Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 80
________________ होता है, सौ आचार्यों के बराबर एक पिता और हजार पिताओं के बराबर एक माता होती है। इस कारण माता का गौरव अधिक है। 10.उपद्रव वाले स्थान को शीघ्र छोड़ देना : राज्य या दूसरे देश के राज्य की ओर से भय हो, दुष्काल हो, महामारी आदि रोग का उपद्रव हो, गाँव या नगर आदि में सर्वत्र अशान्ति पैदा हो गयी हो तो गृहस्थ को वह स्थान शीघ्र छोड़ देना चाहिए । 11.निंदनीय कार्य का त्याग : देश, जाति और कुल की दृष्टि से घृणित निन्दित कार्य में प्रवृति नहीं करनी चाहिए । 12.आय के अनुसार व्यय करना : गृहस्थ को अपनी आय के अनुसार ही खर्च करना चाहिए । जितनी चादर हो उतने ही पाँव फैलाने चाहिए । कमाई के चार भागों में से एक भाग आश्रितों के भरण पोषण में लगाना चाहिए, दूसरा भाग व्यापार में और तीसरा भाग धर्मकार्यों के उपयोग में और चौथा भाग भंडार में (याने बचत खाते में) रखना चाहिए । 13.संपत्ति के अनुसार वेषधारण : अपनी सम्पत्ति, हैसियत, वैभव, अवस्था, देश, काल और जाति के अनुसार ही वस्त्र एवं अलंकार आदि धारण करना चाहिए । 14.बुद्धि के आठ गुणों का धनी : 1.शुश्रुषा – धर्मशास्त्र सुनने की अभिलाषा । 2.श्रवण – धर्म श्रवण करना । 3.ग्रहण - श्रवण करके ग्रहण करना । 4.धारणा - सुनी हुई बात को भूल न जाए इस तरह उसे धारण करके मन में रखना । 5.ऊह - जाने हुए अर्थ के सिवाय दूसरे अर्थों के संबंध में तर्क करना । 6.अपोह - श्रुति, युक्ति और अनुभूति से विरूद्ध अर्थ से हटना अथवा हिंसा आदि आत्मा को हानि पहुँचाने वाले पदार्थों से पृथक हो जाना । 7.अर्थ विज्ञान : उहापोह के योग से मोह और संदेह को दूर करके वस्तु के सम्यग् ज्ञान को प्राप्त करना । 8. तत्त्वज्ञान - जिनेश्वर द्वारा उपदेशित विशुद्ध आत्म-कल्याणकारी तत्त्व युक्त ज्ञान प्राप्त करना । 15.प्रतिदिन धर्म श्रवण कर्ता : आत्म विकास के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति हेतु धर्म श्रवण नित्य करना चाहिए । 16.अजीर्ण के समय भोजन छोड़ देना : पहले किया हुआ भोजन जब तक हजम न हो, तब तक नया भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि अजीर्ण समस्त रोगों का मूल है । 17.समय पर पथ्य भोजन करना : भूख लगने पर आसक्ति रहित अपनी प्रकृति एवं जठराग्नि की पाचन । 78

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