Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 20
________________ २ जैन पुराणको भाई अशनिवेग को दिया था किन्तु इसने अपने चाचा से राज्य छीन लिया था चचेरी बहन श्यामा और बहनोई वसुदेव का हरण करने में इसने संकोच नहीं किया था। इस घटना के फलस्वरूप वसुदेव ने इसे बहुत दण्डित किया था । हपु० १९.८१-८५, ९७-१११, पापु० ११.२१-२२ (३) रामकालीन एक विद्याधर । इसने दधिमुख नगर के राजा गन्धर्व और उनकी रानी अमरा को चन्द्रलेखा आदि कन्याओं पर मनोनुगामिनी विद्या की सिद्धि के समय अनेक उपसर्ग किये थे किन्तु शान्तिपूर्वक उपसर्ग सहने से छः वर्ष में सिद्ध होनेवाली यह विद्या इन्हें अवधि से पूर्व ही सिद्ध हो गयी थी । पपु० ५१.२४-४१ अंगारचती-विजयापर्यंत की दक्षिण बेणी में स्थित स्वर्गाभपुर के राजा चित्तवेग विद्याधर की पत्नी । इसके पुत्र का नाम मानसवेग और पुत्री का नाम वेगवती था । हपु० २४.६९-७०, ३०.८ अंगारवेग - किन्नरगीत नगर के राजा अशनिवेग विद्याधर का उत्तराधिकारी । मपु० ७०. २५४-२५७ अंगारिणीविद्याओं के सोलह निकायों की एक विद्या । ० २२.६१-६२ अंगावर्त - विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी का उन्नीसव नगर । अपरनाम बहुमुखी मपु० १९.४५, ४५० २२.९५, १०१ - - दिति और अदिति द्वारा नमि और विनमि को प्रदत्त अंगिरस् — एक ऋषि । यह शतमन्यु ऋषि का गुरु था । पपु० ८.३०० अंगिरेकि - भरत क्षेत्र का एक पर्वत । दिग्विजय के समय चक्रवर्ती भरत की सेना असुरधूपन पर्वत से प्रयाण कर इस पर्वत पर आयी थी । मपु० २९.७० शिरावरी एक तापस यह वृषभदेव के मार्ग से च्युत होकर तापस हो गया था । पपु० ४.१२६ - १२७ अंगुल - आठ जौ प्रमित एक माप । यह शारीरिक अंगों और छोटी वस्तुओं की माप लेने में प्रयुक्त होता है । अपने-अपने समय में मनुष्यों का अंगुल स्वांगुल माना गया है । छः अंगुल का एक पाद और दो पादों की एक वितस्ति तथा दो वितस्तियों का एक हाथ होता है । मपु० १०.९४, हपु० ७.४०-४१, ४४-४५ अंजन (१) पूर्व विदेह क्षेत्र का एक यक्षार पर्वत यह सीता नदी से निषद्य कुलाचल तक विस्तृत है मपु० १२.२०१ २०२ ५.२२८-२२९ हपु० (२) सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों का प्रथम पटल और इन्द्रक विमान । हपु० ६.४८ दे० सानत्कुमार (३) रुचकवर पर्वत का सातवाँ कूट । यहाँ आनन्दा देवी रहती है । हपु० ५७०३ दे० रुचकवर (४) प्रथम नरकभूमि रत्नप्रभा के खरभाग का दसवाँ पटल । हपु० ४.५२-५४ दे० खरभाग (५) एक जनपद । तीर्थंकर नेमिनाथ विहार करते हुए यहाँ आये थे । हपु० ५९.१०९-१११ (६) सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन का एक भवन । इसकी चौड़ाई और परिधि पैंतालीस योजन है । हपु० ५.३१६, ३४९-३२२ Jain Education International अंगारवती अंजना में द्वीप और सागर के आगे असंख्यात (७) मध्यलोक द्वीपों और सागरों में पाँचवाँ द्वीप एवं सागर । हपु० ५.६२२-६२६ (८) आँखों का सौन्दर्य प्रसाधन । मपु० १४.९ अंजनक -- रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत की उत्तरदिशा के आठ कूटों में तीसरा कूट । यहाँ पुण्डरीकिणी देवी रहती है । हपु० ५.६९९, ७१५ दे० रुचकवर अंजनकूट मानुषोत्तर पर्वत का दक्षिण दिशायीं कूट। यहाँ अ निघोष देव रहता है । पु० ५.५९०, ६०४ दे० मानुषोत्तर अंजनगिरि - ( १ ) मेरु पर्वत के दक्षिण की ओर सीतोदा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित कूट । हपु० ५.२०६ (२) नन्दीश्वर द्वीप के मध्य चौरासी हज़ार योजन गहरे, ढोल के समान आकार तथा वज्रमय मूलवाले, चारों दिशाओं में स्थित काले चार शिखरों और चार जिनालयों से युक्त, चार पर्वत । मपु० ८.३२४, हपु० ५.५८६-५९१, ६४६-६५४, ६७६-६७८ दे० नन्दीश्वर — (३) रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत की उत्तर दिशा में स्थित वर्द्धमान कूट का निवासी, एक पल्य की आयु वाला दिग्गजेन्द्रदेव | हपु० ५.६९९-७०२ दे० रुचकवर अंजनपर्वत - (१) राम-रावण युद्ध में राम का एक हाथी । मपु० ६८. ५४२-५४५ (२) नन्दीश्वर द्वीप के चार पर्वतों का नाम । हपु० ५.६५२-६५५ दे० अंजनगिरि अंजनमूल— मानुषोत्तर पर्वत का पश्चिमदिशावर्ती एक कूट। यहाँ सिद्धदेव रहता है । हपु० ५.५९०, ६०४ दे० मानुषोत्तर अंजनमूलक (१) पर द्वीप के रुचक पर्वत की दिशा में स्थित आठवाँ कूट । यहाँ नन्दीवर्द्धना देवी रहती है । हपु० ५६९.९, ७०४७०६ दे० रुचकवर (२) रत्नप्रभा नरक के खरभाग का शिलामय ग्यारहवाँ पटल । हपु० ४.५०-५४ दे० खरभाग अंजना – (१) नरक की चौथी पृथिवी, अपरनाम पंकप्रभा । हपु० ४. ४३-४६ दे० पंकप्रभा (२) विजयापर्यंत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्कान्त नगर के स्वामी प्रभंजन विद्याधर की भार्या, अमिततेज की जननी । मपु० ६८.२७५ २७६ (३) महेन्द्रनगर के राजा महेन्द्र और उनकी रानी हृदयगा की पुत्री । यह अरिंदम आदि सौ भाइयों की बहिन तथा पवनंजय की पत्नी थी। म० १५.१२-१६,२२० इसकी सहेली मिकेशी को पवनंजय इष्ट नहीं था । उसने पवनंजय और विद्युत्प्रभ की तुलना करते हुए पवनंजय को गोष्पद और विद्युत्प्रभ को समुद्र बताया था । सहेली के इस कथन को पवनंजय ने भी सुन लिया था । पवनंजय ने यह समझकर कि मिश्रकेशी का यह मत अंजना को भी मान्य है वह कुपित हो गया और उसने इससे विवाह करके असमागम से इसे दुःखी करने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय के अनुसार पवनंजय ने इससे विवाह करके इसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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