Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 41
________________ लिया जाता है। पौषध तो आत्मा का औषध है, पौषध दरम्यान समस्त सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग होने से आत्मा अपने स्वभाव में स्थिर बनती है। 4. परमात्मा पूजन : श्रावक-श्राविका को नित्य ही जिनेश्वर परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा अवश्य करनी चाहिए। स्वद्रव्य से उत्तम सामग्री पूर्वक परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा अवश्य करनी चाहिए। स्वद्रव्य से उत्तम सामग्री पूर्वक परमात्मा की भावपूर्वक भक्ति करने से चारित्रमोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है, पूजा संबंधी सभी कार्य अपने हाथों से ही करना चाहिए। प्रभु पूजा में विधि का पालन अवश्य करना चाहिए और आशातनाओं से बचने का पूरा पूरा प्रयत्न करना चाहिए। 5. स्नात्र पूजा : गीत-गान पूर्वक परमात्मा की स्नात्र पूजा अवश्य करनी चाहिए। परमात्मा के जन्म समय इन्द्र महाराजा प्रभु को मेरु पर्वत पर ले जाकर जो स्नात्र महोत्सव करते है, उसी महोत्सव का वर्णन स्नात्र पूजा में आता है। 6. विलेपन पूजा : भगवान की प्रतिमा पर उत्तम द्रव्यों का विलेपन करना विलेपन पूजा कहलाता है। बरास-चंदन आदि उत्तम द्रव्यों का विलेपन करते समय यह भावना करनी चाहिए कि 'हे प्रभो! इस चंदन पूजा के फलस्वरुप मेरी आत्मा में रही कषायों की आग शांत हो । 7. ब्रह्मचर्य पालन : चातुर्मास काल में ब्रह्मचर्य पालन का विशिष्ट महत्व है। ब्रह्मचर्य का स्थूल अर्थमैथुन का त्याग और सूक्ष्म दृष्टि से ब्रह्म अर्थात् आत्मा चर अथवा रमणता अर्थात् आत्मरमणता। ब्रह्मचर्य के पालन से मन पवित्र बनता है, अशुभ विचार दूर हो जाते है, अशुभ कर्मों का नाश होता है और आत्मा विशुद्ध बनती जाती है। इस व्रत की सुरक्षा के लिए नौ वाडों का पालन अवश्य करना चाहिए । 8. दान : दान पाँच प्रकार के होते है । चातुर्मास काल के दौरान अपनी शक्ति के अनुसार श्रावक को प्रतिदिन सुपात्रदान अवश्य करना चाहिए। दीन, दुःखी अनाथ व मूक प्राणी पर अनुकंपा करने से भी पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होता है। 9. तपश्चर्या: कर्मों की निर्जरा के लिए तप एक अमोघ उपाय है। तीर्थंकर परमात्मा ने स्वयं तप किया और तप धर्म की विशेष आराधना करनी चाहिए। अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता रुप बाह्यतप की साधना अभ्यंतर तप की पुष्टि के लिए करनी चाहिए। बाह्य तप के साथ साथ अपने जीवन में सरलता, नम्रता, वैयावच्च, स्वाध्याय, सहनशीलता आदि गुणों का विकास होना चाहिए। उपर्युक्त नव अलंकारो के साथ ही अन्य व्रत पच्चक्खाण आदि कर अपने जीवन को आराधना म बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। 39

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