Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 19
________________ प्रभुजी को विलेपन करने की विधि बरास जैसे उत्तम द्रव्यों से विलेपन करें । विलेपन करके कपड़े से पोंछना नहीं । * दाहिने हाथ की पाँचों ऊँगलियों का उपयोग करते हुए पूरे शरीर पर विलेपन करें। * प्रभुजी को नाखून का स्पर्श न हो, इसका ध्यान रखें । प्रभुजी के सभी अंग जैसे हृदय, छाती, पैर, हाथ आदि पर विलेपन करें । प्रभु की केशरपूजा करने की विधि पूजा करने की ऊँगली के अलावा किसी भी अंग का प्रभुजी को स्पर्श न हो, इसका विशेष ध्यान रखना। * टाइपिस्ट की तरह धड़ाधड़, फटाफट पूजा नहीं करनी चाहिये । लंछन, हथेली एवं श्रीवत्स की पूजा नहीं करना । प्रभु के नव अंग की तेरह या नव तिलक से पूजा की जाती है । प्रत्येक तिलक के समय अंगुली में केसर लेकर पूजा करना उचित है । तेरह बार अंगुली में केसर लेकर तिलक करने से अंग 9 के 13 नहीं हो जाते । अंग तो 9 ही गिने जायेंगे । अंग पूजा करते समय दोहे मन में बोलें । गंभारे के बाहर खड़े रहने वाले जोर से भी दोहे बोल सकते हैं। प्रश्न: फणा की पूजा कैसे करनी चाहिये ? उत्तर: फणा की पूजा अलग से करनी योग्य नहीं है । फणा प्रभु की शोभा रूप होने से प्रभु का अंग समझकर शिखा का तिलक करते समय अनामिका से ही फणा के ऊपर (अग्रभाग में नहीं) तिलक कर सकते हैं । परंतु नव अंग की पूजा पूरी होने के बाद धरणेन्द्र देव मानकर अंगूठे से फणा की पूजा करना अनुचित है । (नोट : फणा की पूजा आवश्यक नहीं है।) प्रश्न: लंछन क्या है? उसकी पूजा करनी चाहिये या नहीं ? उत्तर: जीवंत भगवान की दाहिनी जंघा पर रोमराजी अथवा रेखाओं से लंछन का आकार बना होता है। यह किस प्रभुजी की प्रतिमा है?, यह जानने के लिये प्रतिमा के नीचे उन प्रभु का लंछन बनाया जात है । इसीलिये इसकी पूजा नहीं होती । (पूजा करने से लंछन अस्पष्ट हो जाता है।) प्रश्न: केशर पूजा करते हुए अष्ट मंगल की पाटली की पूजा कर सकते है या नहीं ? उत्तर: अष्ट मंगल की पाटली प्रभु के आगे मंगल रूप में रखी जाती है, उसकी पूजा नहीं करना । लेकिन चंदन या चावल से आलेखन करना (प्रभु के सामने धरना) चाहिये । (आलेखन यानि ड्रा (Draw) करना, लीपना, पोतना आदि) प्रश्न: सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद प्रभु की पूजा कर सकते हैं? उत्तर: सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद प्रभु पूजा कर सकते हैं । क्योंकि नवपदजी में आचार्यजी, 17

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