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8. दिनचर्या
चातुर्मास के नव अलंकार धर्म अराधना की दृष्टि से ज्ञानी पुरुषों ने वर्ष के तीन विभाग किये है - 1. कार्तिकी चातुर्मास 2.फाल्गुणी चातुर्मास, 3.आषाढी चातुर्मास
जैन शासन में आषाढी चातुर्मास का अत्यधिक महत्त्व है। यह आषाढ शुक्ला चतुर्दशी से प्रारंभ होता है और कार्तिक पूनम को समाप्त होता है। वर्षावास का यह काल धर्माराधना के लिए सर्वोत्तम माना गया है। भारत वर्ष में जहाँ-जहाँ भी जैन साधु-साध्वी होते है, वे इस दिन से एक गाँव /नगर में एक स्थान पर स्थिर हो जाते है और चार महिने तक तपोमय जीवन जीते हुए संयम आराधना में निमग्न रहते है। आषाढी चातुर्मास में वर्षाकाल होने से चारों ओर जीवोत्पति भी अत्यधिक बढ़ जाती है, इस काल में विहार करने से जीव हिंसा होती है। अत: जीवदया, प्राणी रक्षा की दृष्टि से इन दिनों विहार निषिद्ध माना गया है। साधु-साध्वी की भाँति श्रावक-श्राविकाओं को भी वर्षाकाल में एक ही नगर में रहना चाहिए। कहा है-दयार्थ सर्वजीवानां वर्षाष्वेकत्र संवसेत्' गुर्जरेश्वर कुमारपाल ने कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य के पास चातुर्मास दरम्यान पाटण के बाहर नहीं जाने की प्रतिज्ञा की थी।
शास्त्रों मे चातुर्मास काल में मुख्य रुप से नव प्रकार की धर्म आराधना करने का विधान किया गया है। यह चातुर्मास के नव अलंकार कहलाते है। प्रत्येक जैन श्रावक को इन अलंकारों से अपने जीवन को विभूषित करना चाहिए। 1.सामायिक : स्मता भाव में स्थिर होने के लिए एक मुहूर्त तक सावद्य योगों के त्याग की प्रतिज्ञा करके एक स्थान पर बैठना सामायिक कहलाता है। सामायिक के समय राग -द्वेषों से मुक्त रहना चाहिए और नमस्कार महामंत्र का जाप अथवा शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए। सामायिक में मन, वचन और काया के 32 दोषों का परित्याग करना चाहिए। स्वच्छ एकांत स्थान पर बैठकर सामायिक करनी चाहिए। 2. प्रतिक्रमण : अनजाने में अथवा जानबूझकर हुए पापों से पीछे हटने की प्रक्रिया का नाम ही प्रतिक्रमण है। श्रावक अपने जीवन में व्रत ग्रहण करता है। इन व्रतों में अतिचार लगाने से व्रत मलिन हो जाते है, उन अतिचारों की आलोचना प्रतिक्रमण द्वारा की जाती है। प्रतिदिन सुबह-शाम प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। प्रतिक्रमण हमेशा गुरु सान्निध्य में ही करना चाहिए। गुरु का साक्षात् योग न हो तो उनकी स्थापना की जा सकती है। 3.पौषध : यह व्रत निवृत्ति रुप है। यह साधु जीवन के आस्वाद रुप भी है। इसमें भोजन, शरीर सेवा, व्यापार, मैथुन से निवृत्ति होती है। पर्व दिनों में पौषध कम से कम एक साथ चार अथवा आठ प्रहर का
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