Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 14
________________ उसके तीव्र संक्लेश भाव रहता है। उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए तीव्र संक्लेश युक्त परिणाम आवश्यक है। नरकगति में गमन के उन्मुख जीव के तीव्र संक्लेश के कारण तीर्थङ्कर रूप शुभ प्रकृति का अल्प अनुभाग बंध होगा, क्योंकि- सुहंपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण।। (१६३/कर्म.) अर्थात् शुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग बंध विशुद्ध भावों से होता हैं तथा अशुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग बंध संक्लेश से होता है। अपूर्वकरण गुणस्थान के छट्टे भाग तक शुद्धोपयोगी तथा शुक्लध्यानी मुनिराज के इस तीर्थङ्कर रूप पुण्य प्रकृति का बंध होता है। वहां इसका उत्कृष्ट अनुभाग बंध पड़ेगा। जबकि स्थिति बंध का रूप विपरीत होगा अर्थात् न्यून होगा। निमित्त कारण : तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध करने वाला परम शुभ भावना करता हुआ जगत् के उद्धार के विषय में चिन्तनशील बनता है। वह विचारता है- “श्रेयोमार्गानभिज्ञान जाज्वलददुःख-दाव-स्कंधे च क्रम्पमाणान वराकान उद्धरेयं" अर्थात् मोक्षमार्ग से अपरिचित दुःखरूप दावानल में दग्ध होने के भय से इधर-उधर भ्रमण करने वाले इन दीन जीवों का मैं उद्धार करूँ। यह भावना अपाय विचय धर्मध्यान सदृश लगती है। इस परम कारुणिक चित्तवृत्ति की प्रबल रूप से जागृति तीर्थङ्कर परमदेव के दर्शन द्वारा उनके समक्ष में होती है। वहां विश्व के उद्धार की भावना को विशेष बल प्राप्त होता है। कारण भावना करने वाला व्यक्ति भावना के मूलस्रोत साधन को समीप लाता है। उससे प्रबल प्रेरणा तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा है-- द्वग्विशध्यादयो नाम्नस्तीर्थकृत्वस्य हेतवः। समस्ता व्यस्तरूपा वा दृग्विशुध्या समन्विताः।। १७/पृ. 456 / / दर्शन विशुद्धि आदि तीर्थङ्कर नामकर्म के कारण हैं चाहे वे सभी कारण हों या पृथक्-पृथक् हो; किन्तु उनको दर्शन विशुद्धि समन्वित होना चाहिए। वे इसके आगे कहते है- “सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधितिपत्वकृत"।।१८। वह पुण्य तीन लोक का अधिपति बनाता है। वह पुण्य सर्वश्रेष्ठ है। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाएं पृथक् रूप में तथा समुदाय रूप में तीर्थङ्कर पद की प्राप्ति में कारण हैं, ऐसा भी अनेक स्थलों में उल्लेख आता है। आगम में कहा है कि तीनों सम्यक्त्वों में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध हो सकता है, अत: यह मानना उचित है कि सम्यक्त्व रूप आत्मनिधि के स्वामी होते हुए भी लोकोद्धारिणी शुभराग रूप विशुद्ध भावना का सद्भाव आवश्यक है। उसके बिना क्षायिक सम्यक्त्वी भी तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध नहीं कर सकेगा। तीर्थङ्कर प्रकृति के सद्भाव का प्रभाव : तीर्थङ्कर प्रकृति का उदय केवली अवस्था में होता है "तित्थं केवलिणि" यह आगम का वाक्य है। यह नियम होते हुए भी तीर्थङ्कर भगवान् के गर्भ, जन्म तथा तपकल्याणक रूप कल्याणकत्रय तीर्थङ्कर प्रकृति के सद्भाव मात्र से होते हैं। होनहार तीर्थङ्कर के गर्भकल्याणक के छह माह पूर्व ही विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में पञ्चकल्याणक वाले ही तीर्थङ्कर होते हैं। वे देवगति से आते है या नरक से भी चयकर मनुष्यपदवी प्राप्त करते हैं। तिर्यञ्च पर्याय से आकर तीर्थङ्कर

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