Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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( २२ ) के अवसर पर अपने प्राणो की चिन्ता न करके माता-पिता को बचाने में प्रयत्नशील होते हैं । यह उनकी मातृ-पितृ-भक्ति का परिचायक है। उनका व्यवहार यशोदा के साथ भी माता का मा ही रहा । वलभद्र ने यह जान लेने पर भी कि 'यशोदा उनकी दासी है उनकी भावना मे कोई अन्तर नहीं आया। उन्होने बलभद्र ने यह वचन ले ही लिया कि आगे वे कभी यशोदा को दानी नही कहेंगे । इसी प्रकार उन्होने अज्ञात कुलजील वाले वीरक को अपनी पुत्री केतुमजरी व्याह दी। उन्होंने अपने जीवनकाल मे अनेक लोगो को मयम पालन की प्रेरणा दी। केतुमजरी को प्रतिबोध इसी भावना से दिया । उनका साहस अदम्य था तो क्षमा अद्भुत । अपने अपकारी प्राणघाती को भी क्षमा कर देते हैं। पाडवो मे क्षमा याचना कर लेते हैं। जैन कृष्णचरित्र मे ऐना एक भी प्रमग नही है कि उन्होंने कभी अमत्य भापण किया हो अथवा छलप्रपच का सहारा लिया हो, वे सदैव सत्यवादी और न्यायप्रिय रहे। न्यायनिष्ठा के कारण ही उन्होने अपने पुत्र भावकुमार को द्वारका से बाहर निकाल दिया।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के चरित्र मे अनेक उदात्त गुण, नीतिनिष्ठा और लोकनायक की गरिमा विद्यमान है।
सक्षेप मे श्रीकृष्ण का मपूर्ण जीवन कप्टो और नघर्षों मे जूझने को अविस्मरणीय कथा है। उदात्त गुणो से आप्लावित उनका जीवन-चरित्र एक ऐसा प्रकाशपुज है, जो मानव को निरतर गतिशील रहने को प्रेरित करता है । मफलता की एक ऐसी कहानी है, जो युगयुगो तक जन-जन को पुरुषार्थ और निष्काम कर्मपथ पर अग्रसर करती रहेगी |
प्रस्तुत पुस्तक का ध्येय यही है कि पाठक को जैन-ग्रन्थो में वणित कृष्णचरित्र का ज्ञान हो जाय और साथ ही उमे वैदिक ग्रथो मे उल्लिखित कृष्ण परित्र की भी झाकी मिल जाय । पाठक उनके उज्ज्वल गुणो को अपने जीवन मे अपनाने को प्रयत्नशील हो। ग्रन्थगत एव परम्परागत भेदो को भुलाकर जीवन मे अभेद (एकरूपता) का आचरण करें---यही इन लेखन सपादन का ध्येय है।
-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
-वज मोहन 'जैन'