Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 13
________________ कर्म-सिद्धान्त में तीर्थङ्कर प्रकृति की महत्ता - पं. आनन्दप्रकाश जैन शास्त्री, कोलकाता ___ जैनधर्म में ज्ञानावरणादि नामकर्म की पुण्य प्रकृतियों में सबसे अधिक पुण्य और पवित्र यदि कोई प्रकृति है तो वह है तीर्थङ्कर प्रकृति। तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाले जीव के जन्म की सूचना छह माह पूर्व रत्नों की वर्षा से हो जाती है। यह सब पूर्वभव में किये गये पुण्यकर्म तथा चारित्र का फल है। चारित्र की अपार महिमा है जिसके द्वारा यह जीव उन्नति के शिखर पर चढ़ता है। तीर्थकर प्रकृति की लोकोत्तरता : जो आत्मा रत्नत्रय से समलंकृत है वह लोक की श्रेष्ठ विभूतियों का अधिपति होता हुआ तीर्थङ्कर परमदेव का लोकोत्तर पद प्राप्त करता है तथा स्व-पर का सच्चा उद्धारक बनता है। अकलङ्कस्वामी राजवार्तिक (अ. 6, सूत्र 24) में लिखते है- “इदं तीर्थंकर नामकर्म-अनंतानुपमप्रभावमचिंत्यविभूतिविशेषकारणं त्रैलोक्यविजयकरं" अर्थात् यह तीर्थङ्कर नामकर्म अनन्त और अनुपम प्रभाव का कारण होते हुए अचिन्त्य विभूति विशेष का कारण है। यह त्रिलोक को विजय करने वाला कर्म है। इस तीर्थङ्कर प्रकृति की लोकोत्तरता इससे ही स्पष्ट होती है कि बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण एक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप कल्पकाल में केवल दो चौबीसी प्रमाण ही तीर्थङ्कर इस भरतक्षेत्र में होते हैं। इस तीर्थङ्कर प्रकृति का उदयकाल केवलज्ञान होने पर आता है; किन्तु उसके पूर्व ही गर्भ, जन्म तथा तप कल्याणकों के रूप में भी त्रिभुवन के महान् प्राणी भी उस कर्म की महत्ता से प्रभावित तथा उपकृत होते है। तीर्थङ्कर प्रकृति बन्धक जीव : जिस तीर्थङ्कर प्रकृति के उदय से देव असुर तथा मानवादि द्वारा वन्दनीय तीर्थङ्कर की पदवी प्राप्त होती है उस कर्म का बन्ध तीनों प्रकार के सम्यक्त्वी करते हैं। ___ इसका निष्ठापन तिर्यश्च को छोड़कर शेष गतियों में होता है। इसका उत्कृष्टपने से अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून दो कोटिपूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाण काल पर्यन्त बंध होता है। केवली श्रुतकेवली का सानिध्य आवश्यक कहा है, क्योंकि “तदन्यत्रतादृग्विशुद्धिविशेषा संभवात्” उनके सानिध्य के सिवाय वैसी विशुद्धता का अन्यत्र अभाव है। नरक की प्रथम पृथ्वी में तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध पर्याप्त तथा अपर्याप्त अवस्था में होता है। दूसरी तथा तीसरी पृथ्वी में इस प्रकृति का बन्ध अपर्याप्त काल में नहीं होता है। कहा भी है- धम्मे तित्यं बंधति वसामेघाटणपुण्णगो चेव। - गो.कर्म. 106 गोम्मटसार में लिखा है कि तीर्थङ्कर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध अविरति सम्यकत्वी के होता है। "तित्थयरं च मणुस्सो अविरद सम्मो समज्जेइ" इसकी संस्कृत टीका में लिखा है / “तीर्थङ्कर-उत्कृष्ट-स्थितिकं नरकगति-गमनाभिमुखं-मनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टिरेव वध्नाति' (पृ. 134) उत्कृष्ट स्थिति सहित तीर्थङ्कर प्रकृति को नरकगति जाने के उन्मुख असंयत सम्यक्त्वी मनुष्य बांधता है, कारण

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