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जैन धर्म और संस्कृति
ऋषभ एक ही व्यक्ति हैं, जो अन्तर है वह इतना ही है कि प्रत्येक परम्परा ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने-अपने रंग में रंगने का प्रयत्न किया है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
पाषाणकालीन प्रकृत्याश्रित असभ्य युग (भोगभूमि) का अन्त करके ज्ञानविज्ञान संयुक्त कर्मप्रधान मानवी सभ्यता का जनक इन आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को ही माना जाता है । उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत ही इस देश का सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट था और इसी के नाम पर यह देश 'भारत' या 'भारतवर्ष' कहलाया, यह जैन पौराणिक अनुश्रुति वैदिक साहित्य एवं ब्राह्मणीय पुराणों से समथित है। ऋषभ के उपरान्त समय-समय पर २३ अन्य तीर्थंकर हुए जिन्होंने उनके सदाचार-प्रधान योगधर्म का पुनः प्रचार किया और जैन संस्कृति का पोषण किया। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुवृतनाथ के तीर्थ में अयोध्यापति रामचन्द्र हुए जिन्होंने श्रमण-ब्राह्मण उभय संस्कृतियों के समन्वय का भागीरथ प्रयत्न किया, एतदर्थ वे दोनों परम्पराओं में परमात्मरूप में उपास्य हुए। इक्कीसवें तीर्थंकर नमि विदेह के जनकों के पूर्वज मिथिला नरेश थे जो उस अध्यात्मिक परम्परा के सम्भवतया आद्य प्रस्तोता थे, जिसने जनकों के प्रश्रय में औपनिषदिक आत्मविद्या के रूप में विकास किया ।' बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। दोनों ही जैन परम्परा के शलाकापुरुष हैं। दोनों ही भारतयुद्ध के समसामयिक ऐतिहासिक नरपुंगव हैं। अरिष्टनेमि ने श्रमणधर्म पुनरुत्थान का नेतृत्व किया तो कृष्ण ने उभय परम्पराओं के समन्वय का स्तुत्य प्रस्तुत किया। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व (७७७८७७ ई० पू०) काशी के उरगवंशी क्षत्रिय राजकुमार थे और श्रमण धर्म पुनरुत्थान आन्दोलन के सर्वमहान् नेता थे, सम्भवतया इसी कारण अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने तीर्थंकर पार्श्व को ही जैनधर्म का प्रवर्तक मान लिया। इसमें सन्देह नहीं कि
२. देखिए-डॉ. हीरालाल जैन-'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान', पृ० ११-१९;
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- 'जैनिज्म : दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन', पृ० ४०-४६; तथा
'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि' (द्वि० सं०), पृ० २१-२९। ३. वही, पृ० २४; स्वामी कर्मानन्द-'भारत का आदि सम्राट', तथा 'भरत और भारत' । ४. 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', पृ० ३२ । ५. डा० हीरालाल जैन, वही, पृ० १९-२० । ६. 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि'; पृ० ३३, ४२-४५ ।
परिसंवाद-४
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