Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 53
________________ 11. जीवदया-जयणा जीव विचार सब धर्मों का मूल अहिंसा है । अहिंसा यानि जयणा-प्रयत्नपूर्वक जीवों की रक्षा करना । जयणा धर्म की जननी (माता) है। यदि माता ही न हो तो धर्म का जन्म कैसे हो सकता है ? हम जीव रक्षा तब ही कर सकते हैं, जब हमें जीवों के प्रकार और उनके उत्पन्न होने के स्थान का स्पष्ट ज्ञान हो । जीवन में धर्म की उन्नति और धर्म पालन जयणा से ही हो सकता है । जीवों को पहचानकर उन्हें अभयदान देने वाले को भी सदा अभयदान मिलता है । जीवों की रक्षा करने वालों के जीवन में रोगोत्पत्ति नहीं होती है एवं वे स्वस्थता पूर्वक लंबा जीवन जीते हैं। इस प्रकरण में संसारी जीवों का वर्णन है । जीवों के 563 भेद सिखने के पहले कितनी ही परिभाषाएँ सिखनी जरूरी है । वे इस प्रकार है - 1. जीव - प्राप्त को जो धारण करे, उसे जीव कहते हैं । प्राण 10 (दस) हैं। 5 इन्द्रिया + 3 योग + श्वासोच्छ्वास + आयुष्य = 10 प्राण एवं ज्ञान-दर्शन-चारित्र जिसके लक्षण है, जिसे सुख-दु:ख का अनुभव होता है, वह जीव कहलाता है । जैसे पशु, पक्षी, जीवजंतु, पानी, अग्नि, वनस्पति मनुष्य वगैरह । 2. मुक्त - आठ कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जाने वाले, जिनके जन्म, जरा (वृद्धावस्था), मृत्यु, हमेशा ___ के लिए बंद हो गये हैं, जो अनंत सुख का अनुभव करते हैं। 3. मरण - जीव (आत्मा) का शरीर से वियोग । 4. वस - सुख-दु:ख में खुद की इच्छानुसार हलन-चलन करने वाले जीव । जैसे चींटी, मनुष्य वगैरह। 5. स्थावर - सुख-दु:ख में खुद की इच्छानुसार हलन-चलन नहीं करने वाले जीव । जैसे पृथ्वी, पानी वगैरह । 6. सूक्ष्म - चर्मचक्षु से जो दिखाई नहीं देते एवं ऐसे जीव, जिन्हें छेदा-भेदा और जलाया नहीं जा सकता। उन्हें सूक्ष्म कहते हैं। 7. बादर - चर्मचक्षु से जो देखे जा सके वैसे स्थूल शरीरधारी जीव । 8. पर्याप्ति - आहारादि पुद्गल के समूह में से और पुद्गल के ग्रहण-परिणमन के कारण उत्पन्न होने वाली आत्मा की शक्ति । पर्याप्ति छ: प्रकार की है - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा एवं मन । 9. पर्याप्त - जो जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करके मरते हैं वे । 10. अपर्याप्त - जो जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण किये बिना मरते हैं, वे ।

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