Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 77
________________ - 5 5 संघयण :- ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, छेवट्ट । 5 संस्थान :- न्यग्रोधपरिमण्डल, सादी, कुब्ज, वामन, हुंडक । 1 वर्ण :- अशुभ वर्ण 1 गंध :- दुर्गंध 1 रस :- अशुभ रस 1 स्पर्श :- अशुभ स्पर्श 2. आनुपूर्वी :- तिर्यंचानुपूर्वी, नरकानुपूर्वी 1 विहायोगति :- अशुभ विहायोगति । पाप के 82 भेद की तालिका ज्ञानावरणीय वेदनीय दर्शनावरणीय आयुष्य मोहनीय 26 गोत्र अंतराय नाम कर्म स्थावर प्रत्येक पिंड प्रकृति 10+ 1+ 23 = 34 घाती कर्म 45 अघाती कर्म 37 45+37 कुल = 82 इन सब प्रकृतियों की विस्तृत व्याख्याएँ इसी पुस्तक में आगे कर्म विज्ञान के विषय में दी है। पुण्य-पाप के 4 प्रकार 1. पुण्यानुबंधि पुण्य : जिस पुण्य के उदय में जीव को अच्छी सामग्री के साथ अच्छी बुद्धि मिलती है एवं जीव उस पुण्य का सदुपयोग कर पुन: पुण्य का उपार्जन करे वह पुण्यानुबंधि पुण्य । जैसे धन्ना, शालिभद्र का पुण्य। 2. पापानुबंधि पुण्य : पूर्वोपार्जित पुण्य का उदय होने पर सामग्री तो खूब मिलती है, अच्छी मिलती है लेकिन उसका दुरुपयोग कर पुन: पाप को बाँधे । जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पुण्य से प्राप्त सत्ता का उपयोग ब्राह्मणों की आँखें फोड़ने में किया एवं उससे पाप बांधकर नरक में गया। 3. पुण्यानुबंधि पाप : पाप के उदय को समभाव से सहन करने पर नया पुण्य उपार्जित होता है । जैसे अंजना सती को पाप के उदय से पति वियोग हुआ । परन्तु उस दु:ख में स्वयं दु:खी न बन कर आराधना में लीन रही, उससे पुण्य बंध हुआ।अर्थात्पाप के उदय में स्वच्छ बुद्धि सेसमभाव में रहना। 4. पापानुबंधि पाप : पाप के उदय में आर्तध्यान कर पुन: पाप कर्म को बाँधना । भील-कसाई-मच्छीमार 75

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