Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 10
________________ प्राक्कथन जैन विद्या के मर्मज्ञ विद्वान् प्रो. राजाराम जैन द्वारा विरचित "जैन पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख" शीर्षक ग्रन्थ का विद्वत्समाज को परिचय देते समय मुझे विशेष आनन्द का अनुभव हो रहा है। उन्होंने सितम्बर २६-३०, २००१ ई. में इस विषय पर श्री गणेश वर्णी जैन शोध संस्थान, वाराणसी में दो व्याख्यान दिये थे, उन्हें ही किञ्चित् परिवर्धित कर उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया है। इसमें उनकी लगभग अर्द्धशताब्दी का पाण्डुलिपि विषयक अन्वेषण-अनुसंधान का अनुभव समाहित है। ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर उन्होंने अनेक कारणों से पाण्डुलिपियों के सम्यक् संरक्षण के अभाव में उनके लुप्त होने, विदेशियों द्वारा भारत के बाहर ले जाने एवञ्च उनके जर्जर हो जाने का उल्लेख किया है और इसका उल्लेख करते-करते अपने मन की व्यथा को व्यक्त किया है, जो न केवल उनकी अपितु, आज भारतीय विद्या के प्रत्येक अध्येता के मन की व्यथा है। __जो बीत गया सो बीत गया। अब जो बचा है, उसे सुरक्षित रखना ही हमारी प्राथमिकता है। इस सन्दर्भ में प्रो. राजाराम जैन ने कतिपय महत्वपूर्ण सुझाव (पृ. ७६-८१) दिए हैं, जिनका शीघ्रातिशीघ्र कार्यान्वयन आवश्यक है। आज भी लाखों की संख्या में पाण्डुलिपियाँ शास्त्र-भण्डागारों में ही नहीं, लोगों के घरों में भी बिखरी पड़ी हैं, जिनकी किसी को जानकारी भी नहीं है, उनके सूचीकरण की तो बात ही क्या ? यह कार्य एक व्यक्ति का नहीं, एक संस्था का भी नहीं, समूचे राष्ट्र का है। ये समस्त पाण्डुलिपियाँ राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं और जैसा कि प्रो. राजाराम जैन ने प्रस्तुत ग्रन्थ में बताया है, अनेक प्रकार की आध्यात्मिक और दार्शनिक जानकारी के साथ-साथ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारी के प्रामाणिक स्रोत भी हैं। इस विषय में विशेष उल्लेखनीय हैं इनकी पुष्पिकाएँ और प्रशस्तियाँ, जिनमें लेखकों ने अपने समय के राजाओं-महाराजाओं, सामन्तों, मन्त्रियों तथा श्रेष्ठियों का उल्लेख करने के साथ अपने से पूर्ववर्ती एवं समसामयिक मनीषियों-विचारकों का भी उल्लेख किया है। पाण्डुलिपियों के माध्यम से उपलब्ध जानकारी भारत की सुदीर्घ इतिहास एवं भूगोल के अनुद्घाटित एवं अल्पोद्घाटित पक्षों को उद्घाटित कर सकती है। यह सन्तोष की बात है कि जैन-परम्परा ने ग्रंथ-लेखन पर विशेष बल दिया। 'शतं वद मा लिख मा लिख की धारणा को इसने नहीं अपनाया। ग्रंथ लिखना, लिखवाना, प्रतिलिपियाँ बनवाना तथा उन्हें पाठकों को उपहार रूप में देना, इसमें पुण्यदायी माना गया है। इस विषय में राजाराम जी ने उल्लेख किया है पुष्पदन्त की महापुराण की प्रशस्ति का, जिसमें कहा गया है कि भरत एवं नन्न के राजमहलों में साहित्यकारों के साथ-साथ प्रतिलिपिकार भी प्रतिलिपियों का कार्य करते थे। यही कारण था कि अतिविशाल जैन पाण्डुलिपि-वाङ्मय अपने देश में बन गया। विदेशी

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