Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 81
________________ शक्ति के अनुसार उचित मात्रा में भोजन करना । भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक करें । तामसी, 7 विकारोत्पादक पदार्थों का त्याग करें । 18.परस्पर अबाधित रूप से तीनों वर्गों की साधना : धर्म, अर्थ और काम ये तीन वर्ग हैं । जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो वह धर्म है । जिससे लोक के सर्व प्रयोजन सिद्ध होते हो वह अर्थ है । अभिमान और सुखों से सम्बन्धित रसयुक्त प्रीति काम है । अत: इन तीनों की परस्पर अबाधित रूप साधना होनी चाहिए । 19.अतिथि आदि का सत्कार : घर आए हुए अतिथि का स्वागत करना चाहिए । अतिथि यानि बिना पूर्व जानकारी दिये अचानक आया मेहमान । 20.अभिनिवेश से दूर : मिथ्या आग्रह से सदा दूर रहना चाहिए । जो व्यक्ति नीतिमार्ग से विमुख हो, जिद्दी और अभिमानी हो, उनसे दूर रहना चाहिए । 21.गुण का पक्षपाती : सद्गृहस्थ को गुणों का और गुणीजनों का पक्षपाती होना चाहिए । गुणीजन जब भी उनके संपर्क में आएं तब उनका आदर करें, उन्हें मान दे और उनकी सहायता करें । 22.निषिद्ध देश काल चर्या का त्याग : सद्गृहस्थ की जीवन चर्या देश और काल के अनुसार होती है ।वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जिससे सामाजिक नियम भंग हो या व्यवहारिक जीवन विकृत होता हो । 23.बलाबल का ज्ञाता : सद्गृहस्थ को अपनी अथवा दूसरों की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शक्ति जानकर तथा अपनी सबलता और निर्बलता का विचार करके सभी कार्य करने चाहिए । 24.तपस्वीयों व व्रत धारीयों और ज्ञानवृद्धों का पूजक : अनाचार को छोड़कर सम्यक आचार के पालन में दृढ़ता से स्थिर रहनेवालों को व्रतधारी कहते हैं । निश्चयात्मक ज्ञान से जो महान हो वे ज्ञानवृद्ध है । इन दोनों को आसन देना, सेवा करना, उनका सत्कार सम्मान करना चाहिए । 25.पोष्य का पोषक करना : सद्गृहस्थ का यह उत्तरदायित्व है कि परिवार में माता-पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि व अन्य जो उस पर आश्रित हो या सम्बंधित हो, उनका भरण पोषण करें । इससे उन सबका सद्भाव व सहयोग प्राप्त होगा । 26.दीर्घदर्शी : सद्गृहस्थ तीक्ष्ण बुद्धि का धनी होता है । वह अपनी प्रतिभा द्वारा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म रहस्य को पकड़ लेता है । वह कोई भी कार्य गम्भीरतापूर्वक करता है । 27.विशेषज्ञ : सार-असार, कार्य-अकार्य, वाच्य-अवाच्य, लाभ-हानि आदि का विवेक करना । तथा नये-नये आत्महितकारी ज्ञान प्राप्त करना, सब दृष्टियों से हितकारी विषय जान लेना विशेषज्ञता है। 28.कृतज्ञ : कृतज्ञ का अर्थ दूसरों के किए हुए उपकारों को याद रखना और यथा शक्ति उनका बदला चुकाने को तत्पर रहना चाहिए । 79

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