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भ. महावीर और उनका समय लिए उन्होंने बड़ी भक्तिसे प्रापका नाम 'सन्मति' रक्खा । दूसरी यह कि, एक दिन भाप बहुतसे राजकुमारोंके साथ वनमें वृक्षक्रीड़ा कर रहे थे, इतनेमें वहाँ पर एक महाभयंकर और विशालकाय सर्प प्रा निकला और उस वृक्षको ही मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बेढ़कर स्थित हो गया जिस पर आप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूपको देखकर दूसरे राजकुमार भयविह्वल हो गये और उसी दशामें वृक्षों परसे गिरकर अथवा कूद कर अपने अपने घरको भाग गये। परन्तु आपके हृदयमें जरा भी भयका संचार नहीं हुआ-आप बिलकुल निर्भयचित्त होकर उस काले नागसे ही क्रीड़ा करने लगे और आपने उस पर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रमसे उसे खूब ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्तसे आप लोकमें 'महावीर' नामसे प्रसिद्ध हुए । इन दोनों घटनाओंसे. यह स्पष्ट जाना जाता है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि और शक्तिका असाधारण विकास हो रहा था और इस प्रकारकी घटनाएं उनके भावी असाधारण व्यक्तित्वको सूचित करती थीं। सो ठीक ही है
“होनहार बिरवानके होत चीकने पात ।" प्रायः तीस वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर संसार-देहभोगोंसे पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने आत्मोत्कर्षको साधने और अपना अन्तिम छल्य प्राप्त करनेकी ही नहीं किन्तु संसारके जीवोंको सन्मार्गमें लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा बजानेकी एक विशेष लगन लगी-दीन दुखियोंकी पुकार उनके हृदयमें घर
कर गई-और इसलिये उन्होंने, अब और अधिक समय तक गृहवासको उचित न .. समझकर, जंगल का रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय
® संजयस्यार्थसंदेहे संजाते विजयस्य च ।
जन्मानन्तरमेवैनमभ्येत्यालोकमात्रतः ॥ तत्संदेहगते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तितः । अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाहृतः ।।
-महापुराण, पर्व ७४वाँ + इनमेंसे पहली घटनाका उल्लेख प्राय: दिगम्बर ग्रन्थोंमें और दूसरीका दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें बहुलतासे पाया जाता है।