________________
१७२ 42-0-0--0-08-0
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
अंकित थे। रत्नरश्मियों की ज्यों रंग रचना करने में प्रवीण कलाकारों द्वारा बड़े सुंदर रूप में रंगा हुआ था। उस पर राजलक्ष्मी का निशान अंकित किया हुआ था। अर्जुन संज्ञक पांडुवर्ण के सोने से उसके पीछे का भाग आच्छादित था - उस पर सोने की पच्चीकारी का कलात्मक कार्य किया हुआ था। वह तपनीय स्वर्ण के पट्ट से - पात से परिवेष्टित था। वह शरऋतु की पूर्णिमा के समान अत्यधिक शोभायुक्त, चंद्रविकासी कमल के समान धवल, राजा के संचरणशील विमानरूप, सूरज के आतप, वायु एवं वृष्टि के उपद्रव का विनाशक था। वह राजा के पूर्व जन्म में किए गए तप के परिणाम स्वरूप प्राप्त था।
गाथा - वह छत्र रत्न अहत - सर्वथा अखंडित अनेक गुण प्रदायक, ऋतुओं के विपरीत, सुखमय, छाया देने वाला था। पुण्यहीनों के लिए वह उत्तम छत्र रत्न दुर्लभ है। .. · धरणितल के स्वामी-परम पावन इन्द्र, राजा भरत का वह चक्ररत्न अत्यधिक प्रमाण में किए गए तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त था, देवताओं के लिए भी दुर्लभ था, फैली हुए मालाओं के समूह से वह सज्जित था एवं शरद ऋतु के बादल एवं चन्द्रमा के समान धवल, दिव्य था। वह दिव्य छत्र रत्न राजा भरत द्वारा परामृष्ट-स्पर्श किए जाने पर शीघ्र ही बारह योजन से कुछ अधिक तिर्यक् रूप में तन गया।
रत्न चतुष्टय द्वारा सुरक्षा .
(७६) तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरिं ठवेइ २ त्ता मणिरयणं परामुसइ वेढो जाव छत्तरयणस्स वत्थिभागंसि ठवेइ, तस्स य अणइवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंतमेत्तसालि-जव-गोहूम-मुग्ग-मास-तिल-कुलत्थ-सट्टिग-णिप्फावचणगकोद्दव-कोत्थुभरि-कंगुवरग-रालग-अणेगधण्णावरणहारियग-अल्लग-मूलगहलिद्द-लाउयतउस-तुंबकालिंग-कविट्ठ-अंब-अंबिलिय-सव्वणिप्फायए सुकुसले गाहावइरयणेत्ति सव्वजण-वीसुयगुणे। तए णं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्ण-णिप्फाइय-पूइयाणं सव्वधण्णाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उवट्ठवेइ, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छण्णे मणिरयणकउजोए समुग्गयभूएणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org