशिष्ट वर्णन पूर्व की तरह है। केवल इतनी विशेषता है - पुल का निर्माण गंगा के पश्चिमी तट पर हआ।
तदनंतर खंडप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट क्रौंच पक्षी की तरह जोर से आवाज करते हुए सरसराहट के साथ स्वयं ही अपने स्थान से सरक गए। चक्ररत्न द्वारा दिखलाए गए मार्ग पर चलता हुआ राजा यावत् मेघसमूह जनित अंधकार को चीरकर निकलते हुए चंद्रमा की तरह (राजा) खंडप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार से निकला।
(८२) तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्ले कूले दुवालसजोयणायाम णवजोयणविच्छिण्णं जाव विजयक्खंधावारणिवेसं करेइ, अवसिटुं तं चेव जाव णिहिरयणाणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, तए णं से भरहे राया पोसहसालाए जाव णिहिरयणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ, तस्स य अपरिमियरत्तरयणा धुयमक्खयमव्वया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुयजसा, तंजहा -
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