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की भक्ति करने के लिए प्रेरणा दी किंतु उस पापी ने उस पर श्रद्धा नहीं की, क्योंकि अभवि तथा दूरभवी व्यक्ति भगवान पर थोडी भी श्रद्धा नहीं कर सकते । केवल भवि जीव हों वे ही श्रद्धा कर सकते है, तथा धर्म को प्राप्त कर सकते हैं । धर्म रूपी रत्न के लिए अयोग्य जानकर देवपाल राजा ने उसको छोड दिया और देवपाल राजा स्वयं वैराग्य भाव में वृद्धि वाला हुआ । अनुक्रम से अपने पुत्र देवसेन को राज्य सौंपकर अपनी रानी के साथ चंद्रप्रभु गुरू से दीक्षा ली । तप करते हुए 11 अंग तथा नौ पूर्वोका ज्ञान प्राप्त किया तथा प्रथम पद अरिहंत की भक्ति करते हुए शाश्वत-अशाश्वत प्रतिमाओं का हृदय से ध्यान किया । अरिहंत प्रभुओं की जन्म, दीक्षा इत्यादि भूमियों की ये गीतार्थ देवपाल राजर्षि स्पर्शना करते हुए वंदन करते हैं। इस प्रकार अरिहंत पद की आराधना करके छट्ठ-अट्ठम इत्यादि तप करके निरतिचार चारित्र का पालन करके मृत्यु पाकर प्राणत नामक दसवें देवलोक में गए और वहाँ इन्द्र बनें, रानी मनोरमा भी साध्वी का जीवन पालन कर उसी देवलोक में देवता के रुप में उत्पन्न हुई । वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में देवपाल राजा का जीवन तीर्थंकर बनेगा तथा उनकी रानी मनोरमा का जीव उनका गणधर बनेगा।
इस कथा का सार यह है कि बिल्कुल अनपढ, गँवार और ढोरों को चराने वाले नौकर को जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा की पूजा के प्रताप से उसी भव में हाथी, घोडे, रथ आदि से समृद्ध राज्य मिला, राजकन्या पत्नी के रूप में मिली, उसने जिनशासन की प्रभावना की । लोग उसको देखकर धर्म के प्रभाव में आए । उसने तीर्थंकर नाम कर्म बाँधकर लोकोत्तर पुण्य उपार्जन किया । इसी प्रकार विवेकी समझदार आत्माओं को भी श्री जिनशासन की प्रभावना करनी चाहिए । दूसरा यह कि लकडहारे की पत्नी पूजा करने के प्रभाव से दूसरे भव में राजपुत्री बनी और उसके बाद गणधर पद को प्राप्त करेगी, तथा जो धर्म की मजाक करता था वह पति लकडहारा दरिद्र-गरीब अवस्था को प्राप्त करके दु:खी हुआ । यह पाप व पुण्य का प्रत्यक्ष फल देखकर तुम्हें भी प्रभु की पूजा अवश्य करनी चाहिए। बिना प्रभु के दर्शन कीये मुँह में पानी भी नहीं डालना चाहिए, जिससे अपना तथा दूसरे अनेकों का कल्याण हो ।
D. महणसिंह की कथा व्रत पालन की दृढता और प्रतिक्रमण की पावन शक्ति प्रदर्शित करता हुआ महणसिंह का चरित्र, धर्म की चुस्तता के कारण इस भव और परभव में होनेवाले कल्याण का परिचय देता है । दिल्ली के धर्मपरायण महणसिंह की सत्यवादी के रूप में सर्वत्र ख्याति फैली हुई थी। वे आचार्य देवसुंदर सूरि और आचार्य सोमसुंदरसूरि के भक्त थे। एक बार उन्होंने षड्दर्शनों और चौरासी गच्छों के सर्व साधुसंन्यासियों को आमंत्रित किया था। चौरासी हजार टके (तत्कालीन सिक्के) खर्च करके सभी का अभिवादन किया था । इस मंगल प्रसंग पर पंन्यास देवमंगल गणि महोत्सव के दूसरे दिन दिल्ली पहुँच चुके थे, तब उस दिन भी महणसिंह ने नगर प्रवेश महोत्सव एवं लघु संघ पूजा की थी। इस धर्म कार्य में उन्होंने छप्पन हजार टके खर्च कये थे।
षड् दर्शन के पोषक महणसिंह की दानगंगा धर्म के मार्ग पर अविरत बहती रहती थी। यह देखकर
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