Book Title: Jain Tattva Darshan Part 07
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 74
________________ 4. पाप तत्त्व पुण्य का विरोधी तत्त्व पाप है। आत्मा को मलिन बनाने वाला अशुभ कर्म पाप है और जो कार्य करने से आत्मा को पाप कर्म का बंध होता है, वह भी पाप कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पुण्य की तरह पाप तत्त्व के भी दो अंग हैं । पाप क्रिया और पाप फल और वे परस्पर कारण-कार्य रूप हैं। दु:खमय संसार में परिभ्रमण कराने वाला कर्म पाप है । मोक्ष पाने में आत्मा को बाधा देने वाला भी मुख्य रूप से पाप ही है। 1. प्राणातिपात : जीव हिंसा करना ।। 2. मृषावाद : झूठ बोलना।। 3. | अदत्तादान : चोरी करना । मैथुन : अब्रह्म सेवन, विषय भोग करना । 5. | परिग्रह :- द्रव्यादि के ऊपर मूर्छा-ममत्व रखना। 6. | क्रोध :- गुस्सा करना। | मान :- अहंकार, अभिमान करना। 8. | माया :- कपट, ठगाई करना। 9. लोभ :- आसक्ति, मेरा-मेरा करना। 10. | राग :- मोहवश-यह अच्छा है - ऐसे भाव 11. | द्वेष करना :- मोहवश – यह बुरा है, ऐसे भाव 12. | कलह : क्लेश, लड़ाई झगड़ा करना । 13. | अभ्याख्यान :- दूसरों के दोष को प्रकट करना, कलंक देना । 14. | पैशुन्य :- चुगली करना। 15. | रति-अरति :- हर्ष व उद्वेग करना । 16. | पर परिवाद :- दूसरों की निंदा करना । 17. | माया मृषावाद :- माया से झूठ बोलना । 18. | मिथ्यात्व शल्य :- सत्य तत्त्व की अश्रद्धा । विपरीत श्रद्धा करना। इन 18 प्रकार की क्रियाओं द्वारा जीव को 82 प्रकार के अशुभ-कर्म का बंध होता है । जिसके उदय से जीव को अशाता, रोग, शोक, भय आदि विविध प्रकार की पीड़ा, आपत्ति आदि भोगने पड़ते है। 7. | 72

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