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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका हार सबके लिये मुक्त रहता था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था-पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, जाति-पांति, छूताछूत और ऊँचनीचका उसमें कोई भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें परिगणित होते थे, मोर उक्त प्रकारके भेदभावको भुलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल-मिलकर बैठते और धर्मश्रवण करते थे.-मानों सब एक ही पिताकी संतान हों। इस मादर्शसे समवसरणमें भगवान् महावीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नजर आती थी
और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोंसे पीड़ित थे, जिन्हें कभी धर्मश्रवणका, शास्त्रोंके अध्ययनका, अपने विकासका
और उच्चसंस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं समझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिमें प्रवेश करते ही भगवान् महावीरके सामीप्यसे जीवोंका वैरभाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठनेमें कोई भय नहीं होता था, चूहा बिना किमी संकोचके बिल्लीका आलिंगन करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नाँदमें जल पीती थी और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावकके साथ खेलता था। यह सब महावीरके योगबलका माहात्म्य था। उनके पात्मामें अहिंसाको पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थितिमें किसीका वैर स्थिर नही रह सकता था । पतंजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शन में, योगके इस माहात्म्यको स्वीकार किया है; जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे प्रकट है:
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३५॥ जैनशास्त्रोंमें महावीरके विहारसमयादिककी कितनी ही विभूतियोंका-प्रतिशयोंका-वर्णन किया गया है । परन्तु उन्हें यहाँ पर छोड़ा जाता है। क्योंकि स्वामी समन्तभद्रने लिखा है:
देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥
-प्रातमीमांसा